याद करने की कोशिश करता हूँ तो याद आता है
शचींद्र आर्य 15 नवम्बर 2023
दिन : एक
10 नवंबर 2020
भाई के आरटी-पीसीआर टेस्ट के ‘पॉज़िटिव’ आने के बाद घर में हम सभी ने टेस्ट करवाए। कल हम सब बिरला मंदिर गए। वहाँ दिल्ली सरकार का कैंप लगा है। हम पाँच लोगों में से मेरा टेस्ट पॉज़िटिव आया। यह टालने वाली आदत है और जो सामने है, उसे देखने से बचना है, इस बात को अनदेखा करने के पीछे की एक वजह रही। जब पैदल हम सब लोग जा रहे थे, दिमाग़ में कुछ भी चल नहीं रहा था। सोच भी नहीं पा रहा था। आगे क्या होगा। उन पाँच मिनटों में जब पता नहीं था, क्या हो रहा है, तब फ़ोन के कैमरे से मंदिर की फ़ोटो खींच रहा हूँ। कभी इधर से, कभी उधर से। शून्य से शुरू हुआ यह सब, रिपोर्ट के आने तक चला। वह लड़की पीपीई किट पहने हुए ही बाहर आई और बताने लगी सभी रिपोर्ट नेगेटिव है, बस आप ‘पॉज़िटिव’ हैं।
अब क्या होगा? तुम्हारे कैसे यह आ गया? इन प्रश्नों के जवाब नहीं हैं। बस जो था, वह यही था।
हम सब पैदल ही वापस आ गए। लौटकर मैं थोड़ी देर छत पर बैठा रहा। उसके बाद नीचे जहाँ भाई है, वहीं आकर बैठ गया। यहाँ कमरे के बाहर सोफ़ा है। जिसकी गद्दी पता नहीं कहाँ है। मैं यहीं बैठा-बैठा सोचता रहा। आगे के दिन कैसे होने वाले हैं। घर में सब क्या सोच रहे होंगे। दोनों लड़के अब नीचे हैं। यह वाला हिस्सा कमज़ोर करेगा। इसलिए कुछ कहना या सोचना नहीं चाहता। घर में सब यही मान लें कि हम दो हफ़्ते के लिए कहीं बाहर चले गए हैं। पर अस्ल में ऐसा होता कहाँ है। बस इस बात का सुकून होगा कि पहले एक था तब ध्यान यहीं लगा रहता था, अब दो हैं तो एक-दूसरे को सँभाल लेंगे। साथ एक बड़ी चीज़ है। यही सोचना ठीक होगा।
दिन : दो
11 नवंबर 2020
कल जब मैं यहाँ नीचे आया, तब एक सोफ़ा, जो दीवार के सटाकर रखा हुआ था, उसे बंगाली स्कूल की तरफ़ कर दिया है। यह एक सीमा रेखा है। इसके इधर हम और दूसरी तरफ़ बाकी दुनिया। अभी सोना है। यहाँ फ़ोल्डिंग चारपाई है। पापा का मफ़लर लपेटकर रात सो जाता हूँ। स्वेटर पहले ही मँगवा लिया था। उसे पहन लेता हूँ।
दिन : तीन
12 नवंबर 2020
कल दुपहर तक स्वाद चला गया। यह खाना खाते वक़्त पता चला। कढ़ी खाते हुए कुछ अलग लगा हो, कह नहीं पाऊँगा। बस कढ़ी के पुराने स्वाद की स्मृति पर इस कढ़ी को खा गया। मन को लगने नहीं दिया कि यह बेस्वाद है—कढ़ी है—मेरी मनपसंद। ऐसा कैसे हो जाने देता। रात रही-सही कसर रोटी और सोयाबीन आलू की सब्ज़ी ने पूरी कर दी। सोयाबीन हमारे यहाँ जब तुम होती हो तभी बनता है अक्सर। तो इसका कोई स्वाद तो मेरे पास था नहीं। जितना दो-चार छह बार का याद आता रहा, उससे काम नहीं चल पाया। तब भाई और मैंने एक साथ कहा—खा लेते हैं, कोई स्वाद तो होगा ही इसमें।
अभी सैनिटाइज़ को हाथ पर मलकर देखा और उसे सूँघने की कोशिश की। कल जो चीज़ों को बहुत पास लाने पर थोड़ी-थोड़ी गंध महसूस हो रही थी, वह अब बिल्कुल जा चुकी है। कल रात इवेपोराइज़र में मेन्थॉल कैप्सूल डालने के बाद उसकी गंध कम थी। तब सोचा कि एक घंटा हो गया कैप्सूल पानी में डाले। हो सकता है, इतनी देर में वह अपने आप उड़ गया हो। पर अभी थोड़ी देर पहले यह तय हो गया—कुछ दिन अब सूँघने को भी नहीं मिलेगा।
मेरे मन में छुट्टियाँ नहीं थीं, ऐसा नहीं है। वे हर हफ़्ते दो दिन की फ़ुर्सत के साथ आ रही थीं। जैसे मशीन हो जाती है, जितना सुना, उतना किया अपना दिमाग़ नहीं लगाया। ऐसे में हम ख़ुद को ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ से पहले वाली मशीनों में तब्दील कर लेते हैं। भारत जैसे समाजों में ख़ुद से सोचने वाली मशीनों की संभावना ही कहाँ है। इस तरह आराम करने की कौन सोचता है। सारा दिन दीवारों के बीच रहो। मन किया तो बाहर छोटे से गलियारे में टहल लिए और वापस इस खोह में लौट आए। बाहर चारपाई पर दुपहर के खाने के बाद लेटा रहता हूँ, पर मन कमरे में आने के लिए बेतरह होता रहता है।
वैसे इस बीमारी में जो सब लोग अपने घरों में हैं, उसके पीछे परिवार की बनी हुई व्यवस्था न हो, तो काम चल ही न पाए। सब कुछ कितना सलीक़े से लगता है। हम तो यहाँ हैं, सिर्फ़ क़यास और अंदाज़ लगाने से उस तैयारी को देख भी नहीं पाते। एक वक़्त तो ऐसा आता है, जब लगने लगता है, क्या यहाँ बैठकर सिर्फ़ किसी की तीमारदारी का फ़ायदा उठाते जाएँ। उसकी मेहनत, उलझन और झुँझलाहट ज़रा भी दिख नहीं पाती। जो हमें उत्पाद की तरह दिख रहा है, उसमें प्रक्रिया का लोप इसी तरह समझ पाया हूँ।
दिन : चार
13 नवंबर 2020
भाई शनिवार रात और मैं मंगलवार दुपहर से जिस जगह हूँ, यह वही मंजिल है, जहाँ हम तीन साल पहले तक रहते थे। जहाँ अभी बैठा लिख रहा हूँ, यह हमारे घर के बिल्कुल बग़ल का कमरा है। कई सालों तक उस एक कमरे वाले घर में बने रहे। अब जबकि तीन साल बाद इसी मंज़िल पर आए हैं, तब इसकी किसी चीज़ से कोई अपनापन झलक नहीं रहा है। जगह उसी शक्ल में रहती तभी तो अपनी लगती। पर न दीवारें वैसी हैं, न दरवाज़े। समान जो दूसरों की शक्ल में कबाड़ था, इस जगह को बनाता था। दूसरों के लिए बेकार, किसी काम का न होना, हमारे आस-पास बिखरा हुआ था। लोहे के रैक, लकड़ी की दीमक से बच गई अलमारियाँ, बारिश-गर्द-ज़ंग से बच जाने वाला एल्म्युनियम का शीशे सहित दरवाज़ा। नैतिक शिक्षा संस्थान की चारपाइयाँ, छोटी लोहे की अलमीरा।
यह सारा सामान, टीन के नीचे उस छोटी-सी कुर्सी पर बैठे हुए मुझे दरवाज़े के बाहर दिखाई देता था। वहाँ बैठकर यही सोचता रहता, कभी तो यह सारा समान यहाँ से हट जाएगा। तब खुली जगह होगी। कुछ देर चारपाई डालकर उस पर लेट जाऊँगा। लेटे-लेटे आसमान का नीलापन कुछ मेरी आँखों में भी आ जाएगा।
दिन बीतते गए। ऐसा कोई दिन नहीं आया। उल्टे हमें कमरा छोड़ने के लिए कहा गया। कहा गया—जाकर ऊपर रहिए। हम तीस साल जिस एक छत और आधी टीन वाले घर से निकले और ऊपर की मंज़िल के कमरे में आ गए।
