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विशाल में प्रवेश

vishal mein pravesh

सत्यव्रत रजक

सत्यव्रत रजक

विशाल में प्रवेश

सत्यव्रत रजक

और अधिकसत्यव्रत रजक

    इतने विशाल महानगर की गली की अशुक्त बू

    कुत्तों और सहिष्णुओं से भर गई

    इतने विशाल में क्या है—कथन और कथरियों से त्यक्त पीठें!

    इस विशाल में

    कसैली मूर्च्छाएँ कब असहमत होकर निराकार चाकुएँ बन जाएँ

    जो अचानक से इतनी सुलभ निष्कर्ष पर पहुँच सकती हैं

    कि निस्पृह और संदर्भहीन होने को महानगर की चाही गली भी चोर मालूम पड़े

    जीवन की निरपराध उम्मीद

    प्राथमिकताओं की नोची ईमानदारी

    अशक्ति का सारा समाज लेकर लोहे की किस बालू में सिरा दूँ

    उनका क्या होगा जो घुटनों के दर्द की तरह रोज़ याद नहीं आए

    उन स्त्रियों की उत्तरकथाएँ कहाँ गई

    जिनमें अंसंख्यों ने डूब-डूब कर पवित्र होने की डुबकी लगाई

    जिनके घाटों पर रेहड़ियों के सामान और मालाएँ बिकती रहीं(?)

    ढाँढस और ढलान के लिए

    फिलहाल सारे अवरोध अनुपलब्ध हैं

    पलाश वसंत पतझरी ऋतुओं के बजबजाए

    लगभग कट चुके प्रतीक लेकर

    कब तक सुन्न शोकहृदयों को कुरेदूँ!

    जमा पूँजी में

    गत दिवंगत बीमारियों में खपाई दवाओं के खोखे

    डिप्रेस्ड सोसाइटी के तेल में छने नारे

    घर से आते प्रत्याशित कॉल

    चाबियों के छल्ले

    व्हॉट्सएप के स्टेटस

    बोतलों में सड़़ चुके पानी

    के अतिरिक्त

    इतना पानी नहीं है कि नीलेपन में झाँकूँ तो कोई परछाई उभरे ही

    लेकिन उन कटे हुए बालों का क्या होगा

    जो मेरे थे

    जिन्हें आगे से मोड़़कर

    आईना माबूद की तरह देखता था(?)

    रात का लाल चाँद उलगुलान की तीली कान में चुभोता है अचानक

    कौंधती प्रज्ञा मुझे नहीं चुन पाती...

    इतने सँकरे और असमतल देहयानों से होकर

    ढाबों की लालसाएँ और लिप्तताएँ अवैध होना चाहती हैं

    हमारे बीच सब कुछ है सिवाय एक मृत्यु के

    जिसे तमाम सहमतियों के बावजूद भी आने नहीं देते!

    मुझे उस मनुष्य से बचना है

    जो गुलमोहर की छाँव में इस साहस के साथ सोता है

    वह स्त्री की याद को भुला देगा

    —मुझे डराता है!

    दूधों से नहाई

    ख़्वाहिशों ने पनीले गद्य में

    फँसाकर वाक्य जाली चार...

    क्या चुनूँगा फिर?

    लाल बत्तियों पर खाली होता यह विशाल

    जलस्मृतियाँ हैं कंधों पर पड़ती पीली स्ट्रीट लाइट

    दिन भर के गद्य अवाक्य सब झुलसाते

    अस्थियों में आसुत होकर टूट रहे हैं

    महानगर की दीवालें मूत और मेहनत से समांतर रंग चुकी हैं

    खेद से कतराते हर चौथी सीढ़ी पर टोकती आवाज़

    मेरी नहीं है

    पुराने प्रायश्चित नहीं घेरेंगे मेरी लेटी घटनाएँ

    साँप तुम मुझे दूध पीने के भ्रम में घेरो

    मार दो लाठी से।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सत्यव्रत रजक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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