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पूर्णता की तलाश की कविता

पूर्णता की तलाश की कविता

कुमार मंगलम 19 सितम्बर 2023


स्वप्नान्नं जागरितांत चोभौ येनानुपश्यति। 
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। 

— बृहदारण्यक उपनिषद्

(धीर पुरुष उस 'महान्' विभु-व्यापी 'परमात्मा' को जानकर जिसके द्वारा व्यक्ति स्वप्न तथा जाग्रत् दोनों अवस्थाओं के अंत को देखता है, शोक से विरत हो जाता है।)

भारतीय दर्शन, साहित्य, कला एवं विचार में “सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिव अजायते पुनः” का भाव एक कलात्मक दृष्टिकोण के रूप में ही नहीं वरन एक बुनियादी जीवन-दर्शन एवं विवेक के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जो सृजन भी है सृजनकर्त्ता भी, स्वप्न भी और स्वप्न-द्रष्टा भी। भारतीय चिंतन परंपरा में वस्तुवादी यथार्थ-बोध सब कुछ रीत जाने का नहीं, बल्कि समय के साथ एकाकार भाव से मृत्यु और त्रासदी के भाव की स्वीकार्यता है, जहाँ जीवन केवल देह-वस्तु है। आत्मा अजर-अमर है। यानी जीवन का, अमरता का मूल तत्त्व सुरक्षित है। जिससे किसी भी जीवन का मूल स्वभाव निर्धारित होता है। मृत्यु का यह अस्वीकार और अमरता की यह स्वीकार्यता वस्तु एवं जीवन जगत से उदात्त संबंध का प्रबल घोषणा-पत्र है। कालातीत और काल-सापेक्ष के बीच का संतुलन जीवन-दृष्टि से उत्पन्न होता है, जो आत्मा के उन्नयन के बीजों में संरक्षित है। जो आदमी के अंदर है बाहर नहीं। भारतीय दर्शन इन्हीं अर्थों में मनुष्य को शोक विरत करने का उपक्रम है। साहित्य भी इससे परे नहीं। भरत मुनि के रस-सिद्धांत से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के चिंतामणि के निबंधों तक भाव और मनोविकारों का विस्तृत विश्लेषण और वर्गीकरण है।  

समकालीन हिंदी कविता परिदृश्य में भारतीयता के प्रसंग को यथार्थ एवं समकालीन सवालों की तीक्ष्णता के ज़मीन पर कुँवर नारायण ने विशेष अर्थ संकेतों के साथ अपनी कविताओं में दर्ज किया है। मिथकीय प्रसंगों को लेते हुए कुँवर नारायण भारतीय दर्शन के उन तत्त्वों को उठाते हैं, जहाँ कुँवर नारायण के लिए मौलिकता का अवकाश हो। और इस प्रक्रिया में वे दर्शन को पूर्वग्रह, अ-विश्वास, अंधविश्वास और आस्थाओं से विलगाते हैं। यह अलगाव आधुनिक समस्याओं को केंद्र में रखते हुए न सिर्फ़ अधीनस्थ सामूहिक समूह (subaltern groups) की चिंता से पैदा हुआ है, बल्कि संपूर्ण मानवता की चिंता से जनमता है। ग्राम्शी इसे ही इतिहासवाद और पुरातन-दर्शनों का अधिग्रहण कहते हैं। यानी कि कुँवर नारायण औपनिषदिक कथासूत्र लेते हुए भी अपने समकालीन संदर्भों के लिए अवकाश तो निकालते ही हैं बल्कि उसमें अपनी मौलिक उद्भावना के लिए भी जगह बना लेते हैं। अर्थात् ‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’ और ‘कुमारजीव’ की कथासूत्र को देखें तो ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा’ के बहाने में निहित नचिकेता की औपनिषदिक कथा से अलग पिता-पुत्र संवाद, क्षमाभाव और पश्चाताप के लिए और ‘कुमारजीव’ में कुमारायण और जीवा में कुमारजीव के भविष्य के लिए पति-पत्नी संवाद और रचनाकार के तनाव के लिए जो जगहें हैं, वह कुँवर नारायण का नितांत अपना है। इन हिस्सों को देखें तो व्यक्तिगत, समष्टिगत और राजनैतिक स्तर को लक्षित कर सकते हैं।