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बहुत दिनों से कुछ बातें डायरी में लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। सब उसी भागदौड़ में हो ही नहीं पाया मुझसे। कभी कहीं पहुँचने की जल्दबाज़ी रहती, कभी कहीं पहुँचने की हड़बड़ी। अपने लिए वक़्त निकाल कर बैठता तो सिर्फ़ सोचता। क्या सोचता। यही कि यह वक़्त जो बीत रहा है, बीत जाए। कभी फ़ुर्सत होगी, तब लिखूँगा। उसके बाद जैसा कि होता है वक़्त, फ़ुर्सत, सुकून कुछ मेरे हिस्से आ ही नहीं पाया। जो थोड़ा बहुत वक़्त मिलता भी उसे सीआईईटी से आए हिंदी के ‘वीडियो रिव्यू’ करने में ख़र्च कर देता।
ऐसा वक़्त इस तरह मिलेगा, यह चाहा नहीं था। कौन ऐसा समय चाहेगा। बहरहाल। पता नहीं इस बात को कितनी बार अपने मन में दुहरा चुका हूँ। नाना-नानी कभी दिल्ली नहीं आए। न आने में उनकी इच्छा रही होगी, यह कहीं प्रकट नहीं हो पाया है। वह चाहते थे और नहीं आ पाए या नहीं चाहते थे और नहीं आए। इन दोनों ही बातों को कभी घर पर पूछा नहीं। क्या होगा पूछकर। क्या पता इस सवाल को कभी सवाल की शक्ल में पूछा ही न गया हो? नाना-नानी ने कभी इस विषय पर बात ही न की हो। तब क्या होगा। एक शून्य से अच्छा है, कल्पना के किसी धागे को पकड़कर कहीं चल पड़ा जाए। कोई सूत्र या बिंदु उठाकर कुछ कहा जाए। एक कविता जैसी पंक्तियाँ मन में उमड़ घुमड़ रही थी—‘सड़कें तब भी बन नहीं पाई थीं, तब भी सड़क दिल्ली तक ज़रूर आती रही होगी।’ मैंने इन्हें लिखकर काट दिया।
जो घटित हुआ है, जो घटित नहीं हुआ है, उसके बीच कुछ अवकाश तो मेरी कल्पना भी चाहती है। कहीं किसी मुँडेर से होते हुए कुछ तो अपना बुन पाऊँ। जैसे कितने दिनों से मेरे मन में एक दृश्य बार-बार कौंध रहा है। शायद कौंधना भी वह शब्द न हो, जिसे अपने अंदर महसूस कर रहा हूँ। वह कुछ ऐसा भाव है, जहाँ एक धूल भरी ज़मीन पर पंजों की छाप दिखाई दे रही है। इस छाप में पंजों को ध्यान से देखने पर दिखता है, उस पर वज़न पड़ा है। बाहरी वज़न नहीं। ख़ास तरह से चलने का एक ढंग। क्योंकि तलवे के बीच का हिस्सा हर छाप में बहुत कम है और एड़ियाँ तो ऐसे आई हैं, मानो वह धूल को छू भर पाई हों और अगला क़दम रख दिया हो।
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साढ़े छह बजे बहन ने ऊपर से वीडियो कॉल किया। मम्मी-पापा तुम सब बारी-बारी से आए। आज छोटी दीवाली है। थोड़ी देर पहले अभी तुम आई थीं और यहाँ मुँडेर पर दीपक और मोमबत्ती रख गई हो। कल हम इस दरवाज़े पर भी दीप जलाएँगे। फ़ोन पर पूछा तो पता चला कि अभी तक कोई लड़ी निकाली नहीं है। पापा बोले—कल लगाएँगे।
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स्मृतियों में जाना बेतरह विकल कर जाता है। कल से ही न जाने कितनी सारी बातें याद आ रही हैं। ऐसा नहीं है, वह बीत गए दिन भूल जाता है कोई। कभी-कभार सब ऊपर-नीचे होकर सामने आती रहती हैं। उन्हें भी नहीं पता कौन-सा दृश्य मुझे दिख जाएगा। वह बस ऐसी ही हैं। मेरी इस भाषा की तरह। गद्य की भाषा की तरह। कितने दिन बाद भी लिखना शुरू करूँ, उसका एक ढंग या ढाँचा है जो वापस आता रहा है। कुछ कर भी नहीं सकता इसमें।
यह नवंबर तब ज़्यादा खुशनुमा था, जब यह स्मृति में रहकर अपने वर्तमान में बीत रहा था। कल ये दिन नहीं रहेंगे, इतना सोच भी लेते तब भी उस समय से कट नहीं सकते थे। उसका ताप अपनी तरफ़ खींच ही लेता। जैसे कोई दोपहर होती और घर का सामान पंखे के बिल्कुल नीचे इकट्ठा दिखाई देता। दीवार पर नाम के लिए ही सही, पीले रंग का चूना मिली सफ़ेदी हर साल इसी तरह आती। यह दिन चूने की महक लिए होता। अभी सफ़ेदी सूखी नहीं है। हम स्कूल से लौटे हैं। अभी बस्ते किसी कोने में छोड़ आए हैं और दीवार पर कहीं-कहीं हाथ लगाकर देख रहे हैं। नमी बची हुई है। यह भी रात भर में सूख जानी चाहिए।
वार्षिकोत्सव जब हो जाता था, तब गुरुकुल दाधिया का जलसा होता था। दाधिया, अलवर में एक जगह है। पता नहीं कितने साल हो गए हम वहाँ नहीं गए। एक दौर था, जब हर साल बग़ल वाले स्कूल की मेटाडोर हम सभी लोगों को इतवार की सुबह दाधिया गुरुकुल ले जाती थी। कभी ऐसा भी हुआ कि हम एक दिन पहले भी वहाँ पहुँच जाते थे। रात वहीं रुकते थे। उन दिनों की तो धुँधली-सी छवियाँ ही दिखाई दे रही हैं। बस जो दृश्य नज़र आ रहे हैं, उनमें एक तरणताल है। जिसके चारों कोनों में यज्ञ वेदी बनी हुई है और पूर्णाहुति होने वाली है।
एक मेला-सा लगा हुआ है। शहर की स्त्रियाँ तब तक शहर में रोपी नहीं जा सकी हैं, इसलिए बथुए और सरसों के साग की तलाश में गाँव वालों के खेतों की तरफ़ मुड़ चुकी हैं। गाँव वाले उन्हें कुछ कहते नहीं हैं, बल्कि हम भी ऐसा कितनी बार हुआ उनके कहने पर चारपाई पर बैठे और ताज़ा मट्ठा पीकर वापस कार्यक्रम में लौट आए।
इतने सालों बाद लगता है जैसे अभी तो हम वहीं थे, उस समय से इस कमरे में कैसे लौट आए। ये यादें दिमाग़ कभी-कभी सुन्न कर देती हैं। जैसे अभी हो गया है। किसी तार को छेड़ कर कोई कैसे पीछे हट सकता है। जो भाव नहीं भी लिख पाया या उस तरह न भी कह पाया हूँ, वे सारे पल एक साथ इकट्ठा होकर दिल में दिमाग़ में चक्कर लगाने लगे हैं। आप एक बार इस प्रक्रिया को शुरू तो कर सकते हैं, पर यह ख़त्म कब होगा, कोई नहीं जानता।
ये बातें अगर अपने बचपन के साथियों या माता-पिता से कहूँगा, तब वे इन पंक्तियों को सिर्फ़ पंक्तियों की तरह पढ़ेंगे या सुनेंगे नहीं। उनके अपने अनुभव और संवेदनाएँ उनके साथ जुड़ती जाएँगी। हो सकता है, जिसका आपकी दृष्टि में कोई मूल्य न हो पर जिसने वह वक़्त जिया है, जो उसका साक्षी रहा है, जिसके अनुभव में वे दिन आए हैं, उसके लिए यह बात बहुत भावुक कर जाने वाली गली की तरह खुलता हुआ रास्ता हो सकती है।
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दिन : पाँच
14 नवंबर 2020
