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झहरि-झहरि झीनी बूँद है परति मानो

jhahri-jhahri jhiinii buu.nd hai parti maano

देव

देव

झहरि-झहरि झीनी बूँद है परति मानो

देव

और अधिकदेव

    झहरि-झहरि झीनी बूँद है परति मानो,

    घहरि-घहरि घटा घिरी है गगन में।

    आनि कह्यो स्याम मो सों, चलो झूलिबे को आजु,

    फूली ना समानी, भयी ऐसी हौं मगन मैं॥

    चाहति उठ्योई, उड़ि गयी सो निगोड़ी नींद,

    सोय गये भाग मेरे जागि वा जगन में।

    आँखि खोलि देखौं तो मैं घन हैं घनस्याम,

    वेई छायी बूंदें मेरे आँसू ह्वै दृगन में॥

    विरहिणी नायिका कह रही है कि मैंने रात में जो स्वप्न देखा उसमें मुझे लगा कि झरझर का शब्द करती हुई झीनी-झीनी बूँदें पड़ रही हैं और गर्जना के साथ आकाश में बादलों की घटाएँ घिरी हुई हैं। उस वातावरण में कृष्ण ने आकर मुझसे कहा है कि चलो आज झूला झूलें। प्रियतम का यह प्रस्ताव सुनकर मैं अत्यधिक ख़ुश हुई। मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही रहा। मैं झूलने के लिए उठना ही चाहती थी कि अभागी दुष्ट नींद ही उड़ गई। जागने से नींद का टूट जाना मुझे दुर्भाग्यपूर्ण लगा। मैंने अपनी आँखों खोलकर कृष्ण को देखना चाहा तो मुझे लगा कि वहाँ तो आकाश में बादल हैं और घनश्याम यानी कृष्ण ही हैं। तब मुझ विरहिणी को अपनी आँखों में आए हुए आसूँ ही मिले। वह इस दुःख से जो रो पड़ी थी उससे आँसू गए थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : देव

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