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उम्मीद अब भी बाक़ी है

उम्मीद अब भी बाक़ी है

निशांत 23 मई 2023

एक

एक दिन श्रीप्रकाश शुक्ल जी का फोन आया : ‘जवान होते हुए लड़के का क़बूलनामा’ संग्रह की प्रति तुरंत उपलब्ध करवाओ, ‘परिचय’ के अगले अंक में समीक्षा जानी है।

मेरे पास अपने संग्रह की कोई कॉपी नहीं थी। एक दोस्त को भेंट की हुई कॉपी नाम काटकर श्रीप्रकाश जी को क़रीब-क़रीब सौ रुपये लगाकर स्पीड पोस्ट की। उन दिनों सौ रुपए मेरे लिए बड़ी रक़म होती थी।

‘परिचय’ का अंक आया। तीन कवियों के साथ, मेरी किताब की भी समीक्षा थी। समीक्षक थे—रविशंकर उपाध्याय।

भाई रविशंकर से मेरी यह पहली मुलाक़ात थी। समीक्षा कड़ी थी। मेरा हाजमा थोड़ा बिगड़ गया था, समीक्षा पढ़कर। फ़ोन पर बात हुई पहली बार, फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। प्राय: महीने में एकाध बार लंबी बातें होने लगी थीं। हमारी अधिकतर बातें समकालीन कविता को लेकर होती थीं। मुझसे जेएनयू छूट गया था और रवि भाई बीएचयू में थे। लंका पर पत्रिकाएँ और पुस्तकें कोलकाता की तुलना में जल्दी उपलब्ध हो जाती थीं। मैं अक्सर उनसे पूछ लिया करता था, आजकल क्या पढ़ रहे हैं? कौन-सी नई पत्रिका आई है? किस पत्रिका में कौन-सी सामग्री पढ़ने योग्य है? रवि भाई बतलाने के साथ-साथ अपनी टीपें भी जोड़ देते थे। वह भयानक पढ़ाकू थे। बेलाग भी थे।

रवि भाई एक बार बातों-बातों में बतलाए कि भाई, आजकल के युवा कवि अपनी कविता की कमज़ोरियों पर बातें ही नहीं करना चाहते। यदि बातें करो तो आप उनके शत्रु बन जाओ। मुझे पता था कि रवि भाई कविता के कला-पक्ष की तुलना में जन-पक्ष की तरफ ज़्यादा ध्यान देते थे। वह कहते थे कि कविता को आम जन की भाषा के नज़दीक आना चाहिए। कविता के सुपाच्य होने की वह लगातार वकालत करते रहते थे। कविता आसानी से संप्रेषित हो जाए। इसके लिए नए पाठकों का निर्माण और युवा कवियों को प्रोत्साहन देने के लिए ही ‘कवि संगम’ की परिकल्पना उन्होंने की। पहली बार देश भर से चालीस कवियों को उन्होंने निमंत्रित किया। तीस कवियों की उपस्थिति रही। मैं, कुमार अनुपम और प्रांजल धर एक साथ दिल्ली से बनारस गए। रवि भाई से आमने सामने मेरी पहली मुलाक़ात हुई। फ़ोन से जो मित्रता शुरू हुई थी, वह मिलकर और प्रगाढ़ हो गई।

मैं बीएचयू में तीन दिन रहा। रवि भाई का एक नया रूप मेरे सामने था। मैं बिरला छात्रावास में उन्हीं के कमरे के बग़ल में भाई विजय रंजन (मेरे क्लासमेट संदीप रंजन के बड़े भाई) के कमरे में जानबूझकर ठहरा था, क्योंकि छात्रावास में ठहरने की एक उम्र होती है। उसके बाद आप नहीं ठहर सकते। उन दिनों विजय रंजन के रूममेट हुआ करते थे युवा कवि अनुज लुगुन। अनुज से भी मेरी यह पहली मुलाक़ात थी।

