सुनो ना,
कुछ कहना था तुमसे
हाँ, इतने वक़्त बाद
सिर्फ़ तुमसे।
पर कहाँ से शुरू करूँ?
क्या तुम्हें वो अहसास बताऊँ
जो तुमसे मिलकर जिए थे
या वो जो तुमसे दूर रहकर भी ज़िंदा रहे?
मेरी वीरान ज़िंदगी में
तुम्हारा आना ऐसा था
जैसे बुझती निगाहों में
कोई सुनहरा ख़्वाब बो गया हो।
तुमसे बातें करना
जैसे दिल के रेगिस्तान में
बरसात की पहली झड़ी
जैसे वो ख़्वाब अब उग आया हो
और मैं तुम्हारे तसव्वुर में
तुम्हारे ही ख़्वाब में घुल गई हूँ।
ऐसा लगता है
मैं इस दुनिया की जद्दोजहद से दूर
किसी बाग में बैठी हूँ
जहाँ तितलियों के रंग
मेरी बेरंग ज़िंदगी में भी उतर आए हैं।
तुमसे मेरा कोई ताल्लुक़ है
बस ये ख़्याल ही
मेरे रोम-रोम में रूमानियत भर देता है।
बिलकुल वैसे ही
जैसे काली रात में
कोई जुगनुओं की कहानी लिख रहा हो
जहाँ सितारे जुगनू बनकर
ज़मीन पर उतर आए हों।
मगर कभी-कभी
ज़िंदगी के थपेड़े
मेरे गालों पर निशान छोड़ जाते हैं,
अचानक आँख खुलती है
वो ख़्वाब, वो तसव्वुर बिखर जाता है।
हक़ीक़त सामने आती है
इस तरह कि लगता है
ये ख़्वाब, ये अहसास, ये तसव्वुर ही मेरा लिबास थे
और ज़िंदगी की बेरहम सच्चाई
इन्हें तार-तार कर गई।
अब नंगी खड़ी हूँ मैं
हक़ीक़त के आईने के सामने।
- रचनाकार : अब्दुल रहीम चंदा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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