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कृष्ण बलदेव वैद के उद्धरण

कल शाम एक असाहित्यिक भीड़ में गुज़री। कुछ चेहरे अजनबी। नुमाइश। औरतें बहुत थीं। सब मोटी। सजी-धजी लदी-फदी भैंसें। कामुकता ग़ायब। उसकी जगह पैसे ने ले ली है। आदमी भी ऐसे जिनके लिंग लापता हों। लिंगहीन लोथड़े। जहाँ पैसा और जायदाद हावी हो जाएँ, वहाँ सेक्स ग़ायब हो जाता है। लच्चरपन अलबत्ता बचा रहता है। ख़ूबसूरती आराइश के नीचे दब जाती है, ख़ून पानी में बदल जाता है, वीर्य साबुनी झाग में।

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