उन तीन दिनों में मैंने रवि भाई को नज़दीक से जाना। दो चीज़ें तो अद्भुत थीं। पहली चीज़ : बच्चे (जूनियर छात्र, बीए और एमए के) और उनके साथी उन्हें आचार्य कहते थे। रविशंकर या रवि या भैया संबोधन तो मैंने किसी के मुँह से सुना ही नहीं। यह एक अद्भुत सम्मानजनक संबोधन था। अपने साथियों के द्वारा अपने उम्र के साथी को। मैं नहीं जानता कि सबसे पहले किसने उन्हें आचार्य कहा था, लेकिन जब भी किसी के मुँह से सुनता तो वह सम्मानबोध के साथ ही आचार्य कहता। वाणी के कंपन से वाणी का अर्थ समझ में आ जाता है। आचार्य संबोधन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता था कि यह सम्मान या उपहास या व्यंग्य या क्या है? रविशंकर पूरे बीएचयू में काफी समादृत थे।

दूसरी चीज़ थी : सांगठनिक क्षमता। साहित्य और संस्कृति के मोर्चे पर रविशंकर अप्रतिम योद्धा थे। वह अकेले मित्रों की छोटी-सी टोली लेकर ‘कवि संगम’ जैसे बड़े आयोजन को जिसमें स्टेशन से रिसीव करने से लेकर ठहरने, खाने-पीने, सोने, संचालन करने से लेकर टेबल-कुर्सी लगाने तक का काम दत्तचित्त मन से किया जा रहा था। बीएचयू में कविता और कवियों के लोकप्रिय करने में वहाँ के प्रोफ़ेसरों की जितनी भूमिका है, उससे किसी भी मामले में रविशंकर की भूमिका कम नहीं है। शिक्षक होने से आपको कुछ अतिरिक्त फ़ायदा भी मिलता है, पर शोधकर्ता होकर इतना काम करने से उल्टे नुक़सान होता है। मैं नहीं जानता कि रविशंकर को इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा कि नहीं, लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि शिक्षकों की नज़र में आप काँटे की तरह चुभने ज़रूर लगते हैं। दूसरे दिन कार्यक्रम की समाप्ति के बाद शाम को अपने साथियों और जूनियरों को लेकर रवि भाई अपने कमरे में बैठे और उनको कविताएँ सुनाने के लिए उत्साहित करने लगे। पहले दिन मंच से अनुज लुगुन को सुना था। अब वह अपनी डायरी लेकर बैठा था और एक के बाद एक बेहतरीन कविताएँ सुनाने लगा। और भी कई छात्र थे। सहपाठी थे। मैं था। हम लोग कविताओं की गलियों में शाम के धुँधलके में बहस कर रहे थे। सुन रहे थे और मस्ती के गीत गा रहे थे। बिना कविताओं से प्यार किए, आप कवियों से प्यार ही नहीं कर सकते।

रविशंकर भाई कविताओं से प्यार करते थे, इसलिए अपनों के बीच के कवियों-साथियों से भी।

कविता से इतना प्यार करने वाला आदमी, समीक्षक, संगठनकर्ता और चाहे जो भी हो; वह कवि ज़रूर होगा। न भी हो तो कविहृदय ज़रूर होगा। रविशंकर भाई दोनों थे, लेकिन थे बड़े संकोची—अपनी कविताएँ सुनाने और दिखाने दोनों ही मामले में। छपने के मामले में तो महाकंजूस। उस दिन भी शाम को उन्होंने दोस्तों के बड़े इसरार करने पर एकाध कविताएँ ही सुनाई थीं। वह स्वयं के बदले साथियों को कविताएँ सुनाने के लिए मंच पर आने का इसरार करते रहते थे। अपने मंच से दूर रहते थे। यह एक बड़ा गुण था उनमें जो आजकल विरल होता जा रहा है।

दो

आजकल दो दोस्तों के लिए मन बहुत कलपता है। दोनों कवि-मित्र हैं। एक प्रकाश और दूसरे आचार्य उर्फ़ रविशंकर उपाध्याय।

