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मेरे लिए इक तकलीफ़ हूँ मैं

मेरे लिए इक तकलीफ़ हूँ मैं

आदित्य शुक्ल 12 सितम्बर 2023

पिछले कुछ महीनों से उसने अपने बाल बढ़ा लिए थे, माथे पर जूड़ा बाँधने लगा था और ख़ुद को ख़ुद ही उष्णीष कहने लगा था। पिछले कुछ समय से वह बीमार हो चला है। उसके चेहरे का हिस्सा ठीक से काम नहीं कर रहा। उसकी एक आँख झपकती ही नहीं। चेहरा अजीब विद्रूप दीखता है। कंप्यूटर के सामने बैठा वह मेज़ पर रखे बुद्ध की छोटी-सी पिंगल प्रतिमा को निर्निमेष देखता। तनाव, दुःख और क्षोभ उस पर हावी हो रहे हैं। उसने कंप्यूटर की ब्लैक स्क्रीन में अपना चेहरा देखा। फिर अजीब-अजीब तरह की भंगिमा बनाकर ख़ुद को निहारता रहा। फ़ोन की घंटी बजी।

उसने बुद्ध की मूर्ति उठाई और उसे उलट-पलट कर देखने लगा। अचानक से उसकी आँखों के सामने उसके पिता का चेहरा चमक गया। जब पिछली बार वह घर गया था उसकी पिता से कहा-सुनी हो गई थी। आज यह सब सोचकर वह शर्मसार है। आज उसके पिता मृत्युशैय्या पर हैं। अभी-अभी उसके फ़ोन के कॉल लॉग में जो आख़िरी कॉल है, वह इसी सूचना के बाबत थी। और वह उसे रह-रह कर ऐसी नज़र से घूर रहा था, मानो जीवन से सहम गया हो। उसे आज न जाने क्या-क्या याद आ रहा है। बुद्ध की यह मूर्ति उसे उसकी पूर्व प्रेमिका ने लाकर दी थी और कहा था कि इस मूर्ति की उश्निषा इतनी नुकीली है कि इससे किसी की हत्या भी की जा सकती है और यह कहकर वह ठहाके लगाकर हँसने लगी थी। क्या बुद्ध की इस मूर्ति से किसी को कोई नुकसान पहुँचाया जा सकता है? हाँ, लेकिन निश्चय ही सिर्फ़ एक मामूली नुकसान। लेकिन क्या बुद्ध इस बात की इजाज़त देंगे? उसने सोचा और मूर्ति को अपने बैग में डालकर कुर्सी से उठ गया।

बाहर भारी बारिश हो रही है। अँधेरा होने को है। बिजली और बारिश के शोर को चीरता हुआ एक हवाई जहाज़ अभी-अभी गुज़रा है। शोर के बाद का गहरा सन्नाटा आसमान में पसर गया है। अब तक तो शहर में हर जगह ट्रैफ़िक जाम लग गया होगा। वह कैब में बैठा और उसके कानों में न जाने कब की सुनी हुई एक बात गूँजने लगी—‘‘इस मकान को तो पचास साल से भी अधिक हो गए। बारिश में कभी भी पच्छिम की दीवाल टूटकर ढह सकती है। इस रस्ते होकर बिल्ली, कुत्ते, बकरियाँ और साँप घर में आएँगे, बर्तन जूठा करेंगे।’’ उसे अपना पुश्तैनी घर अपनी आँखों के सामने दिखाई देने लगा। सब कुछ क्षत-विक्षत है।