अगर यह तब का समय होता और हमें यह कमरा मिल चुका होता। तब यहीं कमरे से बाहर निकलते ही तो वह टीन थी, जिसके सहारे रंग-बिरंगी लड़ियाँ लगा देता था। दीवाली यहीं होती थी हमारी। जितने भी साल यहाँ थे, यही हमारा कोना था। सबको हमारी उपस्थिति ही रच रही थी। कहाँ क्या रखना है, क्या नहीं रखना है, सब हमने तय किया। जगह में सजीवता उस जगह रहने वाले लोग लाते हैं। सतह पर यह जितना एकतरफ़ा लग रहा है, उतना है नहीं। हमें भी यहाँ रहने की स्वतंत्रता में यह अंतर्निहित था। एक दिन आया, जब कह दिया गया, घर ख़ाली करना है। हम मना नहीं कर सकते थे। वह जगह छोड़कर एक मंज़िल ऊपर चले गए। ऊपर जाने का मतलब था, उस जगह के लिए ख़ुद को हटा लेना। ऐसे में कुछ तस्वीरों को ले पाया, जिसमें एक तो बहुत ही ख़राब है। उसमें हमारी अलमारी जो हमारी थी, उसमें ईंट भरकर ख़त्म कर दिया। नहीं भी किया हो तब भी पता नहीं क्यों मुझे यही लगता है। ऐसा करना मेरे लिए कल्पना के अवकाश को नष्ट कर देना है। मज़दूर के लिए यह किसी आदेश का पालन है।
दिन : छह
15 नवंबर 2020
किसी भी दिन की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि वह कभी लौटकर नहीं आता। अच्छा हो तब भी, बुरा हो तब भी। हर दिन अपने आपमें एक नया दिन है। उसका बासीपन हमारे मन में है और उसका कल से बिल्कुल अलहदा हो जाना भी हमारे मन पर निर्भर करता है। स्मृतियाँ यहाँ हमारे काम आती हैं या वह हमारा काम बिगाड़ देती हैं, यह तय कर पाना एक दिन का हिसाब-किताब नहीं है। बहुत मुश्किल है इसे समझ पाना।
यह तस्वीर जो ऊपर दिख रही है, मन मेरा इसी पर अटका हुआ है। किसी बारिश के दिन की है। साल याद नहीं आ रहा। फ़ोटो की ‘प्रॉपर्टी’ में जाकर देखा तो तारीख़ 22 अक्टूबर 2017 बता रहा है। जबकि मई में हम ऊपर शिफ़्ट हो चुके थे और सामने दिख रहा स्थापत्य और उसका अवकाश अब कहीं नहीं था।
आज भी बारिश हुई है।
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विजय वर्मा ‘मिर्ज़ापुर’ के दूसरे सीजन में पहली बार दिखे हैं। पहले भी कहीं छुटपुट देखा होगा, पर अभी याद नहीं आ रहा कहाँ। साल भर या उससे भी पहले का ‘नेटफ्लिक्स’ एक विज्ञापन है। सबकी जेब में ‘नेटफ्लिक्स’। पैक की क़ीमत से ज़्यादा उसका प्रेजेंटेशन याद रह जाता है। ‘पप्पू पाकिट मार’ जब लोगों की जेब तराशता है, तब उसे बटुए की जगह बहुत अलग-अलग सामान उनकी जेब में मिलता है। चूँकि वह बटुआ या पैसा नहीं है और आकार में बहुत बड़ा है, इसलिए उसकी पिटाई भी होती है और वह अंततः चोरी छोड़ देता है।
इस विज्ञापन को अपनी यादगारी के लिखना ज़रूरी है। बाद में देखेंगे, इसका क्या किया जा सकता है।
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अब तीन दिन से यह रोज़ सुबह का रूटीन हो गया है। सुबह नाश्ते के वक़्त हम एक फ़िल्म लगाएँगे और उसे देखेंगे। आज NH-10 फ़िल्म की बारी थी। बिना कोई रेटिंग, बिना किसी रिव्यू को पढ़े हम फ़िल्म देखते हैं। हॉलीवुड की फ़िल्में कुछ जम नहीं रही हैं। ‘हंगर गेम’ लगाई थी। पाँच मिनट के बाद बंद कर दी। कल दीवाली पर शाम को सात से आठ बजे ‘जामतारा’ : सबका नंबर आएगा (वेब सीरीज़) देखने बैठे। एक घंटे बाद बंद कर दिया। आज सुबह हर्षद मेहता की ‘स्कैम 1992’ लगाई। दस-पंद्रह मिनट देखने की कोशिश की और फिर बंद कर दी। मुझे यह जानना था की एसबीआई में शरद बेल्लारी कौन था? क्या यह कोई ‘विसल ब्लोअर’ था या ऐसे ही कोई ‘फ़िक्शनल कैरेक्टर’ है? इंटरनेट भी कुछ ज़्यादा बता नहीं पाया। हो सकता है, पहचान का कोई मसला हो। पता नहीं।
दिन : सात
16 नवंबर 2020
आज का दिन देर से शुरू हुआ। बेकार-सा दिन रहा। बोगस भी कह सकते हैं। आज काढ़ा सुबह नाश्ते से पहले नहीं पिया। मन थोड़ा आज अलग ही स्तर पर था। पेट सही नहीं लग रहा है। उसी के चलते दोनों ने दुपहर का भोजन भी नहीं किया। अंदर से ही इच्छा नहीं हुई। साढ़े बारह बजे दवाई खाई और साढ़े तीन बजे लेट गया। भाई पहले ही सोने के लिए तत्पर था। वह सो रहा था। काढ़ा सिर्फ़ एक बार पिया। शाम को लगभग छह बजे।
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इधर दिन में कई सारी आवाज़ों में कई सारे किरदारों को देख रहा हूँ जैसे। जैसे लगा राजकुमार लखनऊ से आ गया है और सुबह उसकी आवाज़ नीचे से आ रही है। इसी तरह दुपहर में सुमेर अंकल की आवाज़ कान में आती हुई लगी। थोड़ी देर बाद तो मेरा दिमाग़ पापा और उनकी बातों को सुन भी रहा था। लगा वह बिल्कुल इस छत के ऊपर घर के बाहर पर्दे के पास खड़े हैं और पापा से बात कर रहे हैं। पर ऐसा कुछ असल में नहीं हुआ। हाँ, इस सबमें उस अकेली रह गई बिल्ली की आवाज़ दिन में कई बार सुनाई देती है, जिसकी माँ और बहन न जाने अब लौट आए हैं या नहीं। उसकी म्याऊँ में पता नहीं क्यों यही लगता है, वह मर्मांतक है। वह अपने परिवार के गुम हो गए सदस्यों को इस तरह शायद एक दिन अपने पास बुलाने में कामयाब हो जाए। पता नहीं ऐसा हो पाएगा या नहीं।
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संदीप का सुबह साढ़े सात बजे फ़ोन आया। ‘जांगलिख’ शिमला से 130 किलोमीटर दूर एक गाँव है। वह और मनीष वहीं हैं। उन्हें आज एक झील तक ट्रैक करना था। अच्छा हुआ ‘स्नो फॉल’ हो गया। कहीं रास्ते में होते तो समस्या हो जाती। रात साढ़े दस तक मौसम में बर्फ़ नहीं थी। स्थानीय लोग कह रहे थे, मौसम ख़राब है। मौसम ख़राब का यह अर्थ हम मैदान वालों के लिए ठंड का बढ़ना है। आसमान से बर्फ़ का गिरना नहीं। संदीप ने भी यही अर्थ लिया और जब सुबह उठा तो चारों तरफ़ डेढ़-डेढ़ फ़ुट तक बर्फ़ फैली हुई थी। जब वीडियो कॉल की तब भी धीरे-धीरे बर्फ़बारी हो रही थी। उनके साथ समस्या अब यह है कि अपनी मोटर साइकिल से आए हैं, उसे पीछे छोड़कर नहीं जा सकते। गाँव वाले कह रहे हैं निकलवा देंगे। पर कब निकाल पाते हैं, देखने वाली बात यह है।
दिन : आठ-नौ-दस-ग्यारह
17-18-19-20 नवंबर 2020
बीच के यह तीन दिन कहीं लिखे हुए नहीं है। ये ऐसे दिन हैं, जब एक भी बार अंदर से इच्छा नहीं हुई। सत्रह और अठारह ऐसी तारीख़ें हैं, जब शरीर इस क़दर टूटा हुआ लगता रहा कि लेटने के बहुत देर बाद पीठ को कुछ आराम मिलता। जिन जानकारों को यह अनुभव पहले हुआ है, उनके अनुसार यह स्वाभाविक है। फेफड़ों के पीछे पीठ की तरफ़ ऐसा होना स्वाभाविक है। यह लगता बुख़ार जैसा है, पर पूरी तरह वैसा है नहीं। कभी-कभी तो इस कमरे से भी इतनी ऊब लगने लगती कि बाहर बरामदे पर बिछी हुई चारपाई पर जाकर बैठ जाता। फ़ोन पर बात करते हुए लगा कि बहुत देर बैठ लिए अब लेट जाओ कुछ देर। चलने के दरमियान लगता जैसे कबसे तो चल रहे थे। अब आराम नहीं करना क्या? भूख की तो पूछो मत। भूख एकदम ग़ायब। पेट एकदम भरा हुआ लगता।
