कैसे बोलौं पंडिता, देव कौनैं ठांई
kaise bolau.n pa.nDita, dev kaunai.n Thaa.n.ii
कैसे बोलौं पंडिता, देव कौनैं ठांई।
निज तत निहारतां, अम्हें तुम्हें नाहीं॥
पखांणची देवली पखाण चां देव।
पखांण पूजिला कैसें फटीला सनेह॥
सरजीव तोड़िया निरजीवी पूजिला।
पापचीं करणीं कैसें दूतर तिरोला॥
तीरथि तीरथि सनानं करीला।
बाहर धोये कैसें भीतरि भेदिला॥
आदिनाथ नाती मछिंद्रनाथ पूता।
निज तत निहारं गारेख अवधूता॥
हे पंडित! कैसे बताऊँ, देवता किस स्थान पर है? जब आत्मतत्त्व जान लें तो हम-तुम का भेद नहीं रहता। मंदिर पाषाण से बना है और देव भी पाषाण/पत्थर का है। पत्थर को पूजने से स्नेह भाव कैसे निकलेगा? तुम सजीव फूल तोड़ते हो और उनसे निर्जीव पत्थर की पूजा करते हो, इस पाप कर्म से दुस्तर (दूतर) सागर कैसे तर पाओगे? तुम अनेक तीर्थों पर स्नान करते हो। शरीर को बाहर से धोने मात्र से मन को कैसे भेद पाओगे? आदिनाथ का पौत्र, मछंदर नाथ का पुत्र गोरख कहता है—हे अवधू! आत्म स्वरूप को पहचानो।
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