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प्रतीक्षारत पाषाण-शिलाएँ

pratiksharat pashan shilayen

दामिनी यादव

दामिनी यादव

प्रतीक्षारत पाषाण-शिलाएँ

दामिनी यादव

और अधिकदामिनी यादव

    बड़ी ही विशाल हृदया रही होंगी यशोधरा,

    जो अपने जीवन को शून्य करके जाने वाले जोगी के

    अक्षय-पात्र को भी रिक्त नहीं रहने दिया

    और सौंप दिया अंतिम दान बनाकर साझे अंश को,

    जिसे पहले सँभालनी थी सत्ता,

    पर सँभालना पड़ा आध्यात्मिक विरासत के अंश को।

    संसार को ज्ञान देने वाले कितने ही ज्ञानी

    एक स्त्री के मन को समझ पाने में रहे हमेशा अज्ञानी,

    उनके सामने हमेशा एक बड़ा लक्ष्य रहा

    संसार में उजास भरने का

    इसीलिए नहीं रहा कभी कोई संकोच,

    किसी एक के घर-संसार को अँधियारा करने का।

    अर्द्धांगिनी कही जाने वालियाँ तो

    क्या ही अधिकार पाती हैं,

    प्रेयसी बन इठलाने वालियाँ भी सिर्फ़

    बपौती बन बेबस रह जाती हैं।

    तुम्हारे सुख की कामना पर जो भोग-विलास बन जाए

    और सुख से उकता जब तुम चलो ज्ञान-दीप जलाने

    तो कर दे त्याग सर्वस्व का

    और पथ का प्रकाश बन जाए।

    स्वयंवर की माला थमाकर भी हरने वाला समाज

    क्या सचमुच देता है स्त्री को कोई अधिकार?

    स्त्री जब चाहती है अपना जीवन जीना

    तुम उसे अपनी जीवनसंगी बना लाते हो

    और जब वो चाहती है संग-साथ में ही रम जाना

    तुम उसे ज्ञान और त्याग का महत्त्व बताते हो।

    क्या हो अगर उसे नहीं बनना संसार का सूरज

    सिर्फ़ चाहती हो अपने घर के आँगन में खिल जाना?

    क्या हो अगर वो चाहे अपने घर में ही बसना

    कि संसार को अपना घर बनाना?

    और अगर कभी चाहे अपने अलावा किसी को भी

    तो क्यों अनिवार्य सिद्ध कर देते हो उसके जीवन को

    औरों के जीवन की सार्थकता बन जाना?

    स्त्री की अग्नि-परीक्षा की लपटें कभी ठंडी ही नहीं पड़तीं,

    चाहे रही हो सीता-उर्मिला या द्रौपदी-कुंती।

    काया का मोह छुड़ाकर जो

    राम की माया का मार्ग दिखाती है,

    वो स्त्री तक हमेशा

    तुलसीदास के प्रश्नचिह्नों में घिरी रह जाती है।

    वेणी सँभालते कैकेयी के हाथों ने युद्धभूमि में

    वैसे ही सँभाल ली थी घोड़े और रथ की लगाम,

    लेकिन दो वचनों के दुरुपयोग का उस पर

    आज तक कायम है इल्ज़ाम।

    स्त्री के अपराधों को कर दे क्षमा!

    ये समाज नहीं हुआ है अभी इतना महान्।

    अपनी ही बैठी डाली पर जो कर रहा था

    कुल्हाड़ी का आघात,

    उस कालिदास का साहित्य भी तो करता रहा

    मार्गदर्शक-प्रेरणास्रोत स्त्री-समुदाय को लेकर पक्षपात।

    रावण का सोचा-समझा व्याभिचार भी

    मंदोदरी का साथ पाता है,

    लेकिन अहिल्या का छल से हुआ अपराध भी

    क्षमा नहीं, पथराई प्रतीक्षा दे जाता है।

    हर युग, हर युगदृष्टा,

    स्त्रियों से कोमलता और त्याग ही चाहता रहा,

    लेकिन प्रतीक्षारत ही रहीं अनेक पाषाण-शिलाएँ,

    क्योंकि स्त्री को त्याग के नाम पर

    बनवास का मार्ग दिखाता समाज

    ख़ुद ही उसके जन्म, उसके अस्तित्व,

    उसकी सार्थकता और उसकी मुक्ति के रास्ते का

    पत्थर बन जाता रहा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दामिनी यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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