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नकबा, 1948’

nakba ‘1948’

आमिर हमज़ा

आमिर हमज़ा

नकबा, 1948’

आमिर हमज़ा

और अधिकआमिर हमज़ा

    कभी एक जगह हुआ करती थी… सपनों की जगह…

    तितलियों की… होने की… चलने की संग-साथ रोशनी में महताब की।

    जहाँ कुछ दरख़्त ज़ैतून के. कुछ परिंदें. आँख भर उम्मीदें।

    कुछ कम बुझे मुरझाए फूल।

    एक अटका पत्ता पीले हरे की कश्मकश में।

    गालभर पानी और दो हाथ एक-दूसरे का भरोसा बनते हुए।

    उस साल बारिश बहुत बहुत हुई ख़ून की

    उस साल परिंदें हवा में गुम गए

    उस साल दरख़्तों पर ज़ैतून के हरा आया

    उस साल फूलों को खिलना नसीब हुआ

    उस साल हाथों पर, हाथों में बंदूक़ थामे सरहदें खींची गईं

    उस साल एक मलंग के मुँह से बद्दुआ का सोता फूटा

    उस साल एक परिंदे ने एक परिंदे को परवाज़ करने की क़सम दिलाई

    उस साल और फिर यों अब हर साल

    …फ़लस्तीन

    इंसानियत के चुक जाने के दौर का क़िस्सा हुआ एक।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आमिर हमज़ा
    • प्रकाशन : समालोचन

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