यहाँ एक और बार मुझे लगती है कि जब शरीर एकदम टूट-सा रहा हो। पीठ के ऊपरी हिस्से में दर्द असहनीय होने लगे, तब भाप लेना बहुत कारगर होता है। यह मेरा आज़माया हुआ है। पीठ को इससे बहुत राहत महसूस होती है। दर्द करती पीठ के साथ लेटने पर लगभग आधा घंटा तो उस दर्द को जज़्ब होने में लगते हैं। उसके बाद आप किसी करवट लेटने में आराम महसूस करेंगे। जबकि भाप या ‘स्टीम’ लेने पर यह तुरंत राहत लेकर आता है।
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इस सबमें एक दिन ऐसा भी आया जब सीआईईटी से उत्तर प्रदेश के पाँच वीडियो रिव्यू करने के लिए कहा गया। उनका काम आता है तो मना नहीं करता। सत्रह की रात ‘मेफ़टाल फ़ोर्टी’ खाकर पौने बारह बजे तक दो वीडियो तो देख लिए। रात आराम मिला नहीं। अठारह की सुबह बहुत तंग करने वाली निकली। शरीर एकदम से बैठ गया हो जैसे। तब भी नहाया और दवाई खाई। दोपहर का खाना मना कर दिया। कह दिया सलाद और फलाहार करेंगे। भूख मन पर निर्भर है और मन शरीर के अनुसार प्रतिक्रिया करता है। तीनों को एक साथ सामंजस्य में आना होगा। ढर्रे पर अब यह आ रहा है। सुगंध भी कल भाप लेते हुए नाक में थोड़ी-सी महसूस हुई। जो ‘मेन्थॉल’ नाक में शुरुआती दिनों में चढ़ जाता था, उसकी गंध अब बहुत धीमे-धीमे नाक को महसूस होने लगी है।
एक मैडम से बात हुई तो बोली—धूप लीजिए। इतने सारे दिनों में सिर्फ़ धूप को खिलते हुए और शाम को सूरज ढाल जाने के बाद अँधेरा उतरते हुए देखा है। उस तक जा नहीं पाया हूँ। शाम को अँधेरा जल्दी होता है या नहीं यहाँ इसका अनुमान भी नहीं लगा पा रहा। बस साढ़े पाँच बजे लगता है, अँधेरा हो गया। अब बाहर की ट्यूब जलाने का वक़्त हो गया। एक बटन से दोनों एक साथ जलती हैं, इसलिए जब तक अँधेरा घुप्प नहीं हो जाता जलता नहीं हूँ।
अभी टाइप करते हुए अपने हाथ की त्वचा को ध्यान से देख रहा था। बहुत साफ़ लग रही है। मैल का तो जैसे कोई कण भी छू नहीं पाया है यहाँ। जबकि यहाँ आकर हाथ कम धो रहा हूँ। एक दो दिन तो नहाया भी नहीं है।
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एक दिन तो ऐसा भी आया जब गलियारे में हम दोनों भाई खड़े थे और अपने घर का पुराना दरवाज़ा ढूँढ़ रहे थे। अनुमान लगा रहे थे कि यह जो खंबा आ गया है, उसके थोड़ा उधर ही रहा होगा। यहाँ मेज़ थी। जिस पर बैठे-बैठे बाहर देखा करता था। यहाँ टीन थी। यहाँ इस कमरे की बड़ी खिड़की थी। सब आँखों के सामने घूमता हुआ दिखाई दिया ही नहीं। तब जाकर मुझे मोबाइल में अपनी खींची इस जगह की कुछ तस्वीरें देखीं और मिलान किया।
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कभी-कभी मन करता है, स्मृतियों को लिखते जाओ। पर दीवार के सहारे तकिया लगाकर बैठे रहने की भी एक सीमा है। गर्दन और पीठ दुखने लगे हैं। अब दवाई खाऊँगा और लेट जाऊँगा। जितना सोचा था, गाने सुनते हुए नींद आ जाती है, ऐसा यहाँ की रातों में तो बिल्कुल भी नहीं है। सोने के लिए बाक़ायदा मोबाइल स्क्रीन से आँखें हटानी पड़ती हैं। उसे दाईं ओर रखी सोफ़ानुमा कुर्सी पर रखना पड़ता है। बहुत देर तक एक करवट लेकर सोने का अभिनय करना पड़ता है और इस नाटक में एक पल ऐसा भी आता है कि नींद आ भी जाती है।
दिन : बारह
21 नवंबर 2020
कभी-कभी तो लगता है, खिड़की की ज़रूरत जितनी अंदरवालों को नहीं है, उससे ज़्यादा बाहरवालों को है। यह बात जयपुर के ‘हवा महल’ को देखकर मेरे मन में आई हो ऐसा नहीं है। बहुत दिन हुए यह बात मेरे भीतर घुमड़ रही है। वरना जितने लोग हवा महल की सीढ़ियों को चढ़कर अंदर से उन झरोखों से झाँककर बाहर की दुनिया तो क्या ही देख पाए होंगे। अक्सर सब इन झरोखों को बाहर से ही देखकर तृप्त हो जाते हैं। इतना ही होता तो ख़ैर थी। तस्वीरें भी जो खींचते हैं, वह आज तक बाहर से खींचते आ रहे हैं।
अगर यह खिड़की वाली प्रमेय अपने या किसी भी घर की खिड़की पर लगा देता हूँ, तब इसके कुछ और अर्थ खुलते हुए लगने लगते हैं। घर हमारा है। खिड़की हमारी है। यह जितनी हमारे लिए सुलभ है, उसी अनुपात में यह बाहर वाले के लिए भी उपलब्ध है। वह उसे बाहर से एक ख़ास कोण से देखता होगा और कल्पना करता होगा। हम भी सड़क पर चलते हुए कहीं आते-जाते इस बाहरी व्यक्ति के रूप में ही होते हैं। हम हर घर की खिड़की को अंदर जाकर नहीं देख सकते। सारी खिड़कियाँ हमारे लिए हवा महल की तरह रह जाती हैं। मन करता है, पर जाते नहीं हैं।
चले भी गए तब क्या उस दस्तक के बाद बाहर निकल कर हमें घूरती हुई आँखें उसकी खिड़की को देखने की अनुमति देंगी? ख़याल रूमानी है, पर असलियत में न कोई दरवाज़ा खुलेगा, न हममें इतनी हिम्मत ही है कि किसी के भी घर जाकर उसकी खिड़कियों की तारीफ़ के पुल बाँध पाएँ। समय इफ़रात में है, यह झूठ अपने पास रखिए। किसी के पास वक़्त नहीं है—इस ऊलजलूल हरकत करने के लिए। करना हो तो सामने में करके देख लीजिए।
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यहाँ इन बारह दिनों में मैंने अपनी उस पुरानी खिड़की को बहुत याद किया है, जिससे थोड़ा ही सही आसमान दिख जाता था। किसी पंछी को भी नहीं देखा इतने दिन हुए। गरम पानी से शायद इसलिए नहा रहा हूँ कि सूरज की तपिश को मेरी त्वचा कहीं भूल न जाए। रोज़ उसी आम के पेड़ और बंगाली स्कूल की तरफ़ झाँकता गलियारा किसी काम नहीं आता। इतने दिनों में गाड़ियों की बेतरह आवाज़ें ही सुनी हैं। उन्हें देखा नहीं है। बस बैठे हुए सोचता हूँ जो सब सहज और स्वाभाविक लगता रहा, उसमें यह बंधन किस तरह अपना स्थान बना ले गया है। ख़ुद ही एक खुली जेल में रहने का यह अनुभव पता नहीं भविष्य को किस तरह देखने लायक़ नज़र और शऊर दे जाएगा।
