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दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर

duara pe dadur bolihain angna mein jhingur

शिवम चौबे

शिवम चौबे

दुअरा पे दादुर बोलिहैं अंगना में झींगुर

शिवम चौबे

और अधिकशिवम चौबे

    रह-रह टपकती बूँदों ने उनके अकेलेपन को और सघन कर दिया था

    डेहरी में चावल निकालने को हाथ डालते तो अतीत के किसी छोर में उलझ के रह जाते

    मालकिन बोल पड़तीं—'हाली-हाली निकरता तनी'

    घर में वे दो ही थे

    मास्टर दयाराम और उनकी मालकिन।

    दिन भर दुआरे पे बैठे हुए मास्टर एकटक खड़ंजे को देखते रहते फिर पुराने समय के जूते पहने कहीं और चले जाते

    इसी खड़ंजे से रिटायर होकर साइकिल खड़खड़ाते वे घर में दाख़िल हुए थे

    इसी खड़ंजे से घर की सारी बेटियाँ विदा हुई थीं

    इसी खड़ंजे से लड़के कमाने के लिए निकले थे

    खड़ंजे पे सबका जाना दर्ज था,

    लौटने की स्मृतियाँ ईंटो की दरार में ग़ायब हो चली थीं

    वहाँ लौटना इतना कम था कि दर्ज़ होने से पहले ही मिट जाया करता।

    जब अषाढ़ में जीवन की तरह साड़ी को समेटे हुए औरतें रोपनी करतीं

    तब भी उनका घर जेठ की भयंकर लू में भाँय-भाँय करता

    'सइयाँ गइलें परदेस लइहें हरियर चुनरी' के बोल ओसारे तक आते-आते 'जइसे एतना बीतल-तइसे आगे बीती' की बुदबुदाहट में बदल जाते

    कभी-कभी जब फ़ोन की घंटी बजती तो उनकी झुर्रियों में उसी तरह चमक जाती जैसे अषाढ़ की रात में बिजली

    बिजली चली जाती तब वे भी बुझ जाते

    वे ज़्यादातर चुप ही रहते—थाली में सामने आए दुख को बिना चबाए घोंट जाते

    कुछ देर बर्तनों की खड़-खड़ सुनाई पड़ती और फिर सन्नाटा सब-कुछ को अपनी गोद में लेकर सुला देता

    सन्नाटा बढ़ता जाता और उसी सन्नाटे में मेढकों और झींगुरों का शोर भी बढ़ता जाता

    और मास्टर दयाराम अपने आख़िरी दुख की प्रतीक्षा में—

    'दुअरा पे दादुर बोलिहैं अँगना में झींगुर

    केहु नाइ बोली ओसरवा में'

    गुनगुनाते हुए सो जाते, हाथ अभी भी डेहरी में ही फँसा रहता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिवम चौबे
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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