जब मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ
तुम कहते हो मुझमें दर्द नहीं है,
जब मैं दर्द को नंगा करती हूँ
तुम कहते हो मुझमें शर्म नहीं है,
जब मैं शर्म से बोझिल पलकें
उठा तक नहीं पाती हूँ,
तुम कहते हो उठा नज़रें लड़की,
तुझे तो अभी ज़माना देखना है,
जब ज़माने को देखकर मैं
तुम्हें दुनिया दिखाती हूँ,
तुम कहते हो, लड़की!
तुझे तो अभी प्रेम करने की ज़रूरत है,
पर मेरी शर्म से झुकी पलकें
जो तुमने ज़बर्दस्ती उठवाईं
खुली आँखों में जो तुमने
अपनी नंगी सच्चाइयाँ घुसाईं
वो देखती हैं सड़क पर जनमते
और जनमकर सड़क पर ही मरते
इंसान के ही किसी बीज को
वो ठिठक जाती हैं,
बलात्कार से उधड़े शरीरों पर,
वो देखती हैं सबका पेट पालने वाले
और ख़ुद भूख से बिलबिलाते, मरते किसान को,
भूख की क़ीमत पर आबरू का
सौदा करवाते किसी धनवान को,
ढाबे पर चाय बाँट-बाँट बुढ़ाते किसी बचपन को,
सिर्फ़ अपना हक़ माँग लेने भर से
अपराधी की श्रेणी में आते किसी नक्सल को,
ये कड़वी सच्चाइयाँ हैं परत-दर-परत
नहीं है इनका कोई समाधान, कोई हद,
मुझे अब फूल-पत्ती, चुंबन-आलिंगन
नदियाँ-सागर, इंद्रधनुष-बादल
नज़र नहीं आते हैं,
सिर्फ़ ख़ामोश चीखें और दर्द ही
मेरे कानों तक पहुँच पाते हैं।
फिर भी सुना तो यही है कि
दुनिया गोल है
और घूम भी रही है अपनी धुरी पर निरंतर
मैं इंतज़ार में हूँ शायद
कभी पहुँच ही जाऊँ उस बिंदु पर दुबारा
जब मैं फिर लिख पाऊँ प्रेम-कविताएँ,
पर तब न कहना
कि मुझमें दर्द नहीं रहता है,
देख सको तो देखो
मुझमें अब दर्द का लावा बहता है,
अब मैं शरमाऊँगी भी नहीं, बल्कि
तुम्हें ही शर्मसार कर दूँगी,
क्योंकि मैं अब जान गई हूँ
तुम्हारा भी राज़ कि
कपड़ों के नीचे सबकी तरह
तुम्हारा जिस्म भी नंगा रहता है,
तुम्हारी ज़बान कुछ कहती है
तुम्हारा जिस्म कुछ और कहता है,
इसीलिए तो देखो
तुम्हारी दोग़ली समझदारी का ठीकरा
अब मेरी ठोकर पे रहता है।
- रचनाकार : दामिनी यादव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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