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कमरे के बाहर निकलते ही जो ख़ाली जगह है, जहाँ चारपाई और सोफ़ा पड़ा हुआ है, उसे ‘गलियारा’ ही कह रहा हूँ। कहने वाले इसे देखने पर ‘आँगन’ भी कह सकते हैं, पर यह मुझे ‘लॉबी’ ही ज़्यादा लगती है। जितना टहलना है, जैसा टहलना है, सब इसी में सिमटा हुआ है। भाई तो मास्क लगाकर कर बालकनी से नीचे झाँक भी लेता है। मुझसे ऐसा कभी नहीं हुआ है। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि नीचे देख भी सकता हूँ। बैठे-बैठे पैर एकदम जकड़ जाते हैं कभी तो। आप दिन भर में कितना डेटा ख़र्च कर सकते हैं यूट्यूब पर। एक पल के बाद आपको लगता है, अब बस। जितना हँसना था हँस चुके। जितनी हॉलीवुड की आने वाली फ़िल्में हैं—उनके ट्रेलर देख लिए। किसी सरकार की आलोचना वाले वीडियो कोई कितना देखे। समय इस तरह हास्यास्पद है, यह प्रहसन से विद्रूप में बदल गया है। मन उचट जाता है। लेट जाओ। लेटे-लेटे गाने सुनने का तो मन बिल्कुल भी नहीं कर रहा इधर।
कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि यहाँ से निकलकर कुछ तो छत पर कुर्सी लेकर बैठना है। कुछ किताबों के साथ रहना है। इसके अलावा अभी मन में कुछ ज़्यादा सूझ नहीं रहा। घूमने जाना है, यह एक ‘ओवररेटेड’ टर्म है। सब तो घूम ही रहे हैं। हम भी कानपुर से लेकर कोंच तक हो आए। दिल्ली भी कम नहीं नापी इधर।
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आज दो फ़िल्मों को ठिकाने लगाया। ‘चिंटू का बर्थडे’ (2020) और ‘माइंडहंटर्स’ (2004)। एक सुबह नाश्ते के साथ। एक दुपहर के खाने के बाद। पहली फ़िल्म तो ठीक रही। ‘कोयली के बचवा टिकुलिया रे दुगो जामुन गिराओ’ वाला गीत ‘इप्टा’ बिहार के एक द्वारा गाए जाने वाले एक लोकगीत से प्रेरित है। दूसरी अमेरिकी एफ़बीआई की ट्रेनिंग की पृष्ठभूमि के साथ बहुत हिंसक दिखाई भी देती है। इसमें जैसा ‘थ्रिल’ है, यह नहीं भी देखा जाता तो कुछ रह नहीं जाता देखने से।
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घर में सब इंतज़ार कर रहे हैं। हम भी उतना ही कर रहे हैं। किसी की अनुपस्थिति कैसे रच रही होगी। अब तक कोई कल्पना का अवकाश ऐसा नहीं मिला, जब मुझे लगे यह करके देखूँ। बरामदे की ‘ट्यूब’ ख़राब हो गई है। यह पता चला तो बस अँधेरे की कल्पना कर रहा हूँ। सूरज जैसे ही ढला सब अँधेरे में छिप गया। कुछ भी तो सामने नहीं है। सब है तो कहीं ऊपर की मंजिल पर। जहाँ से कोई आवाज़ नीचे नहीं आती।
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अभी कुछ देर पहले जब तुमसे बात करके हटा ही था और भाप लेने वाला था, तब भाई और मैंने आज ठंड थोड़ी बढ़ गई है, इस बात पर अपनी सहमति दर्ज करवा दी है। सारा दिन आज रह-रहकर पालथी मारकर बैठता और लगता कहीं बुख़ार की वजह से तो ठंड नहीं लग रही है। अब जाकर पता चला जो ठंड मुझे लग रही है, वही भाई को भी परेशान कर रही है। इस बात के बाद पापा का मफ़लर जो चारपाई पर पिछले शनिवार से तकिए पर अकेला पड़ा था, उसे गले में लपेटकर थोड़ी देर टहला और अब अपने सिरहाने रख लिया है।
दिन : तेरह
22 नवंबर 2020
आज का दिन नौ बजकर पचास मिनट पर मोबाइल की घंटी बजने के साथ शुरू हुआ। मुझे लगा भाई का फ़ोन होगा जबकि यह पहली बार हुआ है जो धुन लगातार बज रही थी, वह मेरे फ़ोन की लगी ही नहीं। थोड़ी देर बाद एहसास हुआ तब तक फ़ोन कट चुका था। फ़ोन तुम्हारा ही था। अभी तक जागे नहीं। ख़ूब मन लग रहा है सोने में। पता ही नहीं चलता कि इतना उजाला बाहर हो गया है। मन और आँखें बाहर जलती ट्यूब की रौशनी जैसा ही देखती रहती हैं। उनमें ज़रा भी रद्दोबदल इतने दिनों में नहीं हुआ है।
कहीं जाना थोड़े है जो जल्दी उठने की हाय-तौबा मचाएँगे। लेटे हैं तो लेटे हैं। आराम से आराम कर रहे हैं।
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नाश्ते के वक़्त काबुली चना खा रहे थे और नवाज़ुद्दीन की फ़िल्म देख रहे थे। फिल्म का नाम है—‘अनवर की अजब दास्तान’ (2014/2020)। ‘इरोज़’ ने दुबारा ओटीटी पर रिलीज़ की है। वह एक जासूस है। अँग्रेज़ी में नाम भी रखा है—‘स्निफ़र’। फ़िल्म बाँधती, पर चालीस मिनट के बाद लगा अब बंद कर दो। यह एक ‘टर्न’ आ जाने के बाद लिया गया फ़ैसला था। वह एक अनजान जगह पेशाब का बहाना बनाकर टेम्पो से उतर जाता है और उसके सामने अतीत के पन्ने बस खुलने ही वाले हैं कि हमने फ़िल्म यह कहकर बंद कर दी कि बहुत टाइम ले रही है।
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आज ठंड कल के मुक़ाबले कमरे में कुछ ज़्यादा ही मंडराती लगी। रज़ाई से बाहर निकलने पर लगता जैसे बर्फ़ हो गए हाथ पैर। हो सकता है इसमें कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर अपनी बात कह रहा हूँ और यह कमरा ही बाहर के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा ठंडा रहता हो पर दिन भर यही लगता रहा। इसी लगने और न लगने के बीच दुपहर के खाने के बाद धनुष की फिल्म ‘3’ (2012) लगा दी। नाम गिनती पर क्यों है, यह समझ नहीं आया।
फ़िल्म भी इतनी बड़ी क्यों है, यह भी एक सवाल है। आईएमबीडी पर इस तमिल फ़िल्म की रेटिंग 7.2 दिखाई जा रही है। फ़िल्म कहाँ ख़त्म होती है? एक संदेश पर। पूरी फ़िल्म उसके विपरीत काम करती रही और आख़िर में कह दिया, मनोचिकित्सक से ऐसे रोगों का समुचित इलाज संभव है। तुम ख़ुद बनाते तो हम जानते। यह बोलकर निकल जाने वाले बहुत हैं। इससे पहले ‘असुरन’ (2019) देख रहे थे। वह इंग्लिश सबटाइटल के साथ थी। मज़ा नहीं आया। बंद करके इस तक पहुँचे थे, जिसका गाना ‘कोलावरी-डी’ यूट्यूब पर सुना पहला गाना था। इसकी रिकॉर्डिंग का वीडियो था। तब हमारे यहाँ इंटरनेट लगा-लगा ही था।
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आज या कल… शायद आज सुबह की ही बात है : मैंने बालकनी से नीचे एक झलक देखने के लिए अपनी गर्दन आगे बढ़ाई। मेन गेट की तरफ़ भी देखा। सड़क नहीं दिखी। जिसे देखने के लिए उधर मुड़ा था, वह नहीं दिखी। सोचता हूँ क्यों ज़रूरी है—सड़क का दिख जाना? क्यों ज़रूरी है—सड़क की गतिशीलता को एक पल के लिए देख भर लेना? जब सड़क की बजाय दरवाज़े पर लगी हरे रंग की शीट दिखाई दी, तब मन ने क्या सोचा?