ऑफ़िस से घर आकर उसने भारी मन से अपने कमरे का दरवाज़ा खोला। अंदर दाख़िल होते ही जैसे अँधेरे के विशाल समुद्र में डूब गया। दीवारें टटोलकर सारे स्विच ऑन कर दिए, लेकिन कमरे का अँधेरा जस का तस रहा। बरसाती मौसम था। दुपहर में थोड़ी बारिश हुई थी, इसलिए बिजली गुल थी और अगर गुल थी तो उसके आने का कोई ठिकाना न था। बिजली कई दिन से नहीं थी। घुप्प अँधेरे में अपने बिस्तर पर लेटकर वह अक्सर यह अभ्यास करता है—आँखें बंद करके। आँखें बंद करके वह असीम ब्रह्मांड में खो जाता है। उसके ऊपर कोई गुरुत्व बल प्रभावी नहीं होता और वह भारहीन हो जाता। ऐसे में वह उड़ सकने का अभ्यास भी कर सकता है, बशर्ते अँधेरे में उसके पर न उग आएँ। कहीं से अगर रोशनी का कोई टुकड़ा उसके उस अंधकार में पहुँच जाए तो उसकी भूमिका असीम ब्रह्मांड के किसी सितारे जैसी होती है। वे सितारे जो अपनी रोशनी के लिए किसी अन्य स्रोत पर निर्भर हैं। पर क्या किसी भी तारे का अपना कोई प्रकाश होता भी है?

उसके कमरे में रखी प्रत्येक वस्तु ब्रह्मांड के ग्रहों, उपग्रहों, गैलेक्सियों की मानिंद है। वैसे तो बेडरूम में ज़्यादा कुछ है नहीं, एक दीवान, एक आलमारी, पानी का एक गैलन, एक मेज़, मेज़ पर कुछ किताबें, एक नोटपैड, एक लैपटॉप, एक पेपरवेट; और हाँ कमरे में दो दरवाज़े हैं—एक बाहर की ओर और एक अंदर की ओर।

उसकी मेज़ पर रखी हुई बुद्ध की प्रतिमा एक पेपरवेट और कुछ किताबें और मेज़ सबके सब निर्जीव अपनी-अपनी जड़ स्थिति में उसके इस दुर्भाग्य के मूक साक्षी हैं। बुद्ध की प्रतिमा अपनी करुणावस्था में उसे उस सन्न कर देने वाले अँधेरे में निहार रही है। मानो अपनी प्रतिमा के माध्यम से बुद्ध कुछ कहना चाह रहे हों…

वैसे तो उसकी तनख़्वाह अच्छी है, लेकिन आज महीने की बीस तारीख़ को उसकी जेब में गिनती के तीन हज़ार अट्ठासी रुपए पड़े हैं। अगर उसके सामने यह आपात स्थिति न होती तो इतने में उसका महीना आराम से कट जाता। आख़िर इस शहर में यही तो जीवन है। तनख़्वाह का आना, बिल और लोन में खप जाना और बाक़ी महीना क्रेडिट कार्ड पर गुज़रना। यहाँ से उसे अपने क़स्बे जाने में बीस घंटे लगते हैं। उसके घर में कुल जमा बारह लोग हैं। उसके पिता जब पहली बार बीमार पड़े थे तो उसे किसी ने कुछ बताया नहीं। फिर धीरे-धीरे करके उनकी तबीयत बिगड़ती गई और अब डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया है।

अब सब उसकी मूक प्रतीक्षा में बैठे हैं। उनकी निगाहों में एक कुटिलता भरी है, ठीक वैसी ही जैसी शतरंज के चाल में अपने प्रतिद्वंद्वी को चेकमेट करने के बाद खिलाड़ी देखता है। हम अपने लोगों पर मूक अत्याचार करते रहते हैं और वे सहते रहते हैं, पर समय आने पर वे हमारी चालों पर हँसते ज़रूर हैं। समय आने पर वे उन अत्याचारों का बदला ज़रूर चुकाते हैं, लेकिन वे यह नहीं चाहते कि उनके हिस्से का यह बदला कोई और चुका जाए। उसे इन सबसे चिढ़ होती और फिर इन सबसे चिढ़ होने का अपराध-बोध होता।