कुमारजीव में कुमारजीव के रचनाकार पक्ष में और आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने में नचिकेता और वाजश्रवा के रूप में स्वयं कुँवर नारायण की उपस्थिति व्यक्तिगत है। यह प्रथमतः और अंततः समाज को संबोधित है। और इनका समकालीन संदर्भ राजनैतिक है। 

कुँवर नारायण की रचनाधर्मिता के मूल में जीवन विवेक के साथ-साथ समन्वय और समावेश की विराट चेतना मनुष्य की जिजीविषा के खराद पर निर्मित होता है। जहाँ संघर्ष के साथ-साथ सुलहें भी हैं। मनुष्यता का एक संयत स्वर निस्पृह बौद्धिकता के भीतरी यात्रा के साथ करुणा का जीवद्रव्य भी इन रचनाओं में मौजूद है। कुँवर नारायण के तीनों खंडकाव्य ‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’ और ‘कुमारजीव’ को देखें तो आप पाएँगे कि ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ के वे ख़ुद ही अपराजेय नचिकेता और पश्चाताप करता हुआ सुलह-समझौते वाला पिता वाजश्रवा और कुमारजीव का तटस्थ शिक्षक व पिता कुमारायण और रचनाकार के रूप में संवेदनशील और दुःख का अनंत भोगता रचनाकार कुमारजीव दोनों हैं। इन दो इकाइयों में कुँवर नारायण की सर्वाधिक मौलिक निर्मिति पिता-पुत्र द्वंद्व का रचाव है। दरअस्ल, यह वह द्वंद्व है, जहाँ कुँवर नारायण दो समयों को, दो पीढ़ियों को, दो युगों को, दो विचारों को, दो आधुनिकताओं को संबोधित कर रहे होते हैं। कुँवर नारायण का यह संबोधन बहुत हद तक आत्मिक और जैविक है। कुँवर नारायण के यहाँ यह दृष्टि भले ही आत्मसजगता के स्तर पर है और उनकी यह द्वंद्वात्मकता मार्क्सवादी नहीं है। किंतु आचार के दर्शन के आधार पर इस द्वंद्वात्मकता को समझे तो उत्तर मार्क्सवादी विद्वान् ग्राम्शी के विचारों तक आता ज़रूर है। “आचार का दर्शन बौद्धिक और नैतिक सुधार के संपूर्ण आंदोलन के चरम उत्कर्ष का प्रतीक है। यह जन-संस्कृति और अभिजन-संस्कृति के बीच में अंतर के संबंध में द्वंद्वात्मक बन जाता है।... यह एक दर्शन है जो राजनीति भी है और एक राजनीति भी है जो दर्शन भी है।”  इन रचनाओं से गुज़रते हुए आपके मानस को पहले से संबोधित कर रही मिथकों अथवा पौराणिक संदर्भों के सघन अरण्य के अंतस्तल में विचार और आधुनिकता का पक्षधर वे चिंताएँ मिलेंगी जो मनुष्यता के कठिन और अनुत्तरित प्रश्नाकुलता से पैदा हुआ है। यहाँ एक सुगठित और अकाट्य जीवन-विवेक की तलाश समझौते पर नहीं संवाद की आत्मीयता पर घटित होता है। कुँवर नारायण ‘वाजश्रवा के बहाने’ की भूमिका में लिखते हैं : “जीवन में संघर्ष भी हैं, पर संघर्ष-ही-संघर्ष नहीं हैं... उसमें मार्मिक समझौते और सुंदर सुलहें भी हैं। इस विवेक को प्रमुख रखकर भी जीवन को सोचा और चित्रित किया जा सकता है। संघर्ष और हिंसा अतिवाद में है न कि विभिन्नताओं में।” 
‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’ और ‘कुमारजीव’ की रचनात्मक बुनावट को लक्ष्य करें तो जहाँ ‘आत्मजयी’ जीवन को मृत्युमुखी देखने का, ‘वाजश्रवा के बहाने’ जीवन की ओर से मृत्यु को ओर देखने का यानी जीवनमुखी तो ‘कुमारजीव’ में जीवन को जीवन-संघर्षों के ‘उदात्त’ में देखने का उपक्रम है, किंतु मनुष्य की संपूर्ण साहसिकता के आवरण के साथ। यह साहस नैतिक भी है और आत्मिक भी। याद करें इनकी बहुचर्चित कविता :