जैसे एक दो दिन से कर रहा है, चुपके से छत पर रात के दो तीन बजे जाकर टहल आऊँ। कौन देख रहा है? कोई भी नहीं। पर जाता नहीं। कभी यह तक तो सोचा ही नहीं कि दरवाज़ा खोलकर सीढ़ियों पर आते-जाते सभी व्यक्तियों को देखता रहूँ। कभी मन नहीं हुआ। बस एक-एक दिन कर 26 की तरफ़ बढ़ रहे हैं। एक सुबह यहाँ इस कमरे से समान समेटकर ऊपर ले जाना होगा। यह कमरा जिसमें हम रह रहे हैं, यहीं रह जाएगा।
इसकी कुछ नई स्मृतियाँ अपने साथ ले आएँगे। अभी तो मुझे बस अपने दाईं ओर रखे सोफ़ा के बिल्कुल पीछे तीन-चार साल पहले का एक लोहे का दरवाज़ा याद आ रहा है। कमरे का फ़र्श सीमेंट का है। इतनी रौशनी भी नहीं है। मुझे अभी थोड़ी देर में इसी दरवाज़े से निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन जाना है। सात बजे की ट्रेन है। संदीप छोड़ने आएगा। पीएचडी के फ़ील्ड वर्क के लिए जा रहा हूँ। तुमने गाजर का हलवा भी बनाकर दिया है। गोंडा पहुँचने पर स्टेशन पर उसमें से थोड़ा खाया था। यह कमरा उस शाम से लेकर आज तक बहुत बदल गया है। कभी सोचा भी नहीं था, यहाँ इस तरह कभी वापसी होगी। यह ऐसे दिन हैं जब पुराने दिनों वाले कमरे का कुछ भी जल्दी से याद नहीं आ रहा है। कभी तो ऐसा लगने लगा है, बहुत पास की चीज़ें भूल गया हूँ या याद करने पर उन तक पहुँच पा रहा हूँ। ऐसा दो तीन-बार इधर हुआ है। अभी याद भी नहीं कर पा रहा कि किसे भूल रहा था।
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अभी घंटा भर पहले भाप लेते हुए उस टैबलेट की महक कल के मुक़ाबले थोड़ी बड़ी हुई लगी। सुगंध ऐसे ही वापस आ रही है। स्वाद का कुछ ज़्यादा समझ नहीं पा रहा। दुपहर की दाल-दाल लग रही थी। रात की दाल में वैसा स्वाद ही नहीं लगा। सेब सेब लग रहा है। मीठा। किशमिश-किशमिश की तरह है। पर इस किशमिश को खाते हुए अपने बचपन में इसे सबसे पहली बार खाने के स्वाद से मिलान कर रहा था। वैसा स्वाद तो आज बिल्कुल भी नहीं लगा। वह किशमिश ही बहुत छोटी थी। मुँह में न जाने कैसा स्वाद था उसका।
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भाई कह रहा था, यह भी कोई दिन है? एक दो घंटे का तो दिन है यहाँ। देख साढ़े बजे अँधेरा हो गया। रोज़ यही है। नाश्ते के वक़्त एक फिल्म फिर काढ़ा, खाना और खाने के बाद एक फ़िल्म। समझो दिन ख़त्म। अँधेरा होने के बाद कौन-सा कुछ बचता है दिन में। खाना खाया मोबाइल देखा। सो गए। आ गया अगला दिन।
दिन : चौदह
23 नवंबर 2020
जो सारा खाना दूध सहित अभी पेट से निकल गया, इसने पिछली रात भी दिमाग़ ख़राब कर रखा था। करवट-करवट रात के दो बज गए। कोई तरकीब काम नहीं आई। ढाई बजे के बाद अपने आप इंतहा हुई और नींद न जाने किस पल आ गई। सारा दिन ऐसा लगता रहा जैसे बहुत ठंडी है। पैर मोज़े के अंदर भी भीग रहे हों जैसे। इतने नहीं पर पसीने के कारण जितनी ठंड लग सकती है, उतना तो हुआ लगता ही रहा।
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दिन : पंद्रह
24 नवंबर 2020
क्या इन बीत गए दिनों में किताबें नहीं पढ़ी जा सकती थी? यह सवाल सहज होता तो पहले दूसरे या तीसरे दिन तक लिख जाता। लगता है, यह एक सीमा के बाद बहुत ही नक़ली और बेमानी-सा सवाल है। आप ऐसी जगह हैं, जिससे आप निकालना चाहते हैं। जिस मनोदशा से गुज़र रहे हैं, वहाँ शरीर की अपनी सीमाएँ हैं। यही सीमाएँ मन को रच रही हैं। देह आराम चाहती है। उसे दिमाग़ उतना ही चलाना है, जिसमें कोई अतिरिक्त श्रम न करना पड़े। सहायक इंद्रियों पर कोई काम बोझ न बन पाए, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।
हो सकता है, इन सबके बीच कोई पढ़ भी रहा हो। अपनी सीमाओं के परे जाकर उसे पढ़ना बहुत ज़रूरी लग रहा हो। मेरे पास जो फ़ुर्सत रही उसे जिस तरह लिखने में डाल दिया करता हूँ, उसमें भी तो यही मूल प्रश्न है। आप क्या करना चाहते हैं और क्या नहीं करना चाहते। सब इस पंक्ति की तरफ़ स्पष्ट और सुलझा हुआ है।
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आज पालक पनीर का पूरा स्वाद आया। अभी हाथ में संतरे की महक बनी हुई है। ठंड भी आज कम ही लग रही है। पीछे दो दिनों के मुक़ाबले वह काफ़ी कम है। बस पैर में पहने मोज़े में पसीने के बाद पैर थोड़ा ठंडा लगने लगता है। बाक़ी आज दुपहर में उसी निर्देशक की फ़िल्म देखी, जिसने ‘शटर आईलैंड’ बनाई है। इस फ़िल्म का नाम था—‘डिपार्टेड’। समझ आया कि ज़रूरी नहीं उसकी हर फ़िल्म उस तरह से आपको लगे जैसी पिछली फ़िल्म लगी थी। क्रिस्टोफ़र नेलोन बहुत कम लोग बन पाते हैं।
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अभी शाम को जब चाय नहीं आई थी, उससे पहले दीपक पांडे के बारे में सोच रहा था। बड़े स्कूल में उसके पिता काम करते थे। वहाँ पहरेदार थे। चौकीदार शब्द के इस्तेमाल से बच रहा हूँ, यह साफ़ है। वहीं पीछे उन्हें रहने के लिए जगह मिली हुई थी। हम जब स्कूल में पढ़ते थे, अपनी गर्मियों की छुट्टियों में शहतूत खाने के लिए उस पेड़ तक जाया करते थे। पहले से ही वहाँ ज़मीन पर बहुत सारे शहतूत बिखरे रहते थे। हम उन्हें बटोर कर प्लास्टिक की थैलियों में इसलिए नहीं रख पाते थे, क्योंकि तब प्लास्टिक की थैलियाँ इस तरह सुलभ नहीं थीं। हम एक फूल की बड़ी-सी पत्ती को तोड़ते और उसे कूपे की तरह इस्तेमाल करते। जब हम बहुत सारे शहतूत इकट्ठा कर लेते, तब हमने से ही कोई कहता इतने शहतूत खाने से पेट ख़राब हो जाएगा। तब तक हम उसे पानी में भिगोकर साफ़ कर रहे होते। लाल, गुलाबी, सफ़ेद न जाने कितने रंग एक साथ उस पानी में उभर आते।
यहीं सबसे पहले दीपक पांडे दिखा। वह भी हमें देखता ही था। हमारा उससे किसी भी स्तर पर कोई संवाद कभी नहीं हुआ। बाद के दिनों में जब क्रिकेट खेलने के लिए बड़े स्कूल के कंक्रीट के उस मैदान पर जाने लगे तब भी नहीं। वह और उसकी छोटी बहन वहाँ आकर कुछ देर हमें देखते और चले जाते। कभी दीपक ने हमारे साथ खेलने की इच्छा प्रकट की हो, याद ही नहीं आता। वह कभी हमारे साथ खेला ही नहीं। जबकि हमारी और उसकी उम्र में बहुत अंतर नहीं था। वह रहा होगा मोहित की उम्र का। तब भी वह हमारे साथ नहीं खेला।
उसके पिता को हमारे पिता जानते हैं। वह गोंडा के ही थे। अंकल को देखकर लगता कि वह मितभाषी हैं। बहुत कम बोलते हैं। कभी लगता यहाँ शहर में एक जगह जहाँ उनके बच्चे पढ़-लिख जाएँ, वह इतना भर ही चाहते हैं।