राघवन भारी मन से बिस्तर से उठता है। कमरे का अँधेरा उसके तन-मन में समा गया है। उठकर वह बाथरूम जाता है। देर तक कमोड पर बैठे-बैठे, मानो वह ख़ुद को भूल गया और जीवन-मृत्यु के सवालों में उलझ गया; जैसे कमोड न हो—चिंतन के लिए बोधि-वृक्ष हो! मृत्यु यूँ तो सबके लिए ही अवश्यम्भावी है, जो हमेशा ही मृत व्यक्ति के पक्ष में होता है; लेकिन उनके प्रियजनों के पक्ष में नहीं… ख़ासकर तब जब मृत आदमी अपने परिवार में किसी ज़िम्मेदार स्थिति में रहा हो। एक भारतीय मृत्यु, एक यूरोपियन या अमेरिकन मृत्यु से एकदम अलग है। यहाँ परिवार ही समाज की मूलभूत इकाई रही है, लेकिन उदारीकरण और तकनीक के विस्फोट के बाद से यह सभ्यता ऐसी तमाम छोटी-छोटी इकाइयों में टूट गई कि इस समाज की मूल संरचना ही भरभराकर ढह गई। वह रॉबर्ट ब्रेसां की फ़िल्म ‘पिकपॉकेट’ के दृश्यों के बारे में सोचने लगा। मिशेल—जो कि दोस्तोयेवस्की के रस्कोलनिकोव की तरह स्वघोषित बुद्धिजीवी है और अपने मुफ़लिसी के दिनों में जेबकतरा बन जाता है। उसकी माँ बीमार है और वह अपने अपराध की शर्म से इतना दबा हुआ है कि उसका सामना करने से बचता है। हालाँकि वह अपनी माँ की आर्थिक मदद भी करता है, पर उसका सामना नहीं करता… उसकी बीमारी के दिनों में भी उससे मिलने तक नहीं जाता, जबकि उसे इस बात का पक्का विश्वास होता है कि उसकी माँ उसकी अनैतिक गतिविधियों से वाक़िफ़ नहीं है और वह उसे अक्सर उसके दोस्त के माध्यम से उसकी तारीफ़ों के शब्द भी भेजती रहती थी… लेकिन जब उसकी मृत्यु हो जाती है और वह आख़िरकार अपनी माँ को देखने जाता है तो उसकी माँ के साथ आख़िरी दिनों में रहने वाली उसकी पड़ोसन से उसे इस बात का पता चलता है कि उसकी माँ उसके चोर होने के तथ्य से परिचित थी और उसके कई बार जेल जा चुकने के बारे में भी जानती थी… यह सब याद करके वह भय से काँप गया…

अगर अबकी उसके पिता की मृत्यु हो गई तो! क्या वह भी मिशेल के तरह का एक अपराधी है? बहुत देर तक वह इसी सवाल के घेरे में भटकता रहा और बुरी तरह उदास हो गया। वह अपने पिता की जगह ख़ुद मृत्युशैया पर होने की कामना करने लगा। आख़िर इस समय उसके पिता क्या सोच रहे होंगे? उनकी आँखों के सामने उनका पूरा का पूरा जीवन दिख रहा होगा… शायद वह पीड़ा या मुक्ति के बारे में सोच रहे होंगे! कुछ शोध ऐसा बताते हैं कि मनुष्य की देह मरने के बाद भी बहुत देर तक चीज़ों को अनुभव करती है। ऐसे वक़्त में आदमी क्या सोचता होगा? क्या उसे किसी तरह का प्रायश्चित होता होगा या अपनों से बिछड़ जाने की पीड़ा! यदि अभी उसके पिता की मृत्यु हो गई तो वह कैसी प्रतिक्रिया देगा? क्या वह फूट-फूटकर रोएगा या किसी निर्जीव पदार्थ की तरह प्रतिक्रियाहीन रहेगा? क्या उसके पिता असह्य शारीरिक पीड़ा से गुज़र रहे हैं? वे अस्पताल की बेड पर लेटे-लेटे उसके बारे में क्या सोच रहे हैं? क्या उन्होंने उसे माफ़ कर दिया है या उनके मन में और भी कड़वाहट भर गई है? उसके पिता का जीवन बहुत कठिन रहा और वे कई बार घर छोडकर चले जाने या आत्महत्या करने की धमकियाँ देते रहते थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके पिता ने ख़ुद को मृत्युदंड पाए अपराधी की तरह पाया हो!? और आज वह ख़ुद ऐसा क्यों महसूस करने लगा है? क्या वह अपने पिता जैसा बनता जा रहा है? क्या जीवन एक भारी बोझ की तरह उस पर भी ढहने की पूरी तैयारी में है? और उसकी आँखों के सामने उसकी पिता की लाश का एक दृश्य तैर गया। वह तड़प गया। उसकी आँखें लाल हो गईं। उसे चक्कर आने लगे और फिर उबकाई आने लगी। उसने तेज़ी से अपने सिर को झटका और चीख़ने की कोशिश की, पर उसके मुँह से कोई आवाज़ न निकली।