प्रकाश से बचपन की दोस्ती थी। अभी कुछ रोज़ पहले गाँव से भाई आया था तो पूछ रहा था कि आजकल प्रकाश भैया कहाँ हैं? और आज सुबह-सुबह सुशील सुमन का फ़ोन आया था तो आचार्य की बात फिर शुरू हुई। तब से मन भीगा-भीगा है। एक आर्द्रता का घेरा बन गया है मेरे चारों ओर। उसमें डूब-उतरा रहा हूँ। प्रकाश बचपन का दोस्त था तो गाली-गलौज, धक्का-मुक्की, कॉलर पकड़ा-पकड़ी और बीच-बीच में बातचीत भी बंद हो जाती थी। पर आचार्य से जवानी में दोस्ती हुई और जवानी में दोस्ती तभी जमती और टिकती है, जब वैचारिक और मानसिक धरातल पर आपमें सहमति हो। आचार्य से कभी मतभेद नहीं हुआ और मनभेद तो था ही नहीं। कुँवर नारायण पर काम करने से नहीं, बल्कि उनके स्वभाव में ही एक तरह की निसंगति थी। थोड़ा राजा जनक की तरह की दुनिया में रहकर भी दुनिया से मुक्त रहना। किसी की मदद कर दिया और याद भी न रखना। विरोधियों से हँस-हँसकर बातचीत करना, चाय पीना, गपियाना और उसके चले जाने के बाद जब दोस्त यह याद दिलाते थे कि आचार्य वह विरोधी खेमे का था तो कहना कि अरे गुरु, पहले बताना था ना। इसी के लिए बांग्ला कवि जीवनानंद दास ने कहा है : भूलना अच्छी चीज़ है। ऐसी सहज भूले कोई कवि ही कर सकता है।

आचार्य सहज व्यक्ति थे और सहज कवि भी। सहजता का आलम यह था कि एक बार उनका कुर्ता मुझे पसंद आ गया, शायद तीसरे कवि संगम में तो उन्होंने झटपट उतारकर मुझे देने की पेशकश करने लगे। वह जिसे प्रेम करते थे, उसके लिए कोई दुराव-छिपाव नहीं रखते थे। उसकी द्वारा की गई दुष्टताओं को भी उतनी ही सहजता से भूल जाते थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

यहाँ प्रिय कवि राजेश जोशी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं :

‘‘चेहरे याद रहते हैं
और आजकल लोगों के नाम मैं अक्सर भूल जाता हूँ

वह जो कुछ देर पहले ही मिला तपाक से
और बातें करता रहा बहुत देर तक
पच जाता है दिमाग़ पर उसका नाम याद नहीं आता
मन ही मन अपने को समझाता हूँ कि इसमें कुछ भी अजीब नहीं
दुनिया के लगभग सारे कवि भुलक्कड़ होते हैं।’’

जीवनानंद दास भी काफ़ी भुलक्कड़ थे और रवि भाई भी। कवि इसलिए भी भुलक्कड़ होते हैं कि नई दुनिया बनाने के लिए इस दुनिया को भूलना ही होगा।

रवि भाई भी इस दुनिया को भूले रहते थे। उनकी आँखें इसकी गवाह हैं। उनकी आँखें इतनी स्वप्नमयी थीं कि अपने लिए नहीं पूरे हिंदी संसार के लिए कविता की एक नई दुनिया बनाने की ज़िद और सपनों से भरी थीं। कविता की नई दुनिया के लिए ही उन्होंने ‘कवि संगम’ की परिकल्पना की थी और काफ़ी सफल परिकल्पना थी यह। जब तक रवि भाई रहे वह विभागीय राजनीति से, वैचारिक मतभेद और मनभेद से इस आयोजन को बचाते रहे। इसके लिए वे किसी से भी मिलने को तैयार रहते। कहीं भी चलने को तैयार। वह किसी भी आयोजन के लिए हमेशा तैयार रहते थे।

आचार्य पूरावक़्ती कवि थे। जैसे किसी पार्टी के पूरावक़्ती कार्यकर्ता होते हैं—उसी तरह। शुरू में जब हम लोग मिले तो आचार्य शोध छात्र थे। लंबे, सुदर्शन और स्वप्नमयी आँखोंवाले। थोड़ा भोले और जुनूनी भी। चाल में बनारसी धमक और स्वभाव में लचीलापन। आवाज़ मधुर थी, पर मैंने कभी सुना नहीं; लेकिन जिन सौभाग्यशाली/शालिनी ने उन्हें गाते हुए सुना होगा; मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि धन्य हुआ होगा/हुई होगी। आचार्य की एक कविता है—‘सुनना’ :

