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वाया धर्मराज की हताशा

vaya dharmaraj ki hatasha

सत्यव्रत रजक

सत्यव्रत रजक

वाया धर्मराज की हताशा

सत्यव्रत रजक

और अधिकसत्यव्रत रजक

    जो जगाते हैं

    वे तारे ही हैं घड़ी ही हैं वे आकाश ही हैं

    नहीं है तय

    वे घड़ों के फूटने की आवाज़ भी हो सकते है

    या चुड़ैल-बिल्ली के भात गिराने की घट्ट

    अभी-अभी ताज़ा छाछ में मक्खी टूट मरे

    या बकरी जार फाँदकर फ़सल में घुस घिरे

    और उसी के बीच पानी से एक ठंडी छत गिरे

    और उसी के बीच कवि कविता में

    थोड़ी अधिक हत्या के लिए एक छत और गिरा दे

    एक पुनरुक्ति है :

    एक चींटी लादकर ले जा रही है एक मरी चींटी

    एक चींटी लाद सकती है एक मरी चींटी

    एक चींटी नहीं लाद रही है एक जिंदा चींटी

    एक चींटी नहीं लाद सकती है एक जिंदा चींटी

    धूल उड़ती है

    धुआँ और अख़बार उड़ता है

    सिलेंडर से लीक हो हवा उड़ती है

    भोपाल मर सकता है

    और एक चींटी बच सकती है उसी भोपाल में उसी ज़हर में

    एक पटना टूट सकता है

    और एक पुल बच सकता है

    पुल के नीचे से गुज़र सकती है मुसलसल नाव

    नदी और नागरिक और मरे के फूल

    और हम बीसियों बार की रद्दी किताब पढ़ते-पढ़ते

    उबासी लेते-लेते प्यार करते-करते

    सार्त्र और हीगल को लाते-लाते एक स्वदेशी नमक बनाएँगे

    सपने की लुगदी बनाकर

    सुकरात के फेफड़े में ठूँस देंगें

    नाज़िम हिक़मत से एक मर्सिया लिखवाकर

    नक़ली अँगूठी पहनकर हिंदी में रोएँगे

    पानी की तरह बहेंगे

    भूख की तरह इल्म भरेंगे

    खून की तरह सुर्ख़

    लकड़ी की तरह भूरा

    भिंडी की तरह सब्ज चेहरा लेकर जूता विक्रेता की बोहनी बिगाड़ेंगे

    हम बीतेंगे

    रंगीन अँगूठियों में तैरते प्रकाश की तरह

    और किसी होने का कारण बन जाएँगे

    मिटते हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सत्यव्रत रजक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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