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शुतुरमुर्ग़

shuturmurgh

मनीषा कुलश्रेष्ठ

मनीषा कुलश्रेष्ठ

शुतुरमुर्ग़

मनीषा कुलश्रेष्ठ

और अधिकमनीषा कुलश्रेष्ठ

    अपनी बेचैनियों को उठाकर

    कहाँ रख दूँ

    किसी ताख पर

    या लपेट कर सिरहाने

    मेरे कान सोते क्यों नहीं

    आँखें सूँघती रहती हैं

    तुम्हारे सूजे होंठों को चखती है मेरी पेशानी

    मेरे होंठ ऊँघते हैं

    तुम्हारे चुंबनों के दौरान

    सब गड़बड़ा गया है

    मैं चीख़ कर हँसने लगी हूँ

    और खिलखिला कर रोती हूँ

    मेरी तप्त-वासनाओं को क्या हुआ है?

    प्रेम है कि कोई लगातार गिरती बर्फ़

    ठंडा पड़ता जा रहा है

    सारा ग़ुस्सा, सारी जलन

    मैं देख रही हूँ तुम ढँक रहे हो

    ख़ुद को एक छाया से

    जिसे मैं उधेड़ देना चाहती हूँ

    किसी और के लिए निकले

    तुम्हारे अस्फुट स्वर

    मुझ में भर रहे हैं ठंडी हिंसा

    सारे मुखौटे खींच कर पूछने

    का मन है

    कहो?

    किसके लिए

    तुम रंग रहे हो अपनी खाल

    कहाँ छिपा दी है

    वह विज्ञापन बनी आस्था

    कट्टरता के नाख़ूनों को

    किसके लिए मुलायम कर रहे हो

    तुम किसी को पाने के लिए

    कर सकते हो पार

    अंटार्टिका

    या सहारा रेगिस्तान भी

    अपनी ज़मीन से भागते हुए

    एक अजीब थकान में हूँ मैं

    शुतुरमुर्ग़ की तरह

    अपनी खोई हुई आग की तलाश में

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीषा कुलश्रेष्ठ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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