‘‘जब मैं नहीं सुन रहा था तुम्हें
तब मेरी कविता सुन रही थी
जब मैं ठहर भी जाता हूँ
तब भी गतिशील रहती है कविता
मेरे भीतर

अब मैं कई बार सुनना चाहता हूँ तुम्हें
मगर तुम एक गहरी ख़ामोशी में डूबी हुई हो

अब जब भी कहीं होती है हलचल
मेरे कान खड़े हो जाते हैं
श्रवण-इंद्रियाँ सक्रिय हो जाती हैं
पक्षियों की हर चहक के साथ
उतरने लगती हो मेरी आत्मा में।’’

जिसे सुनने की इतनी बेचैनी हो, वह जब गाता होगा तो घनानंद की तरह ही गाता होगा। मैं तो इसी कल्पना से आप्लुत हो रहा हूँ।

नामवर सिंह ने कहीं लिखा है कि अच्छा वक्ता होने के लिए अच्छा श्रोता होना ज़रूरी है। ठीक उसी तरह बोलने के लिए सुनना ज़रूरी है। वैसे भी प्रेम में वाचाल होने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वाचाल लोग अच्छे प्रेमी नहीं होते। अज्ञेय ने ऐसे ही थोड़े ही कहा है : ‘मौन भी अभिव्यंजना है’। सुंदरता जैसे अंदर की वस्तु है (—रामचंद्र शुक्ल), प्रेम भी अंदर की वस्तु है। प्रेमी अपनी प्रेमिका का प्रचार या ढिंढोरा नहीं पीटता। वह प्रेम करता है। इतना ही उसके लिए काफ़ी है। सामने वाला उसे प्रेम करता है या प्रेमी के प्रेम को स्वीकार करता है तो यह सोने पर सुहागा की स्थिति होती है। नहीं करता तब भी वह अपने में मस्त रहता है। रवि भाई हम लोगों के काफ़ी करीब थे, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने प्रेम का ढिंढोरा नहीं पीटा। हाँ, उनकी कविता में ‘तुम’ है, पर यह तुम नामवाची संज्ञा नहीं बन पाया। प्रेम में ज़रूर थे और उसमें भी प्रेम की विरह वेदना की अभिव्यक्ति—ख़ासकर स्मृति रूप में ज़्यादा है। ‘समुद्र, मैं और तुम’ इस प्रेम की सार्थक अभिव्यक्ति है। यह चौदह खंडों में लिखी हुई एक अद्भुत प्रेम कविता है। यह सागर की तरह है, इसलिए मुझे घनानंद की ‘सुजान सागर’ (मैंने पढ़ी नहीं है) की याद दिलाती है। इसे पढ़कर उसे पढ़ने की इच्छा तीव्र हुई/होती है।

घनानंद से याद आया कि रवि भाई की जब यह कविता छपी—‘समुद्र, मैं और तुम’—तो मैंने फ़ोन किया कि भाई! अद्भुत प्रेम कविता हैं ये। वह ऐसे शरमाए जैसे कि कविता के घर में पहली बार कोई पाहुन आया हो और अपनी तारीफ़ पर झेंप रहा हो। वैसे तो उनकी हर कविता उनके दिल के क़रीब थी, पर कुछ प्रेम-कविताओं को वे जल्दी किसी से शेयर नहीं करते थे। वे डायरी का हिस्सा थीं। वे उन्हें ऐसे सँजोए रखते थे, जैसे कोई ग़रीब आदमी अपनी जमा-पूँजी सहेज रहा हो। वह उन्हें ख़र्चने से डरते थे। वह उसे सात तालों में बंद रखते थे। ऐसी ही एक कविता है—‘कविता में तुम’ :

‘‘जब भी कोई पूछता है
तुम्हारी कविता में यह ‘तुम’ कौन है?
मैं चारों और तुम्हारी उपस्थिति को महसूस करने लगता हूँ

