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ज़िंदगी साँप-सीढ़ी क्यूँ हैं

zindagi saanp siDhi kyoon hain

नवल बिश्नोई

नवल बिश्नोई

ज़िंदगी साँप-सीढ़ी क्यूँ हैं

नवल बिश्नोई

और अधिकनवल बिश्नोई

    ये जो खेल है इसमें हमदर्दी, हलीमी तो हैं मगर दुश्वारी, बगावत

    जब्र भी इसमें ये इस तरह का विरोधाभास क्यूँ हैं?

    जब उपर चढ़ने को सीढ़ियाँ हैं तो फिर क़दम-क़दम पे ये साँप क्यूँ हैं?

    जब सच और मोहब्बत ही हैं इसके उसूल तो फिर ज़माना इतना फेक क्यूँ हैं?

    मगर हर तरफ़ तो नहीं हैं नफ़रत हर तरफ़ तो ये आग के शोले नहीं

    फिर ये चंद लोग नेक क्यूँ हैं, जब खेल बनाया हैं उसूलों से

    इसके हैं कुछ कानून कुछ कायदे फिर इसमें ये दोगलेपन की मिस्टेक क्यूँ हैं?

    ये जो खेल हैं, ये शतरंज से भी हैं जहीन, हैं मुश्किल, शतरंज के हैं कुछ कायदे

    हैं बादशाह, प्यादे, वजीर के मायने मगर इसमें तो

    साँप छोटा-बड़ा, अपना-पराया डसता हरेक क्यूँ हैं

    शतरंज के फिर भी मानी हैं ऐसे की जिसके दाँव

    चले हो सर-ब-सर जो हो जीत के बिल्कुल पास, बिल्कुल क़रीब

    थोड़ी देर में ही भले मगर जीतता हैं ज़रूर,

    पर इसमें तो मंजिल के क़रीब जा के भी जेहर का सेक क्यूँ हैं?

    मैं टूटा-फूटा करके कुछ होंसला चला था ‘एक’ से ‘सौ’ की तरफ़

    आई मुश्किलें, दुश्वरियाँ, कुछ लगन, कुछ हिम्मत करके किया बहुत से साँपों को पार

    सोचा था आगे का रास्ता हैं आसान, रफ़्ता-रफ़्ता था मंजिल के क़रीब

    पहुँचा ‘99’ पर मगर वापिस जो गिरा हूँ तो फिर ‘एक’ क्यूँ हैं?

    इसमें बाकी सब फेक तो चंद लोग नेक क्यूँ हैं?

    इसमें ये इस तरह का विरोधाभास क्यूँ हैं?

    जब ऊपर चढ़ने को सीढ़ियाँ हैं तो फिर क़दम-क़दम पे ये साँप क्यूँ हैं?

    स्रोत :
    • रचनाकार : नवल बिश्नोई
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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