आज के नाम और
आज की पीड़ाओं के नाम
धीरे से उजाले में आते हुए धरती के हिस्से के नाम
आज जिस सृजन की ज़रूरत है
उसकी प्रतीक्षा के हर क्षण की
दवा माँगने वाली व्यथाओं के नाम
गोली लग जाने की आशंका में धड़कते दिल से उड़ने वाले
मन-मन के भीतर बसे हुए कबूतरों के नाम
ठहर गया होगा जहाँ दिन
खुल रहे होंगे नगर के बंद दरवाज़े
धो रही होगी बरसात शहर को डेक की तरह
ढँक लिया ही होगा बर्फ़ की चादर ने किसी देहात को
मोमबत्ती की मंद रोशनी में कह रहा होगा बूढ़ा फादर
‘उसने जन्म लिया और एक
तेजोमय तारा स्थिर हो गया अस्तबल पर’
उत्तर ध्रुव से रेंगती हुई आती होगी हिम-लहर
गर्म हो रहा होगा पेरिस का बाज़ार
पेंग्विन के झुंड को देखते हुए, काप्प्री में
एकाध वक्ष पर ठहर गई होगी
टैम्स धड़कन के साथ उतर रही होगी अतलान्तिक में
हैम्लेट हड़बड़ाया होगा
हिंदुस्तान की दिशा में एकाध प्रचंड काला मेघ
धीमे धीमे आ रहा होगा।
खूँटों पर सपने लटकाकर कड़ी मेहनत से काम
करने वाले यथार्थ के नाम
फौलाद को गलाकर मनचाहा आकार देने वाली
तेज़ रोशन भट्टियों के नाम
चाय बागानों में पत्तियाँ तोड़कर थकी हारी उँगलियों के नाम
भार सहते हुए मुक्त हो पाने वाली गर्भवती कविता के नाम
गर्भवती गति के नाम
दिए की टिमटिमाती रोशनी में
अपनी ही नाल को स्वयं काट दिया था जिसने
दोस्तो! उसी सदी की अब शुरू हो रही है शाम।
दस्तकें दे रहा है नया ईसवी सन दरवाज़े पर
जल्द से जल्द यह भी शुरू कर देगा अपनी समेट-लपेट
अपना घर बसाएगा इतिहास के अगले पन्ने पर
अपना हक जताएगा पिछले कर्तृत्व पर
सौ-सतरा में, सड़तीस में, सैंतालीस में
आगे बचे हुए कई अंकों में—
पढ़ाएगा मास्टर अंक लिखकर बोर्ड पर
ज़्यादा से ज़्यादा छड़ी टिकाकर
नक्शे की एकाध रेखा पर।
लेकिन क्या कोई बताएगा
इसी सदी में चाँद महँगा हुआ था?
कलकत्ते की सड़कों पर घोड़ा बनकर
मेरी आत्मा बग्घी खींच रही थी?
लेकिन इतना काफ़ी है; हमें भी बदल लेने होंगे अब धुँधलाए चश्मे
हम भी इस सदी में पैदा हुए; हमारा भी पूरा करना होगा हिसाब-किताब
कितनी बार हम इकट्ठा हुए हैं बनियों की बही खातों में
कितनी बार ज़िंदगी नाकाम हुई थी
कितनी बार गूँज उठी थी पुकार आग भड़काकर
कितने हवाई जहाज गड़गड़ाए डराते हुए
हम सिर्फ़ लिपियाँ बदलते रहे
सुविधा के अनुसार दरवाज़े बदलते रहे
उड़े हुए छप्पर ठीक करते रहे
दोस्तों, इस सदी की शाम अब शुरू हो रही है।
सहज ही उलट जाएगी पृथ्वी की नाव एटम के एक गोले से
पलक झुकते ही चले जायेंगे गहरे नल तक;
हिरोशिमा में कम-से-कम फूल तो लगे- हमें...
हमें तो शाम शुरू हो गई है।
मैं एक अलिखित अस्तित्व लिए घूम रहा हूँ
ठिठक रहा हूँ; परंपरा की तख्तियाँ पढ़कर
यहाँ अपना कोई नहीं है यह जानकर
आगे मुड़ रहा हूँ
एक दिया जलाकर दूसरे दिए की ओर
झट से मुड़ता हुआ हाथ मुझे नज़र आ रहा है
सहारा उतना ही है।
—शाम शुरू हो रही है
मेरा मुक़दमा शुरू हो रहा है।
‘ख़ुदा गवाह है’—यह शब्द भूसा भरकर रख देना चाहिए
ख़ुद को सामने रखते हुए कह रहा हूँ
संस्कृति की दुकान में लटकी बनी बनाई कमीज़ निकालकर
तुम्हारी ओर से न्याय चाहिए
नंगा होकर न्यायासन पर बैठ जाऊँ तो
चलेगा तुम्हें? मुझे अपनाओगे क्या
मैं देख रहा हूँ
अपने अस्तित्व को फूटते हुए पंखों को
फ़ौलादी रग-रग में बज रहे हैं शंख
मैं एक सत्य, पृथ्वी एक सत्य,
सबके लिए हम यह भी एक सत्य।
लाठी के सहारे चलकर आनेवाली मौत को
गेंद से गिराने-जैसे भगा रहे हैं लड़के
धर्म : गली-कूचे में घूमने वाली एक कुलंग कुतिया,
मेरा ख़ून : टपकता-टपकता फैल रहा है
दोनों ध्रुवों के बीच।
और दोस्तों!
मैं देख रहा हूँ
एक क्षुब्ध नवागत गति की नोंक पकड़ कर
लिख रहा हूँ
हटाओ इन शब्दों को, इन पुतलों को यथास्थितिवादी
चाहिए इस लिए मनचाहा नया दस्तावेज़
इसलिए नया दस्तावेज़।
- पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 22)
- संपादक : चंद्रकांत पाटील
- रचनाकार : नारायण सुर्वे
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.