तुम्हारा हर स्पर्श सजीव हो उठता है
कहे-अनकहे तुम्हारे हर शब्द भर जाते हैं
नरम अर्थ से
तुम्हारी यादें
क़रीब आ जाती हैं
जिस घास पर हमने बिताए थे कुछ पल
उसकी उष्णता
आज भी ताज़ा है

मगर अफ़सोस कि इन्हें शब्द दे पाने में असमर्थ हूँ
या कहीं ऐसा तो नहीं कि शब्द में सामर्थ्य ही नहीं है
उन्हें अर्थ दे पाने में।’’

घनानंद ने इसी तरह प्रेम किया होगा, तभी वह वैसी कविताएँ लिख पाए। वह किंवंदती याद कीजिए, जिसमें घनानंद ने राजा की तरफ़ पीठ और प्रिया की तरफ़ चेहरा रखकर गीत गाया होगा। उसकी क़ीमत चुकाई होगी। कविता और प्रेमिका से एक साथ प्रेम करने के क़ीमत हर कवि को चुकाना पड़ता है। कवि हमेशा अति पर जीता है। वह अति को जीत लेना चाहता है। अति की सिद्धि ही उसके लिए कविता हैं। वह सामंजस्य नहीं बैठा पाता। जीवन को ज़िद से जीतना चाहता है, कविता बनती जाती है; जीवन छीजता जाता है। प्रकाश भी ऐसा ही था। जीवन को ज़िद से जीतने की कोशिश करता हुआ। रवि भाई भी कम जिद्दी नहीं थे, नहीं तो लाख लोगों के मना करने के बाद भी ‘कवि संगम’ जैसा आयोजन नहीं ठानते। मैं ख़ुद कई बार का गवाह हूँ कि कौड़ी-पाई के हिसाब में उन्हें उलझते हुए देखा; पर ‘कवि संगम’ होगा। यह सार्थक ज़िद ही उनकी जिजीविषा थी।

तीन

मैं जब-जब रविशंकर उपाध्याय की कविताओं से गुज़रता हूँ तो मुझे राजेश जोशी की कविताएँ बेतरह याद आती हैं। शायद रवि भाई और राजेश जोशी की कविताओं की कई विशेषताएँ आपस में गड्डमड्ड हैं। पहली विशेषता यह कि मुझे दोनों वाचिक परंपरा के कवि लगते हैं। किसी एक को पढ़ो तो लगता है कि पढ़ नहीं रहा हूँ, सुन रहा हूँ। कवि सीधे मुझे ‘थ्रो’ कर रहा है। कविता सुना रहा है। दूसरा एक गुप्त और रहस्यमय भाषा होती है, हर कवि के पास जो रविशंकर बना रहे थे और उसका पका विस्तार राजेश जोशी के यहाँ हैं। तीसरा रवि भाई के पहले और अंतिम संग्रह का नाम है—‘उम्मीद अब भी बाक़ी है’ (2015) जबकि राजेश जोशी का इसी साल आए संग्रह का नाम है—‘ज़िद’। ज़िद और उम्मीद में सिर्फ़ ध्वनि-साम्य ही नहीं है, एक स्वप्न को बचाए रखने की आकांक्षा भी है।

