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रज़ा आज भी पेंट करते हैं,

एक प्रार्थना की तरह

रंगीन-रंगहीन

रचते हैं वृत्त और वर्ग

अँधेरे उजालों के क्षितिज

रँगते हैं

सिरे जंगलों के

मुहाने नदियों के

अपनी अबोध मुस्कान से लिपट

लेते हैं दुपहरिया नींद

भोली-सी

इधर

हम बहस करते हैं

बस बहस निरर्थक

बिन रचे-बिन गहे

फोड़ते हैं नींदें

एक-दूसरे की

तीखी चोंचों से

खुट-खुट

हम पढ़ते भी नहीं

विचार भी नहीं करते

विचारधारा पर रहते हैं

बेचैन

रज़ा आज भी रचते हैं

सोते हैं अबोध नींद

मुस्कुराते हैं नींद में

उम्र गिलहरी उतर कर

उनके कंधों से

घूम आती है

जंगल सतपुड़ा के

स्रोत :
  • रचनाकार : मनीषा कुलश्रेष्ठ
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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