इस सबसे उबरने के कुछ देर बाद वह कमोड से उठकर एक गहरी उदास नज़र से कमोड में झाँकने लगा। खिड़की से आ रही हल्की दूधिया रौशनी और पर्दे पर हल्के उजाले की एक चादर लटक गई है। कमोड में लैट्रिन के दो तीन बेलनाकार पीले-पीले टुकड़े पड़े हैं। उसने फ़्लश कर दिया और कमोड के बाउल में पानी की गति को निहारने लगा। लैट्रिन के टुकड़े मछली की तरह देर तक कमोड में तैरते रहे, लेकिन अंदर नहीं गए। उसने फिर से फ़्लश किया और बाउल में पानी थोड़ी देर तक भँवर बनकर घूमता रहा। जब पानी का भँवर शांत हुआ तो उसने देखा कि टुकड़े अभी भी ऊपर ही थे। उसे बहुत तेज झुँझलाहट हुई और उसने एक बार फिर से फ़्लश कर दिया और पानी पिछली बार की ही तरह भँवर बनकर ख़त्म हो गया, लेकिन लैट्रिन के टुकड़े बाउल में जस के तस रहे। उसने अपना माथा पकड़ लिया और अपने आपको निहायत ही असहाय महसूस करने लगा। थोड़ी देर में उसने फिर से फ़्लश किया और इस बार वे टुकड़े पानी के भँवर के साथ न जाने किस शून्य में गुम हो गए।

उसे बचपन के वे दिन याद आए जब वह गाँव में रहता है। शाम होते ही एक घुप्प अँधेरा छा जाता। दूर-दूर तक पसरा अँधेरे का महासागर। कहीं दूर कोई टिमटिमाती हुई रोशनी एक बिंदु की तरह बीच-बीच में दिख जाती। उन दिनों में बिजली एक दुर्लभ ही चीज़ थी। उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन भी नहीं होते थे। न ही नियमित केरोसीन का तेल मिलता था। उसके उतने बड़े घर के अँधेरे में अगर कहीं हमेशा रोशनी होती तो सिर्फ़ रसोई में। खाना बनने के बाद रसोई की लालटेन लेकर उस कमरे में ले जाया जाता, जहाँ कोई खाने वाला हो। लोग बारी-बारी से खाते थे और लालटेन बारी-बारी से एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जाया जाता। तब उस घुप्प अँधेरे में उसे न ही डर लगता और न ही झुँझलाहट होती। तब जीवन उस अँधेरे का अभिन्न हिस्सा था। शाम होते ही भीतर और बाहर का अँधेरा एक हो जाते। अब रात में सोने के लिए किए गए अँधेरे में तो वह बेफ़िक्र रहता है, लेकिन बाक़ी समय अगर अँधेरा हो तो उसके लिए एक-एक पल बिता पाना मुश्किल हो जाता था। गाँव में तो अब भी वैसा ही ठंडा अँधेरा होता है। इसलिए वह गाँव जाने से बचता है। गाँव में सात बड़े-बड़े कमरे। सातों शाम ढलते ही एक अनंत अँधेरे से भर जाते हैं, जैसे घर के पूरे स्पेस को अँधेरे में डुबो दिया गया हो। उसी अँधेरे में लोग डूबते-उतराते हों।

