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एक लेखक को किन चीज़ों से बचना चाहिए?

एक लेखक को किन चीज़ों से बचना चाहिए?

एक लेखक को इन चीज़ों से बचना चाहिए :

• सूक्तियों से—सूक्तियाँ बहुत चमकीली होती हैं, लेकिन वे अक्सर अर्द्धसत्यों से बनती हैं; उनके पीछे इच्छा ज़्यादा होती है, अनुभव कम।

• सामान्यीकरणों से—सामान्यीकरण पत्रकारिता या समाजशास्त्र के लिए भले उपयोगी हों, लेखन में काम नहीं आते। लेखक का काम ही सामान्यीकरणों से मिले आसान नतीजों के पार जाकर यथार्थ की शिनाख़्त करना होता है।

• भावुकता से—निस्संदेह भावुकता कई बार काव्यात्मक लगती है, लेकिन अंततः वह एकांगी होती है। लेखक को संवेदनशील होना चाहिए भावुक नहीं।

• सुंदर भाषा के मोह से—भाषा सुंदर-असुंदर नहीं होती, सहज या कृत्रिम होती है। सुंदर या आकर्षक भाषा ऐसी चमकीली पन्नी का काम करती है जो किसी चीज़ को निष्प्राण, गंधहीन और गतिहीन अवस्था में सँभाले रखे। भाषा लेखन की अंतर्वस्तु से निकलती है, बल्कि उसी का हिस्सा होती है; उसे आरोपित नहीं होना चाहिए। विषय से निकली भाषा अपने आप सुंदर हो जाती है।

• स्थूल यथार्थ से—यथार्थ लेखक का कच्चा माल होता है। यथार्थ के बिना रचना संभव नहीं। लेकिन लेखक को समझना होता है कि यथार्थ वह‌‌ नहीं होता जो ऊपर से नज़र आता है। वह उसका स्थूल रूप होता है जो कई बार पूरे यथार्थ का अतिक्रमण कर लेता है। बहुत सारे लेखक इस स्थूल यथार्थ की गिरफ़्त में आकर वास्तविक रचना खो देते हैं।

• वायवीय सूक्ष्मता से—स्थूल यथार्थ का आग्रह अगर रचना का एक शत्रु है तो वायवीय सूक्ष्मता का आकर्षण दूसरा। रचना कुछ नहीं है, अगर उसमें सूक्ष्मता नहीं है; लेकिन सूक्ष्मता के नाम पर हमें कई बार ऐसी अमूर्त अभिव्यक्तियाँ मिलती हैं जिनके अर्थ खो गए लगते हैं। कविता में तो फिर भी एक हद तक इसे क्षम्य माना जा सकता है, मगर गद्य में क़तई नहीं।

• पूर्वग्रहों से—जीवन और समाज के बहुत सारे पूर्वग्रह हमारे चेतन-अवचेतन में गहरे धँसे होते हैं। कुछ स्पष्ट पूर्वग्रहों की हम फिर भी शिनाख़्त कर लेते हैं, लेकिन कई धारणाएँ बहुत चुपचाप हमारे भीतर छुपी होती हैं। लेखक का काम ऐसी हर धारणा को अपने समय और सच की कसौटी पर कसना होता है।

• ‘क्लीशे’ से—क्लीशे यानी वे बार-बार दोहराई जाने वाली अभिव्यक्तियाँ जो अपना अर्थ खो चुकी हैं। ‘क्लीशे’ लेखक को किसी जटिल स्थिति से निकलने का सुगम रास्ता दे देते हैं, लेकिन वे रचना की अपनी गहनता को नष्ट कर देते हैं।

• न समझे जाने के डर से—एक लेखक पर यह दबाव बहुत बड़ा होता है कि उसका लिखा ठीक उसी तरह समझा जाए जिस तरह वह लिख रहा है। आसान ज़ुबान में लिखने की सलाह इसी से निकलती है। लेकिन लेखक को कई बार वह भी कहना होता है जिसे समझने के लिए कोशिश करनी पड़े, संवेदना और विचार के नए इलाक़ों में जाना पड़े। ऐसा कुछ कह सकने के लिए लेखक को इस डर से मुक्त होना होगा कि पता नहीं उसका लिखा समझा जाएगा या नहीं।

• दूसरों की राय से—हर किसी के पास एक राय होती है, जैसे एक नाक होती है या एक दिल होता है या दिमाग़ होता है। लोग राय देने को तत्पर होते हैं। कई बार ऐसी राय उपयोगी भी हो सकती है, लेकिन अंततः लेखक को ऐसी राय के दबाव में कभी नहीं आना चाहिए। इससे उसकी मौलिकता भी प्रभावित होती है और लेखन की अंत:प्रेरणा भी। इसलिए ऊपर के सारे सुझाव ख़ारिज कर बस लिखते रहें।

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