अभी पीछे एक दिन हमारा केबल नहीं आया। हमने केबल वाले को फ़ोन किया। एक दिन, दो दिन, तीन दिन। ऐसे पाँच-छह दिन बीत गए। टेलीविजन जितना भी हमारे यहाँ देखा जाता था, सब रुक गया। जब लगभग छह सात दिन बीत गए, तब एक शाम केबल वाला अपने एक लड़के (कर्मचारी) के साथ आया। उसने कहा पीछे स्कूल में पंडीजी ने घर ख़ाली कर दिया है न, तभी लगता है कोई तार टूट गई है और इसलिए केबल नहीं आ रहा है।
पहले तो समझ नहीं आया कौन पंडीजी रहते थे—पीछे स्कूल में? दिमाग़ किसी नाम और छवि को सोच पाता तभी पापा बोले : ‘‘शिव कुमार चले गए क्या?’’ दीपक पांडे के पिता का नाम शिव कुमार ही है। वह चले गए? कहाँ? जिस परिवार से हमारा कोई भी सीधा-आड़ा-तिरछा किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं था, उनके यहाँ से जाने पर पता नहीं मन कैसा हो गया? सालों-साल बिना बात किए निकल गए, तब भी उनको लेकर पता नहीं क्या है, जिसे अपने अंदर महसूस कर रहा हूँ। यह क्या है? इसका कोई मानवीय पहलू तो ज़रूर होगा।
याद करने की कोशिश करता हूँ तो याद आता है, एक बार अभी छह-सात महीने पहले जब यह सब शुरू नहीं हुआ था, तब उसे सड़क पार करने के बाद पैदल पंचकुइयाँ रोड की तरफ़ जाते हुए देखा था। उम्र तो हम सबकी बढ़ रही है, वह भी शायद उस उम्र में तो आ ही गया था, जब वह नौकरी करने लगा था। शादी भी हो गई थी, ऐसा लगता।
अब वह कहाँ होंगे, इस प्रश्न के उत्तर के लिए किससे पूछूँ, कुछ समझ नहीं आता। यह सवाल मेरे लिए सवाल ही क्यों है? क्या इसे सवाल की तरह लिखा भी जाना चाहिए था? पता नहीं। यह शायद घूम-घूमकर अपनी ही कही बातों को कह जाना है। कुछ लोग सिर्फ़ दिखते रहें। हम उनके लिए और वह हमारे लिए बस ज़िंदगी में इतने कम होते हुए बहुत कुछ होते हैं। यह दिख जाना आदत नहीं है। एक आश्वस्ति है। तुम हो। मैं हूँ। हम सब यहीं हैं। यह वक़्त इसी तरह गुज़र रहा है, जहाँ जीने के लिए इतनी पहचान भी कभी-कभी काफ़ी होती है। हमें लगता है कि जब कभी हम बात करेंगे तो कुछ भी अपरिचय नहीं रह जाएगा। सब साझा ही तो था—अबोला, अनकहा—पर साथ-साथ।
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आज शाम इसी लैपटॉप में अगस्त, 2019 की तस्वीरें देख रहा था। गाँव ही हमारे लिए वह जगह है, जहाँ हम जाते हैं। यह हमारा घर वह जगह ही नहीं है, जहाँ कोई वहाँ से आना चाहता है। ऐसा क्यों है कि इसका बहुत ही सरल-सा उत्तर है। जड़ें चाहे जैसी भी हैं, जोड़े रहती हैं। मैं तो एक दिन उनके बारे में सोचता हुआ उनकी दुकान पर चला गया। वह बैठे कभी इकौना जाती सड़क को देखते तो कभी खुटेहना की तरफ मुड़ रहे दुनक्के की तरफ़। वह कितना पढ़कर भी वहीं अपनी सारी छटपटाहट, बेचैनी, कुंठित हो गए मन, अधमरे सपनों को लिए रोज़ गल्ले पर आ जाते हैं। किराने की दुकान वह सपनीली जगह तो नहीं रही होगी। जहाँ उन्होंने पहुँच जाना तय किया था। उनकी आँखों में झाँक नहीं पाता हूँ। हिम्मत नहीं होती है। डर जाता हूँ, वहाँ सपनों को मरते हुए देखकर।
उन तस्वीरों में वह नहीं थे, पर जगह थी। वही सड़क। वही ठहरा हुआ समय। सब आ-जा रहे हैं। पर कहीं पहुँच नहीं पा रहे हैं। ये आँखें सिर्फ़ मैंने उनके पास नहीं देखी। वहाँ से निकल जाने की छटपटाहट वहाँ पीएचडी के काम (फ़ील्ड वर्क) शुरू करने के बाद बहुत आम है। निकल कोई नहीं पाता, यह बात अलग है।
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उन्हें देखते हुए अपने मोबाइल की गैलरी में झाँका। कुल मिलाकर दो फ़ोटो। दोनों में ‘कनकासव’ की शीशे वाली बोतल को हाथ में ऐसे पकड़े हुए हूँ कि उसके नाम पर ट्यूब की परछाई न पड़ जाए। जिसे भेजनी थी, उसे मुँहज़बानी बता दिया और इन तस्वीरों को खींचने का मक़सद पूरा हो गया। दृश्य यहाँ आकर कितना सिमट गया है। कुछ भी तो नहीं है जिसकी तस्वीर को आने वाले कल में एक स्मृति की तरह याद करने के लिए अपने पास रख लूँ। ऐसा नहीं है कि मैं इस जगह को लेकर बहुत व्यक्त हो रहा हूँ। नहीं। यह तो वह जगह है, जिसने हमें इतने दिन रहने दिया। यह वही जगह है, जिसको लेकर हमारी सब स्मृतियों को मिटा दिया गया है। यहाँ आकर जो नमी हमारे हृदयों में दुबारा उग आई है, उसका क्या करें? उसे किसी के सामने लाने से अच्छा है, उसका इशारा करके आगे बढ़ जाऊँ।
उन्हीं तस्वीरों में सुरेश भी दिखे। रीता की शादी है। द्वार-चार पर सब बाहर खड़े हैं। पंडित जी वेदी पर बैठे हैं। अभी वर-पक्ष का स्वागत होने वाला है। सुरेश ने भी एक माला अपने हाथ में ले रखी है। उसके मुँह को देखकर लग रहा है, अंदर ही अंदर वह पान चबा रहा है। इस शादी के महीने भर में ही वह नहीं रहा। इसके बाद तो जैसे कुछ लिखने को बचता ही नहीं है। मैं कितनी बार इन सालों में कोशिश करता हूँ और हार जाता हूँ। कुछ नहीं कह पाता। जो मेरे भीतर है, वह जैसे संदीप के पास रह गए कजरौटे की तरह हो गया है। एक ही स्मृति बची है। वह कजरौटा।
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ये सारी बातें कुल मिलाकर कुछ-कुछ उस दिशा में बढ़ती जा रही हैं, जिसमें हर व्यक्ति का अपना दौर उसके आस-पास एक परिवेश को बनाता है। उसे उसकी जान-पहचान वाले लोग उसके साथ मिलकर निर्मित करते हैं। कम से कम इसमें तीन पीढ़ियों के लोग ज़रूर शामिल होते हैं—एक हमसे बड़े, एक हमसे छोटे, एक हमारे बराबर। हम अपने बचपन में जिन लोगों को उनके बुढ़ापे में देखते आए हैं, वे धीरे-धीरे पर्दे के पीछे नेपथ्य में जाते रहते हैं। उनकी यह दीर्घ अनुपस्थिति हम तब समझ पाते हैं, जब वे हमें अपनी स्मृतियों से भी ग़ायब होते हुए लगते हैं। यह एक शृंखला है। अनवरत इसमें लोग आते-जाते रहते हैं। हम किन्हीं आत्मीय जनों से बहुत भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उनकी अनुपस्थिति ही हमें सबसे ज़्यादा खलती है।
हो सकता है, एकबारगी मैं जो कहना चाहता था, वह नहीं भी कह पाया हूँ। लेकिन इस सबमें मेरा दिमाग़ इतना भर दिया है कि बाबा या ननकू चाचा या सुरेश के न होने का एहसास जिस तरह मुझे छू पाता, वह इस भरे हुए दिमाग़ ने कभी होने नहीं दिया। मेरे दिमाग़ में वे अभी सिर्फ़ नज़रों से ओझल हैं। दिमाग़ को शायद यह लगता है, एक बार जब वह सामने आ जाएँगे, तब सब ठीक हो जाएगा। जबकि कहीं न कहीं मुझे पता है, अभी दिमाग़ उस तरफ़ न जाकर पीएचडी ख़त्म कर लेना चाहता है। वह मुझे कुछ और सोचने भी नहीं देना चाहता।