कोई दुख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं
वही हारा जो लड़ा नहीं

लेकिन यह लड़ाई आपसी संघर्षों की लड़ाई नहीं है। यह दो व्यक्तियों का अपने अधिकारों का द्वंद्व नहीं है। जैसा कि उनकी कविता ‘सम्मेदीन की लड़ाई’ में है :

किसी ने कहा
‘लड़ो। ज़िंदगी हक़ की लड़ाई है।’
हथियार उठाया तो देखा
मेरे ख़िलाफ़ पहला आदमी मेरा भाई है।

कुँवर नारायण के यहाँ लड़ाई अदम्य साहस एवं औपनिषदिक साहस की लड़ाई है। जहाँ आत्मिक-विवेक जीवन-विवेक की तर्कों का उत्खनन करता है। एक बौद्धिक प्रश्नाकूलता स्व की तलाश कई समयों में करता है। यह मनुष्य की उस जैविकता को संबोधित है जिसके केंद्र में मनुष्य है और उसकी सर्वोच्च ईहाएँ मनुष्यता है। “जीवन का अपना सम्मोहन होता है जो मृत्यु के संत्रास के बावजूद हमें जीने की शक्ति देता है। ...जीवन के इसी प्रबल आकर्षण के स्पर्श की चेष्टा है। इस जिजीविषा के विभिन्न आयाम चाहे भौतिक हों या आत्मिक, चाहे दार्शनिक हों या भावनात्मक, तत्त्वतः वे हैं जैविक ही।” 

आत्मा के साहस की यह सनातन लय कुँवर नारायण की कृतियों का टेक है। ‘मानवता का उदात्त’, ‘आत्म की नैतिकता’, ‘संवाद की प्रश्नाकुलता’ और ‘संघर्ष की साहसिकता’ ये वे तंतु हैं जिनसे उनकी रचनाओं का ताना-बाना निर्मित होता है। भाषा, शिल्प और विचार में मनुष्य की निजता का अतिक्रमण किए बग़ैर सामाजिकता की स्थापना और अशिव के सभी आयामों का निषेध कविता की महत्ता को स्थापित करती है।

कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन-दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएँ हों
बर्बर महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं
...ईर्ष्या-द्वेष के बदरंग हादसे नहीं
निकट संबंधों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस
एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो
जीवन-विवेक। 

बीती शताब्दी और इस शताब्दी के बीस वर्ष बीतने के बाद हम देखते हैं कि हमारे विचारों, जीवन और मान्यताओं पर विज्ञान हावी होता चला गया है। आधुनिकता से लेकर उत्तर सत्य, तकनीक, विकास, प्रगति, संघर्ष, बहिर्मुखता यानी ऑब्जेक्टिविटी इत्यादि शब्द हमारे आत्मिक उन्नयन का हमारे भौतिकतातिरेक का स्थानापन्न बने हुए हैं। आज बाज़ार और पूँजी हमारे नियंता और नियंत्रक बन बैठे हैं। हम उसके प्रोडक्ट हो गए हैं और बहुत हद तक उनसे संचालित भी हो रहे हैं। जानकारियों के बाहुल्य ने हमारे सोचने के ढंग में एक व्यवस्था तो दी है। हम तार्किक भी हुए हैं। किंतु इस विकास-यात्रा में हमने बहुत कुछ खोया भी है। मनुष्य अपने विकास-क्रम के अतिरेक पर चला गया है और इस युग को मनुष्य के प्रभाव बाहुल्य में एंथ्रोपोसीन भी कहा जा रहा है। ज़रा ठहरकर सोचने पर पता चलता है कि हमने अपने जीवन को यांत्रिक बना डाला है। जीवन-विवेक की सवालों की जगह हमारे जीवन पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं। जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की हम बात करते हैं, वह तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ है। हमारी कोमलतम भावनाएँ, प्रेम, आस्था, अनुभूति इत्यादि ‘वस्तु’ में तब्दील हुई हैं। मनुष्यता का कोमलतम रागात्मक भाव तटस्थ हुआ है, जिसे कविता संरक्षित करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने निबंध ‘कविता क्या है?’ में कविता से सम्बंधित कुछ परिभाषाएँ देते हैं। “कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है।”, “कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है।” और “सृष्टि के नाना रूपों के साथ मनुष्य की भीतरी रागात्मिका प्रकृति का सामंजस्य ही कविता का लक्ष्य है। वह जिस प्रकार प्रेम, क्रोध, करुणा, घृणा आदि मनोवेगों या भावों पर सान चढ़ाकर उन्हें तीक्ष्ण करती है उसी प्रकार जगत के नाना रूपों और व्यापारों के साथ उनका उचित संबंध स्थापित करने का उद्योग करती है।” अर्थात् जिसे हम उन्नति समझ रहे हैं वह हमारी आत्मिक उन्नति की क़ीमत पर हुआ है। इससे कविता तो क्या मनुष्यता पर भी ख़तरे आसन्न हैं। कुँवर नारायण अपनी कविताओं में इस भौतिकतावादी उन्नति का प्रत्याख्यान रचते हैं और आत्मिक उन्नयन के पैरोकार बनते हैं। 