चार

रविशंकर उपाध्याय की कविताओं में लोक से अर्जित भाषा का सौष्ठव था। यह झट से संप्रेषित और लोगों तक पहुँच जाने वाली भाषा थी। रविशंकर के रहते हुए काफ़ी कम पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ छपी थीं। इसलिए बनारस की एक ठेठ भाषा का ठाठ जो हिंदी कविता में उभरकर आता, आते-आते रह गया। एक जेनुइन कवि के जाने से सिर्फ़ घर, परिवार, समाज का ही नुक़सान नहीं होता। एक भाषा भी दरिद्र होती है। उस भाषा का साहित्य भी दरिद्र होता है। कालांतर में उस देश की संस्कृति भी दरिद्र होती है। यह बोलने वाली भाषा रविशंकर की कविताओं की प्राण है। इसी से उसकी कविताओं में प्राण-प्रतिष्ठा होती है और उसकी कविताएँ बोलने लगती हैं। ऐसी बोलने वाली कविताएँ हमारी पीढ़ी में काफ़ी कम कवियों के यहाँ हैं। यहाँ लोक सीधे बोलता है। उसकी प्रतिध्वनि, चित्र और उसके विभिन्न शेड्स देखने को मिलते हैं। वास्तव में रविशंकर की नाभि ख़ुद अपने गाँव से अर्थात् लोक से जुड़ी थी। भाषा में ऐसी जीवंतता बिना अपने लोक और लोगों से जुड़े नहीं आती। अरुण कमल के यहाँ पटना, राजेश जोशी के यहाँ भोपाल, मंगलेश डबराल के यहाँ पहाड़ जैसे बोलते-बतियाते हैं। ठीक उसी तरह की भाषा की पकड़ रविशंकर के यहाँ आने वाली थी। उसका आरंभ हो चुका था, पर निष्कर्ष से पहले ही कवि फ़ना हो गया।

साधारण बातों को साधारण ढंग से लिख देना कम बड़ी कलात्मक उपलब्धि नहीं होती। रविशंकर साधारण बातों, घटनाओं को अपने हिसाब से कविता में उपस्थित कर देते थे। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि थी। काव्यशास्त्रीय भाषा में इसे ‘साधारण में असाधारण’ का बिम्ब कहते हैं। रविशंकर की आलोचना में गति काफ़ी अच्छी थी, पर कविता में भाषा की पकड़ उससे भी अच्छी थी। कहीं-कहीं व्यंग्य इतनी चुटीली होती थी कि साफ़-साफ़ समझ में आ जाता था कि लोक-भाषा से ग्रहण किया गया व्यंग्य है यह। किताबों से लिया गया नहीं। अभी आत्माभिव्यक्ति वाली भाषा को रविशंकर पकड़ ही पाए थे। उसमें कुछ ही लिख पाए थे। लगभग चालीस कविताएँ और कुछ छिटपुट-छिटपुट समीक्षा, आलोचना पर भाषा की पकड़ बतलाती थी कि कवि-लेखक गहरे धँसा हुआ है—जीवन में भी और समाज में भी।

लोक से प्राप्त कवि का पद बहुत ही दुर्लभ होता है। कविता-संग्रह छपवाकर प्राप्त पद से कई गुणा ज़्यादा सुंदर और प्रतिष्ठित पद। इसलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी लोक को शास्त्र से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मानते थे। रवि भाई को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र तो हमेशा और कभी-कभी शिक्षक भी आचार्य कहकर संबोधित करते थे। यह रवि भाई की लोकव्याप्ति थी। इसके आगे हम लोग तो नतमस्तक ही थे। इतनी कम उम्र में भारतेंदु को ही यह सम्मान मिला था। वह भी बनारसी थे और बनारस के लोग द्वारा ही उन्हें यह स्वीकृति मिली थी। रवि भाई से कोई एक बार मिल लेता था तो आसानी से इस शब्द के अर्थ और मर्म तक पहुँच जाता था।

कम उम्र में रवि भाई काफ़ी परिपक्व, गंभीर और व्यवहारिक युवा हो गए थे। वह सबके प्रति सावधान और अपने प्रति लापरवाह थे। पीएचडी जमा करने के बाद उन्हें दिल्ली आना था। एक पत्रिका के संपादकीय विभाग में काम करने के लिए उनकी बात भी हुई थी। लेकिन बातें हैं बातों का क्या…? अभी बहुत सारी बातें हैं…। पर सब अधूरी रह गईं। जब बहुत कम समय में जीवन जाता है तो सब कुछ अधूरा ही छूट जाता है। अभी रवि भाई ने लिखना ही शुरू किया था। ढंग से पीएचडी ही लिख पाए थे। कई योजनाएँ उनके मन में थीं। अभी कुछ अभिव्यक्त हो पाई थीं और कुछ अंदर ही अंदर कुनमुना रही थीं कि सब कुछ ख़त्म हो गया; लेकिन ‘उम्मीद अब भी बाक़ी है’।

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