हाथ-मुँह धुलकर जब उसने बाथरूम का दरवाज़ा खोलने की कोशिश की तो दरवाज़ा खुला नहीं। बरसात के मौसम में दरवाज़े की कुंडियाँ जाम हो जाती हैं, हालाँकि कुछ ज़ोर लगाने पर खुल जातीं—ऊपर से लगभग अँधेरा, बस चाँदनी रात का हल्का-सा उजाला कमरे में पहुँच रहा है, लेकिन वह भी दरवाज़े के पास नहीं। उसके पास उजाला करने का कोई दूसरा तरीक़ा भी नहीं। वह जानता है कि दरवाज़ा ऐसे नहीं खुलेगा। वह निराश होकर वहीं फ़र्श पर बैठ गया। उसे बहुत ज़ोर से रोना आया, लेकिन वह चाहकर भी नहीं रो पाया। जैसे रोना गले से बाहर ही न निकल रहा हो। इतनी बड़ी त्रासदी सिर पर होने के बावजूद वह एक क़तरा भर भी नहीं रोया है। कुछ देर बाद उठकर उसने दरवाज़ा खोलने की फिर से कोशिश की। सिटकनी तो उसके हाथ में आ जाती और यह भी समझ आ गया उसे कि सिटकनी खुल गई है, लेकिन हैंडिल क़ब्ज़े में अटका हुआ है, न दिख पाने और मनभारी होने की वजह से वह हैंडिल पर ज़्यादा ज़ोर भी नहीं लगा पा रहा। वह अंदर ही अंदर छटपटा रहा है। अँधेरा और अवसाद उस पर हावी होता जा रहा है। वह एक आख़िरी बार दरवाज़ा अपनी ओर खींचकर बहुत ज़ोर से चीख़ पड़ा।

आआआआआआ… और वह ज़मीन पर गिर गया। गिरते ही उठने के बजाय वह बेसिन के नीचे रेंगकर बैठ गया और सुबकने लगा या सुबकने की असफल कोशिश करने लगा। लगभग ख़ामोश आवाज़ में वह अपनी प्रेमिका का नाम पुकारने लगा… फिर जैसे कुछ सोचकर माँ-माँ बुदबुदाने लगा और आँसू के कुछ क़तरे उसके गालों पर लुढ़क गए। उसका पैर बेसिन के नीचे रखे शू-रैक पर तेज़ी से लगा और रैक भड़ाम से नीचे गिर गया। रैक का दरवाज़ा खुल गया और कुछ जूते-चप्पल उसके आस-पास बिखर गए। वह अँधेरे में उन जूतों-चप्पलों को घूरता रहा जैसे बिना रौशनी के भी उन्हें बख़ूबी देख-पहचान पा रहा हो।

तभी अंदर का दरवाज़ा खोलकर कोई कमरे में दाख़िल हुआ :
—‘‘क्या हुआ रग्घू?’’ आवाज़ आई।

बाहर से धकेलने पर दरवाज़ा खुल गया। टॉर्च की रौशनी का एक गोल टुकड़ा ज़मीन पर पड़ रहा था।

राघवन आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया और मेज़ पर सिर टिका लिया। उसके कानों में उसकी माँ की आवाज़ गूँजने लगी : देखो, आना चाहो तो आ जाओ, नहीं तो कोई बात नहीं। ख़राब हालत में अगर एक बार देख लोगे तो अच्छा ही रहेगा। क्या पता कब क्या हो जाए? समय और भाग्य अजीब चालें चलते हैं। अभी तो बाउजी एक महीना पहले एकदम स्वस्थ थे। अब क्या पता कब क्या हो जाए…

