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ख़ारिज उपसंहार

kharij upsanhar

सत्यव्रत रजक

सत्यव्रत रजक

ख़ारिज उपसंहार

सत्यव्रत रजक

और अधिकसत्यव्रत रजक

    ये मेरे लोग हैं

    जो अपनी मूठ में रेत और रागी साथ लेकर चलते हैं

    उनकी ऐड़ियों में सारी उमर लोहे की नालें ठुकी रहीं

    जबकि मरे तो नथुनों में कपास भर दिया गया (क्या यह उनकी इच्छा थी?)

    मेरे लोग प्रधानमंत्री को याद नहीं करेंगे कराहते हुए

    वे लोकदेवी को पुकारेंगे

    लोकदेवियाँ या तो शाबर मंत्रों या फिर

    चबूतरों में अधसमाई ज़मी होंगी

    (बैलगाड़ी के उतरे पहिए पर

    कुत्ते मूतकर चले जाते हैं—चुपचाप रहते हैं गाड़ी, बैल और गाड़ीवान)

    प्रधानमंत्री है

    जो किसी क़ीमती चट्टान से बना है

    कोई मौसम उस पर सबूत नहीं छोड़ता

    कोई घाम उसे दरकाता है

    उसकी शुद्ध मुँहफट तमीज़ें दम घोंटती बीमारी के मुँह

    के सामने राष्ट्रवाद जैसी अफ़वाह

    उसके रक्त के सुखन

    बूचड़खाने पर झँडे के रंग की जंग

    उसे कचनार के फूलों में उफनाए मकड़ियों के जाले

    नहीं दिखते

    वह गर्म आलुओं को फूँक-फूँककर खाता है

    ठँडी चाय को तीली से सुलगाता है

    वह है तो प्रधानमंत्री

    हमारे के बीच आते हुए

    हमारे मैदे का फ़राख़-दिल आटा बन जाता है

    अतः कोई नहीं है मेरे लोगों के लिए

    सारी प्रतिज्ञाएँ-प्रेस कॉन्फ्रेंसें अपने नेता की अमरता के लिए समुद्र मथने को चली जाएँगी

    अतः कोई नहीं होगा मेरे लोगों के लिए

    कोई नहीं होगा

    जो नदी से उलीची मछलियों की टोकरी उठाएगा

    नाव सिराएगा हौले वाक्य की तरह

    कठफोड़वों के घोंसलों में भर जाएगा पानी

    उरनैना नहीं होगा किसी युवती का नाम

    अनचाही जगहों पर लोग

    मृत्यु को अवश्या की तरह

    छोड़ आएँगे वशहद भरे तिसहाल से निवृत्त हो-होकर

    ख़ुद के व्योम में तितर जाएँगे

    गोया पारधी चुगने को चुनिंदा दाने डाल देते हैं

    या मारने को अनाधिकृत नाट्यकामनाएँ

    समुद्र मथकर अधिनायकों के वाक्य अपने-अपने हाथों में अमृत कलश लेकर लौट रहे हैं

    हुकूमत करते हुए वे नहीं उकताएँगे

    बस वे हुकूमत के नाम से छींक भरेंगे

    एक साफ़ जगह वे छिड़क देंगे सारा ज़ुकाम

    कहेंगे ‘हह मौसम ख़राब है!’

    सज़ायाफ़्तों से नुक्ते उठा-उठाकर

    ‘एस्टॉनामी डिपार्टमेंट’ खोल लेंगे अधिनायकों के रिटायर्ड वाक्य

    (बोगेनवेलिया और यूकेलिप्टस के गुणधर्म पढ़ाएँगे;

    सारे कर्ज़िया अपने तख़ल्लुस पोंछकर पढ़ने जाएँगे—‘सुप्रभात’)

    जिसके पास होगा मुद्राभंडार

    वह बनेगा सबसे बड़ा प्रेरक वक्ता ऊँचा भाषाविद्

    बीच-बीच में कह देगा एक ‘सहमत’ चुटकुला

    बाद उँगलियाँ फेर-बदल कर लौट जाएगा ऐशगाह में

    (“हमें अपना काम होशोहवास में करना चाहिए

    लेना चाहिए धैर्य से काम

    उम्मीद पर रहना चाहिए क़ायम

    घुटनों के बल करना चाहिए व्यायाम”)

