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जंगली

jangli

दामिनी यादव

और अधिकदामिनी यादव

    सिर्फ़ ज़िंदगियाँ ही जंगलों में रह गई हैं

    जानवर तो अब सब शहरों में बस गए हैं,

    ख़ुद ही गढ़े थे इंसानों ने

    इंसानी तहज़ीब और सभ्यता के पैमाने जो

    उसी झूठ की कीचड़

    उसी झूठ की दलदल में सब धँस गए हैं।

    सभ्यता के दावेदार हम इंसान

    बन गए हैं इस दुनिया के सबसे बड़े दावेदार

    कहते हैं जानवरों को जंगली

    और करते हैं उन्हें बदनाम, पर

    जानवर तो लूट-मार नहीं करते

    अपनी जेब भरने के नाम पर

    वो किसी दूसरे को कंगाल नहीं करते

    बलात्कार के नाम पर शरीरों की

    दरिंदगी से चीर-फाड़ नहीं करते,

    उनमें हवस नहीं

    सिर्फ़ क़ुदरत के जैसी एक क़ुदरती भूख होती है

    जो ज़ेहन से ‘जिस्म’ तक आती है

    और जिस्म से गुज़रकर फिर

    वापस जिस्म में ही कहीं ख़ामोशी से सो जाती है।

    जानवर तो जंगलों में क़ुदरत के संग बसे हैं

    और क़ुदरती रंगों में ही ढले हैं।

    शहरों में आज जो साँस

    हर साँस पर घुट जाती-सी लगती है,

    जंगलों की सरहद में दाख़िल होते ही

    वो हर साँस हरी-भरी हो लौट आती-सी लगती है।

    जंगल में सिर्फ़ पेट की

    भूख का क़ानून चलता है,

    पर एक की भूख से

    दूसरे का निवाला नहीं छिनता है,

    जंगल में आसमान ही होता है आशियाना सबका

    नहीं मारता कोई, किसी और के घोंसले पर झपट्टा,

    जंगली होना गाली नहीं होता है

    ये वर्ग तो शहरी ग़लतियों का बोझ ढोता है

    जंगलों की जड़ें ज़मीन में गहरे उतर जाती हैं

    शहरों की तो हर बारिश में, रंगत बदल जाती है

    जंगलों में ज़िंदगी, ज़िंदगी का नाम है

    शहरों में चलते-फिरते जिस्म, कितने बेजान हैं

    हम इंसान ज़िंदगी भर

    अपने जीने की वजह ही नहीं ढूँढ़ पाते हैं,

    हर क़दम पर अपने ग़ैरज़रूरी बनते वजूद से

    जूझते नज़र आते हैं

    या फिर ख़ुद के ज़िंदा रहने की शर्त के तौर पर,

    दूसरे इंसान की मौत की वजह बन जाते हैं।

    इंसानी काँधों को सिर्फ़ जनाज़े ढोने का ढंग याद रहा

    एक-दूसरे का हाथ थामने का हुनर तो जैसे

    हर इंसान भूल ही गया

    हम इंसानों ने दुनिया के हर कोने में आग लगा दी है

    हम इंसानों ने इंसानियत और मुहब्बत की

    हर बारिश सुखा दी है।

    हम इंसान इंसानियत के गुनहगार हैं

    हर्गिज़ नहीं इंसान कहलाने के हक़दार हैं।

    क्या मिला इंसानों को इंसान होने में

    हर कांधा लगा है ख़ुद अपना सलीब ढोने में।

    अगर यही सभ्यता है तो जंगली रहने में ही भलाई है

    इसलिए मेरे दिल ने यही उम्मीद जगाई है,

    काश कि तोड़ दें हम झूठे मुखौटे सब

    काश कि देख सकें हम इंसान, इंसानों में ही रब

    काश कि हम हर सरहद से हर सरहद को मिटा दें

    काश कि हम एक-दूजे के हक़ लौटा दें

    काश कि फाड़ दें हम सभ्यता पर लिखी हर किताब

    काश कि हम शहरों में लागू होने दें जंगलराज-सा हिसाब

    काश कि हम फिर से जंगली हवाओं को शहरों में आने दें

    काश कि हम इंसान ख़ुद को फिर से जंगली

    और शहर को जंगल बन जाने दें।

    शायद तब इंसान फिर से जो शहर बसाएगा

    उसमें पुरानी ग़लतियाँ और गुनाह नहीं दोहराएगा।

    आइए तब तक ख़ुद को असभ्य ही रह जाने दें,

    अपने भीतर उतार लें जंगल

    और ख़ुद को जंगली ही बन जाने दें।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दामिनी यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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