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दो समलैंगिक लड़कियों के सत्रह स्वप्न

do samlaingik laDakiyon ke satrah svapn

सत्यव्रत रजक

सत्यव्रत रजक

दो समलैंगिक लड़कियों के सत्रह स्वप्न

सत्यव्रत रजक

और अधिकसत्यव्रत रजक

     

    एक

    वे बड़ी ज़ोर से चीख़ती हैं
    लीलती हुई असंख्य शोकफूलों को
    जवान शरीरों में वे खड़ी होती हैं
    जैसे अठारह कोस रेत के बाद कोई थका आराम फूटा हो
    उनकी गरदनों के नीचे घुड़के हाडों में
    नमक जम गया है
    वे अपने झुलस खा चुके गालों में चौमासी चीड़ के जंगल से
    देख रही हैं
    कि पानी तैर रहा है
    नदी सूख रही है
    सारी कैंचियाँ तैंतीस करोड़ कतरे बालों पर पड़ी हैं
    सड़कों पर लिपिस्टिकों के चौरासी लाख़ खोके पड़े हैं
    अनाज पर लार गिराती गायों ने गोबर कर दिया
    ईश्वर को क़ब्ज़ है
    और अब वे दोनों प्याज़ी रात के तामियाँ चाँद तले छातियाँ ढ़ीली करके सो रही हैं साथ

    दो

    उन्हें अपने पिता याद आते हैं
    वे उँगलियाँ चटकाने लगती हैं
    उन्हें अपनी माँएँ याद आती हैं
    वे सिंगारदान छुपाने लगती हैं
    उन्हें अपने भाई याद आते हैं
    वे तकियों में काँखें छुपाने लगती हैं

    उन्हें अपनी कामनाएँ याद आती हैं
    उनकी एड़ियाँ फूलने लगती हैं
    नितंब ठँडे पड़ते हैं
    जाँघें फड़कती हैं

    वे आँख भीच लेती हैं
    आँख खुलती हैं
    फिर उन्हें नींद नहीं आती

    तीन

    चली जा रही हैं वे
    पीछे मुड़े बग़ैर
    और पूरा काग़ज़ एक समाज की अफ़वाह में गीला हो रहा है
    उन्हें ग़ुबारों के पेड़ दिखते हैं
    बड़े घने पेड़ दिखते हैं
    पीछे मुड़े बग़ैर

    चार

    मेज़ पर ग्लोब है
    धरती उतनी घूमी है जितनी देर तक उन्होंने घुमाया

    (अंतरिक्ष में हवा
    नहीं होती)

    पाँच

    उसने चॉकलेट निकाली
    बस्ते की चैन लगाई
    और बुलाया ‘कहाँ हो सुनीति!‘

    छह

    उनकी गुलगुली हथेलियाँ काँच के गिलास में भर रही हैं पानी उनके चश्मे सूख रहे हैं 
    फ़ेसवॉश मलती हैं चेहरे पर नई रिंगटोन खोजती हैं ज़िप लगाती हैं

    उनके पास धर्म की किताब है
    और तास की गड्डी

    वे तास के पत्तों में रनिवास नहीं रजोधर्म से निवृत्त ख़ातून ढूँढ़ रही हैं

    सात

    लंबी सड़क थी
    हिंदू थे मुसलमान थे
    चुनाव का बैनर था
    आयोग के विरोध के बोर्ड
    सरकार से असहमत तख़्ती थी
    उबले अँडों की दुकान थी
    शनिचर था

    वे ज़ेब्रा क्रॉसिंग ढूँढ़ रही हैं

    आठ

    उन्हें अजवाइन की गंध पसंद है वे आलू के पराठे चख रही हैं 
    अभी बरसात में छोड़ा है घुटने पर लगा मटिया घोंघा

    नौ

    वे उस देवता को जानती थीं
    जिसके सामने उनकी माँओं ने फेंक दिया था उन्हें

    उनकी हँसोड़ पड़ोसिनें पशुपतिनाथों पर चुआती थीं जल
    लौटकर गाती थीं

    वे पहली बार केले के छिलके पर फिसली हैं
    धड़ाम!
    केला खाने वाले को वे जानती हैं

    दस

    उनके चचेरे स्कूल निकल पड़े हैं

    वे टाइयाँ कस रही हैं
    उन्हें अपना गला ढीला भी रखना है

    ग्यारह

    वे गूलर के तले
    मशग़ूल नाउम्मीदी से बैठ गई हैं
    आसमान में बगुलों की रेखा खिंची जा रही है
    बहुत दूर

    कोई हरकारा उनके घर नहीं आएगा
    वे खाँसने लगती हैं निसंग
    जैसे उनके लिए आसमान सूखा हो उठा हो

    उन्हें न मृत्यु से
    न ज़िंदा रहने का डर है

    बारह

    वे किताब खोलकर
    नेरुदा की नाक पर हँसती हैं
    फ्रॉस्ट के बालों पर
    एंजेलो की गरदन पर

    माया सभ्यता की भाषा पर
    इंडस वेली की नृत्यांगना की नीली कमर पर

    वे और ठोस होकर हँसती हैं
    जब पार्रा ठहाका लगा रहा होता है

    तेरह

    वे सड़क पार करती हैं
    ठीक उसी वक्त
    जब सूरजमुखी का फूल तेल के लिए तोड़ा जा रहा है

    चौदह

    उनके सामने एक थुलथुला दिन है
    बगल में एक सरकारी क्लर्क
    उनकी नींद में कोरियाई सिनेमा
    उनके हाथ में कुछ नहीं है और

    पंद्रह

    वार्षिकोत्सव का गोल्ड मेडल मुँहासों की क्रीम बादामी टी-शर्ट 
    स्वीट-हार्ट की इमोजी रिच डैड पुअर डैड की किताब

    सोलह

    वे बहुत भूखी हैं
    बहुत प्यासी हैं
    वे बाल नोच नहीं सकती
    नाख़ून चबा नहीं सकती
    नमक चख़ नहीं सकती

    आत्महत्या
    उन्हें चिर-परिचित लगने लगी है
    उन्हें अचानक याद आ जाती है सुनीति घोष!

    सत्रह

    सुबह की घास में पड़ी उनकी घड़ी बेफ़िक्र होकर 
    गुलमोहर-सी दमकती है पहाड़ का सूरज अमलतास लीपता है 
    कोरस गाते हैं बिलाते चमगादड़

    साइकिलों की घंटियाँ जगाती हैं उन्हें—
    ‘उठो!
    अब ईश्वर को सोने दो!’

    स्रोत :
    • रचनाकार : सत्यव्रत रजक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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