    हमारे लोग घड़ा बनाएँगे कुफ़्र से

    वे बुतपरस्त हो बैठेंगे अपने मायनों में

    जूतों से धूल निकालते हुए इहहाल पर रूमाल रगड़ेंगे

    उनके बच्चे फूटे घड़ों को बजाएँगे

    औरतें उनमें आग जलाकर तापेंगी

    अधिनायकों के गुर्गों से कोई

    हमारे लोगों के बीच आएगा मरीयल शफ़्फ़ाफ़ हालात देखकर हमारी पीठ मलेगा

    जिसे कृतज्ञता का रिपोर्टर समझ बैठेंगे हममें से अधिकाँश

    या मर्मेड की आधुनिक अवतारी

    या तो हमारे लोगों का चमड़ा ढोलकों पर मढ़ता रहेगा

    उनसे अनगिनत ढोलकें बनाएँगी जा सकती हैं

    या फिर सबसे सस्ते तेल में बदलते जाएँगे

    जिसमें तले जा सकें सस्ते समोसे

    हमारे लोग बहुत बुरी तरह से मारे जाएँगे

    उमर के अंतिम दिनों ख़ुद के ही नख़ नोंचते

    वे व्यर्थ के यूटोपिया में फँसकर मरेंगे

    मछली की रीढ़ की तरह

    वे किसी सतह को चूम सके कोई

    स्पर्श से अलहदा हुए

    इस तरह से जल जाएँगे और

    अपनी स्तुतियों में वे ही नहीं होंगे साक्षी

    अतः मेरे लोगों के लिए कोई नहीं होगा

    तालाब के तारों पर बैठे फ़ाख़्तों के लिए

    उछलती मछली की कोई भूख नहीं है

    लेकिन इन बुतपरस्तों के लिए हर गिरती हुई पत्ती

    पुरानी खोई कीमत है

    मेरे लोग अपने गीतों में दोहराते रहेंगे मर्सिया

    किंतु राजा की भौंह ज़रा भी नहीं कुम्हलाएगी

    वह तब भी लुंगी में हठहठी चपाए बैठा रहेगा

    अतः मेरे लोगों के लिए कोई नहीं होगा

    ये मेरे लोग ईश्वर के आकार में सिर झुकाते बिना

    नौहा या अवकाश उजड़ जाएँगे

    अप्रासंगिक रहेंगे

    जैसे पराजित राजा की शेरवानी

    पुनश्च उनका कोई जनकवि उठेगा तो

    दाद खुजाते बीमार पोते पर दूध मलेगा

    इंसाफ़ के लिए अच्छी नींद और देसी नुस्ख़े लेने के बाद

    सभी अपनी जाँघों पर दादें ढूँढने लगेंगे

    वे अकाल-देस में चलती पछुआ हवा की तरह साँय-साँय की जवान देह में सो जाएँगे

    मानो उनकी शुष्क छातियों पर कोई कीड़ा बिलाता हो

    जैसे चुपचाप वे धसक चुके गृहयुद्ध के बाद नींद ले रहे हों

    उसी तरह झाड़ियों में उतरती संध्या में रुचि रखने के अधिकार से मर चुके हैं

    चुपचाप वे फट चुकी पैंट में रोटियाँ लपेटकर रख देंगे ताकि उन्हें ठँडा होने से बचाया जा सके

    चुपचाप वे हँसियों से सब्जी काटते अँगूठा कतर लेंगे

    चुपचाप वे दारू के बीमार हो उठेंगे

    चुपचाप उन्हें अपनी वय याद आएगी और चुपचाप वे नवविवाहिताओं की ओर से मुँह घुमा लेंगे

    चुपचाप वे अपनी बदबूदार काँखें और दाढ़ी खुजाते-खुजाते ईंट ढोएँगे

    एड़ियों में सरसों का तेल मलते हुए मछली खाने की चाह जगेगी

    सबसे बूढ़ा आदमी उठकर हाठ चल देगा

    भुनी मछलियों की काली थैली और नौनिहालों को नारंगी जलेबियाँ लटकाए लौट आएगा

    इस तरह ही पछुआ की हवा भी अ-झंकृत देहगंधों में सूख जाएगी

    हमारे दूधिया सपने हलक का चाँद बन लटक गए

    हमारा पुरजोर प्यार दादुरों का राष्ट्रगान

    हमारी चादर पुरानी मैली चंद नकदी

    यानी हमारी महत्वाकांक्षाएँ हमारे मर्सिए के बीच हमारी तंबाकू मल रहीं है

    हमारी एकजुटता हमारे ही बीच से गुल हो गई स्ट्रीटलाइट

    हमारी आख़िरी उम्मीद दुर्वासा की लीद

    हमारी गुलमोहरें हमारे ही सर पर थप्पड़

    हमारी सारी आँखें राजा के कुल एक्वेरियम का नीलापन हैं

    सुखों की चिडियाँ अपनी चोंच भरकर किस पहाड़

    पर बीट करेंगी

    कौन कीड़े उनमें थपकर सड़ जाएँगे

    मेरे लोग किस भूकंप के इंतज़ार में सारे घर उठा कहाँ ले जाएँगे

    जो आज गिरे और टूट गए

    उनकी बिल्लियों के मुँह चूहेदानी में फँसे मिलेंगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सत्यव्रत रजक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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