भुला दी गईं वे कविताएँ
जिनमें प्रेमियों की विरह
और प्रेमिकाओं के चुंबन लिखे थे,
ताज़ा और जीवंत रहा बस वह लावा
जो लहू में बहता, लहू को जिलाए रखने में रहा कामयाब।
धूर्त का ज्ञान साबित हुए वे सारे प्रवचन,
जो भगोड़ों द्वारा व्यास गद्दियों पर बैठकर दिए गए थे
याद रहा तो बस
नमक का बढ़ता दाम और सिर छुपाए रखने का जुटान।
बच्चों की किलकारियों ने मोहना छोड़ दिया
और नज़रें अटकती रहीं उनके हाथों में थमे कटोरों पर,
जो वो फैला देते हैं हर विकास-मार्ग की बत्तियों पर
विकास की रफ़्तार रोक कर।
ललित कलाएँ अश्लीलता का चरम लगती हैं इस चरमराते समय में,
जब उनमें नहीं दिखती है फटे ज्वालामुखी की धार
और दिखती है बस फूलों और तितलियों से भरी बहार।
क़लम से कुरेदे जा रहे हैं दांत
उनमें फंसे ज़िंदा गोश्त के टुकड़े निकालने को
जो पूरी की पूरी नस्ल को चबाते वक़्त अटक गए थे।
ओह!
मेरा कहा तुम्हें बेदर्द लगता है!
ऐसे शब्दों से ही सड़ता हुआ पस निकलता है,
जो रह गया शेष देह में तो दलता रहेगा देश को,
सो सुनो,
अपने कानों का मैल निकाल
और पतली कर अपनी मोटी खाल,
मैं सरस्वती-पुत्री वीणा के तार नहीं बजाऊँगी,
बल्कि उसे गदा की तरह लहरा
तुम्हें इस समर की बार-बार याद दिलाऊँगी।
अगर डर है मर जाने का
तो तुम मर चुके हो पहले ही, ये भी बताऊँगी।
नपुंसकों को लंगोट की ज़रूरत तो नहीं,
फिर भी कस लो,
कि समय के आह्वान की चुनौतियों से
तुम्हारा शीघ्रपतन न हो जाए कहीं,
दम है अगर तुम्हारे हौसलों में
अपने अज्ञातवास से निकलने का
तो मुमकिन है इस बार
बृहन्नला विराट नगर का युद्ध ही नहीं,
पूरी महाभारत अकेली जीत आए।
- रचनाकार : दामिनी यादव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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