सुनो सेठजी,
लाल बत्ती पर खड़ी मैं वही भिखारिन हूँ,
जिसकी फैली हथेली पर तुम्हारी दयालुता
कुछ सिक्के या नोट थमा जाती है,
और हे पुण्यात्मा!
एहसास है मुझे कि क्यों तुम्हारी हथेली
छिप कर मेरी हथेली को दबाती है,
इस गुप्तदान की रसीद तुम्हें
गुप्त तरीक़े से ही चाहिए न,
कुछ ऐसा ही उन पलों में
लपलपाती-सी लपटों सरीखी भूख
तुम्हारी आँखों में नज़र आती है,
तुम साफ़-सुथरे, गाड़ी में बैठे साहब,
क्या मेरे शरीर का मटमैलापन और गंदगी
उस समय तुम्हें नज़र नहीं आती है?
कैसे कर लेते हो तुम ये परीक्षण की,
मेरे पहने चिथड़ों से भी तुम्हारी नज़र,
मेरे शरीर के ओर-छोर को बींध जाती है,
मेरे स्तनों में दिखते हैं तुम्हें
भींचने-झिंझोड़ने भर को दो माँस के लोथड़े,
क्यों उनमें तुम्हें मेरे बच्चे की
भूख नज़र नहीं आती है?
मैं भिखारिन तुम्हारे शहर की समृद्धि-वैभव पर
एक अवांछित कलंक सरीखी हूँ,
फिर भी मेरी जाँघों-बीच गिरने को
तुम्हारी घिनौनी तृष्णा कितना छटपटाती है।
इस लालबत्ती पर मेरी स्थिति तो
सिर्फ़ मेरी भूख से बिलबिलाती है
और नहीं कर पाते कोई प्रतिकार मेरे हाथ
विवशताओं से दबी वो हथेली बस सलाम बजा लाती है,
मगर मेरी ख़ामोश मजबूरी को
बिन कहे समझ जाती है ये लालबत्ती
और तुरंत हरी होकर
तुम्हें आगे भाग लेने को उँगली दिखाती है,
ओ गाड़ी वाले सेठजी!
आगे फूट लेने से पहले सुनिए,
मेरी चिथड़ों से ढकने की कोशिश में लिपटी
फिर भी अधनंगी-सी होती ये देह
अटल-निष्पाप खड़ी है
और परिस्थितियों से उपजी विवशता में लिपटी मेरी धवल आत्मा
तुम्हारी नंगी-सियाह सफ़ेदपोशी से बहुत बड़ी है...
- रचनाकार : दामिनी यादव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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