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तुम्हारे होने को जीते हुए

tumhare hone ko jite hue

आशुतोष प्रसिद्ध

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तुम्हारे होने को जीते हुए

आशुतोष प्रसिद्ध

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    ज़्यादा नहीं

    हाथ भर की दूरी रही होगी

    मगर तुमसे रहा नहीं गया

    तुमने कहा—

    ‘पास आकर बैठो

    मुझसे दूर नहीं रहा जाता तुमसे’

    एक बिंदु पर हाथ रखकर बोलीं—

    ‘यहाँ

    हाँ! बिल्कुल यहाँ बैठो।’

    मैं अपनी जगह से थोड़ा-सा हिला

    और तुम्हारे सामने बैठ गया

    मन की जगह मिल जाए

    तो बदलने में कष्ट नहीं होता

    तुम बोलीं—

    ‘हाँ अब सही से दिखोगे

    और फिर चुप हो गईं

    तुम चुप होकर भी बोलती हो!’

    तुम्हारे हाथ रुकते नहीं हैं

    रोको तो भी चलते रहते हैं

    कुछ नहीं करती तो जहाँ बैठती हो

    वहाँ की घास-फूस ही उखाड़ती रहती हो

    हाथ रोक दूँ

    तो पाँव पकड़कर सहलाने लगती हो

    तुम्हें आदत है

    बोझ कम करने की

    वह पृथ्वी का हो

    या मन का

    बोझ इतना था

    कि भूल गया था

    बिना बोझ कैसे लगता है

    जीवन

    अब याद करता हूँ

    कि क्या

    बोझ भी होता है जीवन?

    और उस पर

    तुम्हारी आदत ने

    आदत बिगाड़ दी मेरी

    इन दिनों मैं हल्का हो गया हूँ

    इतना हल्का

    कि उड़ रहा हूँ

    तुम्हारे प्यार की मद्धिम बयार में

    पतवार की मानिंद…

    स्रोत :
    • रचनाकार : आशुतोष प्रसिद्ध
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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