अहरबल का यह झरना,
ऐसे भागे जैसे कोई बहुत भगाए,
पर्वत पर से कूद गिरे,
क्षण में सिर के बल गिरे और क्षण में मारे पैर,
धीरे से पग कैसे उठता कभी न जाना इसने,
दम लेना, बिसराम-सा करना, कभी न जाना इसने,
मेघ का वह गर्जन हो या विद्युत् की वह आग,
बेचैनी इसकी और बढ़ाते और बनाते चंचल,
ऊँचे हरे मैदानों में लाला की फुलवारी,
नीर पुष्प की चारों ओर खिलती हुई बहार।
या जब मेघ भरा यूँ आए जैसे बोझ लिए दुःख पाए,
इसकी अपनी प्रेम-ज्वाला तब लपटों में उठ आए।
कहीं है समतल, कहीं है खाई, कहीं पै तीखी ढलान होती,
परंतु उसको है जाना आगे वह बढ़ता ही आगे है उन्मत्त की भाँति।
हो रात दिन, हो तेज़ वायु, शीत हो या सूर्य का प्रचंड ताप
दम नहीं लेता कभी और लेट जाता है नहीं आराम करने के लिए।
चाँद हो, तारे हों, या हो आफ़ताब (सूर्य)
पृथ्वी पर आने वाला कोई आए इंक़लाब,
खट्टा हो या हो मधुर, सीधा या टेढ़ा हो जवाब,
इसकी बेचैनी में अंतर कोई पड़ता है नहीं,
इसके पंखों से निकलती आग है,
इसके छाले घिस गए हैं बन गए अब दाग़ से,
रंगरंग के मोतियों का बन गया हो हार-सा,
जैसे मोती रख दिया हो कंठ का तैयार-सा।
जैसे नियुक्त कर लिया हो आप सूरज ने वहाँ,
जैसे अवसर देख के ही उसको छोड़ा हो वहाँ।
मौन पर्वत सेवा में आकर खड़ा,
दूज का वह चाँद भी पर्वत के पीछे है खड़ा,
चौकड़ी भरते नहीं अब हिरन हैं भूले हुए,
इसके आगे मूक हैं सारे कमाल,
होंठ अपने सी लिए हैं आकाश ने,
जिन-फ़रिश्ते जैसे जड़वत् हो गए,
जैसे मोहित हुए प्राण निकले हुए,
जैसे जिह्वा पै उनके हों कुण्डे लगे
जैसे शुर्-शुर् करे जल, कोलाहल चले,
जिसमें आवाज़ खो जाए, दृष्टि खोए,
यूँ बैठा आरिफ़ दशा यह हुई,
कि तट पै शरीर, आत्मा बहती रही,
कि झरने की भाँति चंचल हैं प्राण,
कि दौड़े ही जाए और रोके न पाँव,
कभी मारे पत्थर पर अपना ही आप,
कभी उठ के उड़ जाए आकाश में।
फिर 'आरिफ़' ने अपना सँभाला था होश,
लिया इन्द्रियों को फिर से सँभाल,
दी आवाज़ कि सुन ले, ओ पागल,
तनिक दम ले क्षण-भर तनिक ठहर जा,
मेरे प्रश्न का तू उत्तर दे ही जा,
कि इस हद के बैचैन क्यों हो भला,
तेरा मायका पर्वत की चोटी पै है,
जो ऊँचे-से पर्वत की छत पर ही है,
जहाँ प्रातः-संध्या को ख़ुद सूर्य भी,
कि झुक झुक के करता है तुझको प्रणाम,
कि ऐसी तेरी ऊँची यह शान है,
कि आकाश तेरा ही इक दास है,
तेरा हृदय निस्सन्देह निर्लेप है,
धर्म का प्रदर्शन न सिद्धांत का
परंतु तेरा जीवन बेचैन है,
प्रतीक्षा की शक्ति न धीरज ही है,
कि देखो न मुड़के समझो हराम,
कि चलने में व्यस्त और चलना ही काम,
कि उद्देश्य इस यात्रा का है क्या?
कहीं तुमने प्रीतम को खोया है क्या?
फिर 'आरिफ़' को उसने भी उत्तर दिया,
कि जीवन है उन्मत्त और जल मूल है,
कि जो मेरा उद्गम वहीं तेरे प्राण,
कि वास्तव में जीना है एक ही समान।
कि ऊँचे को त्यागा नीचे बहा,
चला प्यासे होंठों में जाके बसा,
कि हरियालियों में जाके घुसा
कहीं शुष्क भूमि में जाके बहा।
हाँ मिलता है मुझको आख़िर करार,
जीवन है वह या मेरा मज़ार।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 183)
- रचनाकार : मिर्ज़ा आरिफ़
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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