उसे अँधेरे में अपने चारों ओर यही लिखा हुआ दिखने लगा। जैसे वह इन शब्दों की किसी अंतहीन नदी में तैरने लगा हो।

उसका दिमाग़ भटकता हुआ गाँव पहुँच गया। पिता की सब्ज़ी की क्यारी याद आई। फूलों की क्यारी याद आई। उसे याद आया कैसे बचपन पिता और चचेरे भाइयों के साथ मिलकर वह उन क्यारियों में पानी सींचा करता था। कैसे वह सुख के और समृद्धि के दिन थे, भले ही पैसों की अक्सर तंगी रहती रही हो। उन्हीं क्यारियों के पास किसी रोज़ गिरकर उसके पिता मृत्युशैय्या पर पड़ गए—जैसे अब एक पूरे युग की समाप्ति हो गई हो। उसे हर ओर से तरह-तरह की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। उसने किसी को कहते सुना, जब मैं यहाँ आया था तो एक एम्बुलेंस खड़ी थी, लेकिन अब एम्बुलेंस की जगह कुछ विलापकर्ता स्त्रियों ने ले ली है। कोई और कह रहा था——‘‘इस मकान को तो पचास साल से भी अधिक हो गए। बारिश में कभी भी पच्छिम की दीवाल टूटकर ढह सकती है। इस रस्ते होकर बिल्ली, कुत्ते, बकरियाँ और साँप घर में आएँगे, बर्तन जूठा करेंगे।’’

उसने आँखें मूँद लीं। पिताजी का निर्दोष चेहरा आँखों के सामने दिखने लगा। उसे किसी की एक इन्स्टाग्राम पोस्ट याद आई, जिसमें एक लड़के का धड़ पेंट किया हुआ था और उसके चेहरे में से फूल निकल रहे थे—हल्के गुलाबी रंग के फूल, गाढ़े हरे रंग के पत्ते और लतरती लताएँ। वह दृश्य कितना मार्मिक था! जैसे उस पेंटिंग का वह युवक वह ख़ुद ही हो!

राघवन ने मेज़ पर रखी बुद्ध की प्रतिमा उठाई। हाथ में लिए बहुत देर तक निर्निमेष अँधेरे को झाँकता रहा। उसे न जाने क्यों ऐसा लगने लगा कि जैसे अगर अभी उसकी देह को चीर दिया जाए तो उसमें से ख़ून की बजाय अँधेरे का द्रव बहने लगेगा। यह सोचकर उसे हँसी आ गई। धीरे-धीरे उसकी हँसी ठहाके में बदल गई।

…ठहाके के बीच अचानक से वह रुककर मूर्ति की उश्निषा अपनी देह में जगह-जगह निर्ममता से चुभो दिया।

फिर उसने सोचा कि अच्छा ही है कि अँधेरा है। अँधेरे में सब कुछ छिप जाता है। अँधेरे में सब कुछ आकारहीन और रंगहीन होता है। अब तक रात का एक और पहर बीत चुका था। अब अँधेरा हर ओर झींगुर बनकर बजने लगा है। उसके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर रही थी और वह फुसफुसाने लगा—नहीं, बाउजी की अभी मृत्यु नहीं हो सकती। अगर बाउजी हमें अभी छोडकर चले गए तो यह उनकी हत्या होगी और मैं होऊँगा उनका हत्यारा!

अचानक से बाहर कॉलोनी में कुछ शोर-सा होने लगा था।

उसने उदास नजरों से अपने बिस्तर की ओर देखा। उसके बिस्तर पर बाउजी एक हल्की मुस्कान लिए लेटे थे और उसे एकटक देखे जा रहे थे और उनके सिर से एक फूल की एक लता निकलकर तकिए पर पसर गई थी।

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