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पीर पंजाल की पहाड़ियों से लौटते हुए

peer panjal ki pahaDiyon se lautte hue

आमिर हमज़ा

आमिर हमज़ा

पीर पंजाल की पहाड़ियों से लौटते हुए

आमिर हमज़ा

और अधिकआमिर हमज़ा

     

    उस पहाड़ी लड़की की हँसी के लिए जो कविता लिखती है और भूल गई है मातृभाषा अपनी

    मृत्यु आएगी प्यार ढूँढने हिस्से का अपने ज़मीं पर इसी।
    पत्ते पतझड़ के…
    ख़त यार के…
    यादें साथ की…
    ख़ाब गिलहरी के…
    और उसका यह कहना—‘हमें याद करके दुखी मत होना’
    आग के काम आएँगे एक रोज़ सर्द रातों में
    ज़मीं पर इसी।

    हाथों पर लकीरें होंगी विदा की क़रीब-तरीन
    ठूँठ पर कौआ बैठकी दरख़्तों की
    ज़मीं पर इसी।

    एक बंजारा…
    एक लकड़हारा…
    एक चरवाहा…
    गीत गुनगुनाएगा मग्मूम आवाज़ में कोई
    ज़मीं पर इसी।

    मृत्यु ख़ामोशी का ककहरा रचेगी दरमियाँ भाषा के
    मृत्यु रोएगी बिलख-बिलख हिज्र में महबूब के
    माथे पर अपने राख रगड़े जले चिनार की…देखने में ब्यूंस के
    एक रोज़…
    ज़मीं पर इसी।

    मैं लिखूँगा लबों से पेशानी पर नाम तुम्हारा
    जानाँ… तुम प्यार समझना।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आमिर हमज़ा
    • प्रकाशन : समालोचन

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