किसी महात्मा ने पूछा था एक बार
किसी ने—
“कितना समकालीन है तुम्हारा सत्य?
कितने आधुनिक हैं तुम्हारे हथियार?”
कितना तर्कसंगत है तुम्हारा सन्देश?
क्या तुम्हारे सिपाही
लड़ सकते हैं
एक महायुद्ध?”
कोई उत्तर न दे कर
महात्मा ने पूछा था उससे—
“कितना विकसित है तुम्हारा जीवन-विवेक?
कितना आधुनिक है तुम्हारा युद्ध?
कितने प्रबुद्ध हैं तुम्हारे सैनिक?
क्या वे लड़ सकते हैं
स्वयं से
एक आत्मिक न्याय-युद्ध?” 

हमने अपनी इस विकास-यात्रा में यथार्थ की विकृतियों का ऐसा रहस्यलोक निर्मित किया है जो एक क़िस्म का अति-यथार्थ है। जिन्होंने जीवन-विवेक के लिए एक अनुशासन और नैतिकता की माँग की वह या तो उपेक्षित है अथवा उसे मार डाला गया। गांधी की वैचारिक यात्रा में अहिंसा, सत्याग्रह, ईश्वर, चरित्र जैसे आदर्शों का हमने क्या किया? आज गांधी एक मात्र प्रतीक हैं। जो तब हत्या था आज वध में तब्दील हो गया है और राजनीति ने गांधी को प्रतीक में तब्दील कर दिया है। गांधी की राजनीति का सबसे प्रबल और दूरदेशी प्रत्यय आत्मबल और नैतिकता था। उस सवाल की हत्या हमने की। 

“मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा!
चीख़ पड़ा था एक अधीरज,
और बिना महात्मा का मतलब समझे
उसने एक महा-आत्मा की हत्या कर दी
हत्या के सब से विकसित 
हथियार से!” 

आज अगर भारतीय राजनीति बिल्कुल भ्रष्ट और चरित्र-निरपेक्ष दिखाई दे रही है तो उसके पीछे संपत्ति है, पूँजी है। हम लगातर अपनी मनुष्यता की भौतिक संपदा से दूरी बनाते गए हैं। हमारे आत्मबल को हटाकर हमारी महत्त्वाकांक्षा जगह लेती गई है। हमने अपनी पहचान, अस्मिता, स्थानिकता इत्यादि को वैश्वीकरण से जोड़ दिया है। सत्ता में बने रहने की महद्-आकांक्षा ने शासकों को निष्ठुर बनाया है और जनता को बेबस। हमने एक अनुशासनहीन और जन-विरोधी सरकार को जन्म दिया है।

अति महत्त्वाकांक्षी और निष्ठुर शासक की प्रजा
कभी सुखी नहीं हो सकती
लोगों को भुलावे में रखना
उनके साथ विश्वासघात है
आक्रामकता का मनोविज्ञान कहीं
हिंसक प्रवृत्तियों को उकसाता है। 
सदाचार और सद्विचारों की
एक महिमा होती है
जिससे उत्प्रेरित मानव-मूल्यों से भी
अनुशासित हो सकता है
एक राज्य और समाज। 