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दिन : सोलह
25 नवंबर 2020
चाहे जितने भी दिन हो, एक दिन सब ख़त्म हो जाते हैं। ख़त्म होने के सिवा उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं होता। यह समय कभी रुकेगा? हो सकता है, कोई कहीं कल्पना करके थोड़ी देर के लिए ऐसा कर पाए। उस कल्पना के बाहर ऐसा होता हुआ नहीं लगता। सब इसी धरती के घूमने के बाद सुलझ जाता है। कहीं कोई प्रश्न, शंका कुछ भी आड़े नहीं आता। यह निरुत्तर होने और सब प्रश्नों के उत्तर मिलने जैसा वाक्य बन गया है।
कल भाई के आइसोलेशन का आख़िरी दिन था। आज सुबह उठकर नया और अपना टेस्ट करवाने बिरला मंदिर गया। पहले तो उन्होंने कहा कि सत्रह दिन के बाद यह करवाना ज़रूरी नहीं है। उसके बाद बोले आरटी-पीसीआर ही कर रहे हैं। रिपोर्ट दो तीन दिन में आएगी। जब कहीं किसी दफ़्तर में इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है और सब कह रहे हैं टेस्ट दुबारा करवाने की ज़रूरत नहीं है तो भाई लौट आया।
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वह थोड़ी देर घर पर रहा और दुपहर के खाने से पहले नीचे यहाँ कमरे में वापस आ गया। मैं कहीं अकेला न महसूस करूँ। यही वह सोच रहा था। खाना खाने से पहले जॉनी डेप की ‘सीक्रेट विंडो’ मैंने अकेले देख ली थी। कुछ ख़ास फ़िल्म नहीं थी। सब उस लेखक की अपनी बनाई दुनिया थी। साल 2018 में केके मेनेन की एक फ़िल्म आती है—‘वोदका डायरीज’। वैसे इस बॉलीवुड हिंदी फ़िल्म में ‘शटर आईलैंड’ भी थोड़ी मिली हुई थी।
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इस पड़ाव का अब एक दिन बचा है। यहाँ से अब निकलना है। हमारी उपस्थिति जो इस जगह को बना रही है, वह हमारे जाने के बाद हमारे लिए अनुपस्थित हो जाएगी। यह वैसा का वैसा ही हमारे मन में बना रहेगा। जो समान हम ऊपर से नीचे इन सत्रह दिनों के लिए लाए थे, वह अब धीरे-धीरे समेटकर वापस ले जाना है।
यह हमें देखना होगा, इन दिनों के लिए हमने किसे अपने साथ लाना ज़रूरी समझा। किसे नहीं। बहुत ज़्यादा चीज़ें तो ये हैं नहीं—दो लैपटॉप, नहाने का साबुन, चड्ढी-बनियान, ब्रश-टूथपेस्ट, भाप लेने के लिए इवेपोराइज़र, कुछ दवाइयाँ, पानी पीने के लिए गिलास, सैनिटाइज़र, शीशा-कंघी-तेल, लिखने के लिए काग़ज़, पानी गरम करने के लिए इलेक्ट्रिक कैटल, कुछ फल : केला-सेब-संतरे, नींबू, ग्लूकॉन-डी, कनकासव।
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दिन : सत्रह
26 नवंबर 2020
सब का एक आख़िरी दिन होता है। यह डायरी भी अपने आख़िरी दिन तक आ पहुँची है। क्यों इसे लिखने का निर्णय किया और क्यों लिखता रहा, यह कोई प्रश्न नहीं है। जो काग़ज़ पर इस गति से कभी न लिख पाता, उसे यहाँ कह पाया हूँ, यही सोच रहा हूँ। इन दिनों को कितना कह पाया और कितना साथ लिए चल रहा हूँ, ये दोनों बहुत अलग-अलग बाते हैं। कोई क्या ही कर सकता है—इन दोनों ही अनुभवों का। मैं भी कुछ ज़्यादा करने की स्थिति में नहीं हूँ। भाषा की सीमाओं को जितना जान पाया, उसमें यह भी एक बात है, जिसे हमें जानना चाहिए।
कुछ भी नियत नहीं है। किसी भी घटना का कोई वक़्त तय नहीं है। हमारा जीवन पृथ्वी के अक्ष की तरह भी नहीं माना जा सकता। यह जीवन भी अप्रत्याशित है और संभावनाओं से घिरा हुआ है। यहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। जैसे कभी सोने में ही वक़्त बीत जाना एक रूमानी ख़याल की तरह हमें पानी में तैरा ले जाए।
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यहाँ से निकलने के कैसे-कैसे ख़याल मेरे मन में आए यह मुझे नहीं पता। सोचता रहा, बस एक दिन तो यहाँ से चल ही पड़ना है। उससे पहले यह दृश्य मेरे मन में कई बार घुमड़ा होगा। मैं छत पर रात के न मालूम कितने बजे अकेले घूम रहा हूँ। रात की ठंड है। अँधेरा है। कोई नहीं है। सड़क से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही है।
इसके साथ ही यह सोचता रहा, जब पहली बार यहाँ से बाहर निकलूँगा, तब शिवाजी स्टेडियम जाकर ख़ूब सारी पत्रिकाएँ लेकर आऊँगा। पता नहीं मेरे पीछे कितने अंक आ गए होंगे। एक बार ‘सेंट्रल न्यूज़ एजेंसी’ भी जाना तो बनता ही है। वहाँ भी तो कई बार कुछ रह गया मिल जाता है।
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अभी टाइल पर चाँद की झिलमिलाती परछाई देखी। थोड़ा आगे बढ़ा और अब मैं चाँदनी के नीचे था। मुझे चंद्रमा को देखने के लिए अपनी गर्दन ऊपर उठानी पड़ी, तब जाकर वह मुझे दिखा। थोड़ा बादलों में छिपा हुआ-सा। थोड़ा तिरछा। थोड़ा श्यामल और थोड़ा धुँधला-सा। ऐसे ही एक दिन सूरज की रौशनी में अपनी हथेली को थोड़ा आगे बढ़ाकर उसकी तपिश को महसूस करना चाहा। हाथ को लगा ही नहीं कि यह सूरज है और धूप में आना किसे कहते हैं। वह इतने दिनों में पहली बार था, जब कुछ पलों के लिए सूरज की तपिश को छुआ था।
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आज दुपहर अधूरी छूटी हुई फ़िल्म ‘मॉनसून वेडिंग’ देख ली। इसमें भी तिलोत्तमा शोम हैं। फ़िल्म जब ख़त्म होने को थी, तब मुजफ़्फ़र अली की पहली फिल्म ‘गमन’ का गाना ‘आजा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ’ बैकग्राउंड से उभरते हुए सुनाई देता है। पूरी फ़िल्म में सुखविंदर का ‘अज मेरा जी करदा’ जिस तरह से आया है, वह अल्टीमेट है। दुपहर ही मोबाइल में देख रहा था तो अभिषेक बच्चन के गेट अप की बहुत चर्चा सुनाई दे रही थी। वह ‘कहानी’ की ‘स्पिन ऑफ़’ फ़िल्म ‘बॉब बिस्वास’ की शूटिंग कर रहे हैं।
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इस सबमें एक बात जो बार-बार रह जा रही है, वह है—गंध की बात। जब हम किसी गंध को महसूस नहीं कर रहे थे, हमारी नाक के लिए वह ग़ायब हो गई। तब भी वह वहीं थी। वह हमेशा से वहीं थी। बस हमें लग नहीं रही थी कि वह है। यह धोखे जैसा ही कुछ है इसके बावजूद वह हमेशा हमारे पास ही थी। वर्ण जब नाक जब दोबारा सूँघ पाने में सक्षम हुई, तब उसे तुरंत ही गंध महसूस हुई वर्ण वह तो कहीं होती ही नहीं और कभी नाक तक आती ही नहीं।
समाप्त...
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