कुँवर नारायण अपने आशयों में मनुष्यजनित मानव मूल्यों को बचाने में सबसे अग्रणी साहित्यकार हैं। जिनकी चिंताएँ भौतिक कम आध्यात्मिक अधिक है। यह आध्यात्मिकता धर्मध्वजी नहीं है। वे धर्म-भीरु भी नहीं हैं जिससे आज की राजनीति संचालित हो रही है, बल्कि कुँवर नारायण की आध्यात्मिकता मनुष्य में निहित मनुष्यता के मूल्यों को संबोधित है। उनके यहाँ आध्यात्मिकता के आवरण में लिपटे अपनी संस्कृति को ही सर्वोच्च मानने की नहीं है, बल्कि वह स्वीकार्य-भाव है कि हमारी एक अपनी विशिष्ट संस्कृति है और हम उन मूल्यों को लेकर चलें तो मनुष्यता को एक बृहद-आकाश दिया जा सकता है। जिसका उल्लेख एडवर्ड सईद ने अपनी पुस्तक कल्चर एंड एम्पीरियलिज्म के अंतिम पैरा में किया है : “कोई भी आज केवल एक ही चीज़ नहीं बचा है। जैसे भारतीय, या स्त्री, या मुस्लिम, या अमरीकी जैसे ठप्पों से शुरू तो कर सकते हैं, लेकिन आगे बढ़ते ही हमारे अनुभव उन्हें एकदम ख़ारिज कर देते हैं। साम्राज्यवाद ने संस्कृतियों और पहचानों को एक-दूसरे में घोल दिया। लेकिन इसका सबसे बड़ा और बुरा विरोधाभास यह था कि हम अपने को मुख्यतः और सर्वप्रथम गोरे, या काले, या पश्चिमी या पूर्वी मानकर सोचने लगे। दरअस्ल, जैसे आदमी अपना इतिहास बनाता है, उसी तरह अपनी संस्कृतियों और पहचानों को भी। इसमें संदेह नहीं कि लंबी परंपराओं, रहन-सहन के स्थायी तौर-तरीक़ों, राष्ट्र-भाषाओँ और सांस्कृतिक भूगोलों की अटूट धाराएँ होती हैं; लेकिन इसमें सिवाय शक और संदेह के दूसरा कोई कारण नहीं दिखता कि उन्हें एक-दूसरे से अलग और विशिष्ट मानकर इस तरह बरता जाए मानो मनुष्य के जीवन का इससे बड़ा कोई उदेश्य ही न हो। जीवन का अर्थ है चीज़ों के बीच संबंध परिलक्षित कर सकना : जैसा एलियट ने कहा है, ‘‘यथार्थ को हम उन तमाम ध्वनियों से ख़ाली तो नहीं कर दे सकते जो पूरे बाग़ में रची-बसी है।’’ दूसरों को जन ग़ैर मानकर नहीं, अपनी ही तरह मानकर सोचते हैं, जो मुश्किल ज़रूर है, तो वह हमें समृद्ध करता है। बशर्ते कि इसके पीछे भी हमारी मंशा कहीं भी दूसरों पर शासन करने या धाक जमाने या वर्गभेद या रंगभेद आदि पैदा करने की न हो, और सबसे बढकर तो यह शेखी बघारना जरूरी नहीं कि हमारा देश हमारी संस्कृति ही सबसे बढ़कर है।”

कुँवर नारायण की कविता है, ‘अबकी अगर लौटा तो’ इस कविता में कुँवर जी जिस बृहद मनुष्य और कृतज्ञ मनुष्य को स्थापित कर रहे होते हैं, वह समन्वय और सह-अस्तित्व की विराट चेतना का रूपाकार ही तो है—

अबकी अगर लौटा तो 
बृहत्तर लौटूँगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बाँधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से
अबकी अगर लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
घर से निकलते
सड़कों पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेवजह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं 
अगर बचा रहा तो 
कृतज्ञतर लौटूँगा
अबकी बार लौटा तो 
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूँगा

यहाँ कुँवर नारायण जिस पूर्णता की बात कर रहे हैं, दरअस्ल यह मनुष्यता के ‘अंतःकरण के आयतन’ के विस्तार के लिए बेहद आवश्यक है। इस कविता की व्याख्या करते हुए आलोचक कृष्णमोहन ‘भूखी शेर आँखों’, ‘जगह-बेवजह कुचला पड़ा पिद्दी-सा जानवर’ को कविता की उदात्तता के लिए बाधक मानते हैं और यह दृश्य उन्हें ‘शहरीकरण और यांत्रिकता की अंधी दौड़ की चपेट में आकर लुप्त होते जीव-जंतुओं के प्रति कवि की निष्करुणा और मृत पड़े जीव की निरुपायता कवि के मन में वितृष्णा जगाने वाली प्रतीत होती है।’ किंतु इसी कविता की अंतिम पंक्ति पर उनका ध्यान नहीं जाता। दरअस्ल, कुँवर नारायण इस कविता में जिस मनुष्य के लौटने की बात करते हैं और जिस मनुष्य को कृष्णमोहन अपनी आलोचना में उद्धृत कर रहे है, वह दो अलग-अलग मनुष्य-स्थितियाँ हैं। जिस ओर कृष्णमोहन संकेत कर रहे हैं वह पहला मनुष्य है, जिसके लिए भूखी आँखों वाले शेर के द्वारा आहार करना भी पहले मनुष्य के लिए क्रूरता है और हताहत जीव के प्रति भी उसके मन में करुणा नहीं है। किंतु कुँवर नारायण जिस मनुष्य की वापसी की बात कर रहे हैं, वह अधिक मनुष्य है। क्योंकि उसके लौटने में पुनरागमन का वही भाव है जो कुँवर नारायण की कृति वाजश्रवा के बहाने में नचिकेता के जाने के बाद वाजश्रवा के पश्चाताप में है। इस कविता में भी देखें तो यह लौटना किसका है? कौन लौट रहा है? और किन स्थितियों में लौट रहा है? कुँवर नारायण बहुत स्पष्टता से कहते हैं, अबकी बार लौटा तो हताहत नहीं सबके हिताहित को सोचता पूर्णतर लौटूँगा। ग़ालिब के शब्दों में ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना’ की तर्ज़ पर कुँवर नारायण के यहाँ यह लौटना अधिक मनुष्यत्व की ओर लौटना है। असल में कुँवर नारायण के यहाँ यह लौटना अपूर्णता से पूर्णता की यात्रा है। यांत्रिकता (भौतिकता) से आध्यात्मिकता (धार्मिक अर्थों में नहीं) की ओर लौटना है। यह ‘लौटना’ एक अमूल्य अवसर है। अपनी भूलों को सुधारने का। पछतावा, पुनरागमन जैसे शब्द वाजश्रवा के बहाने में है, किंतु लौटना शब्द का दुहराव भी यही भाव यहाँ व्यंजित कर रहा है। यहाँ आशा-निराशा के बीच कोई द्वंद्व नहीं बल्कि अपनी पूर्णता के प्रति एक आत्मिक आत्म-विश्वास है। संवाद का एक अवसर है।

तुमसे फिर मिलना
एक नया अवसर है
कि जारी रहे वह संवाद
जो बीच ही में छूट गया था अधूरा 

कुँवर नारायण ‘कई समयों’ के रचनाकार हैं। इतिहास और मिथक के अंतस्तल में गोते लगते हुए अपने समकालीन यथार्थ को भी अपना सहचर बनाए रखने से उनकी कविताएँ कालातीत बन जाती हैं। इन कविताओं की चिंता में अंततः और प्रथमतः जो समस्याएँ संबोधित हुई हैं, वे मनुष्य एवं मनुष्यता की चिंता में संलग्न हैं। सहजता, कवित्व, भावनाएँ और बौद्धिकता कुँवर नारायण की रचनाशीलता के केंद्र में है। मनुष्य की विभिन्न क्षमताओं की तलाश और उन्हें परिष्कृत करने की ज़िद असहमति को अवसर और सहिष्णुता को आचरण देती कुँवर नारायण की कविता पूर्णता की तलाश की कविता है।

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