Font by Mehr Nastaliq Web

क्या हम परिवार को देश की तरह देख सकते हैं

ऋषभ प्रतिपक्ष 25 अगस्त 2023

हमारे सामने एक विकट प्रश्न खड़ा हो गया है। क्या हमारे परिवार खत्म हो जाएंगे? इस मामले में नहीं कि हमारे परिवार के लोग एक दूसरे से दूर रहने लगे हैं, दूर नौकरियां करने लगे हैं और कभी कभी ही मिल पाते हैं। बल्कि इस मामले में कि क्या हमारे हृदय में भावनाओं का सोता सूख गया है, परिवार के लिए और वही ट्यूनीशिया में किसी जंगल में मरे एक जानवर के लिए जागृत हो जाता है? जानवर से प्रेम होना अपनी जगह उचित है लेकिन अपने परिवार के लिए एक बूंद आंसू ना गिरना, या परिवार के नाम पर क्रोध आना, यह कुछ तो गड़बड़ दिखा रहा है। जब भी इस बात का जिक्र होता है कि परिवार अब खत्म हो रहे हैं, परिवार की अवधारणा बदल रही है तो बहुत से लोग खूब खुश होते हैं। वो मानते हैं कि हां, परिवार अब खत्म हो रहे हैं। बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि परिवारों को खत्म हो ही जाना चाहिए। बहुत से लोग परिवारों को ही सारे दुखों और अपराधों का जनक मानते हैं। पर बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो अपने जीवन की हर सफलता का श्रेय परिवार को देते हैं। वो कहते हैं कि उनकी मुश्किल घड़ी में भी उनका परिवार उनके साथ रहा। तो क्या वाकई हम परिवार को खत्म होते देखना चाहते हैं या फिर हम यह चाहते हैं कि हम भी कह सकें कि हमारा परिवार हमारे साथ था और है?

क्या हम परिवार को देश की तरह देख सकते हैं और खुद को इसके प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, रक्षामंत्री इत्यादि की तरह? या सस्ते में घर की महिला को गृहमंत्री कहकर निपटारा कर लेंगे?

परिवार क्या होता है? क्या परिवार वह होता है जो टॉल्सटॉय ने कहा था कि हर परिवार दुखी होता है और अपने तरीके से होता है। या फिर गॉडफादर का परिवार जिसमें माइकल कोर्लियोन अपने परिवार को एक रखने की कोशिश करता है। फिर पीकी ब्लाइंडर्स के टॉमी शेल्बी का परिवार जो उसे धोखा देते रहता है लेकिन वो परिवार को नहीं छोड़ता। परिवार वह कब्रिस्तान होता है जिसमें बच्चे क्रिकेट खेलते हैं। इसमें तमाम राज दबे होते हैं पर यहीं पर लोगों को आनंद भी आता है। वहां अपने भी होते हैं और एक्सटेंडेड फैमिली के लोग भी। वहां पर जगह होती भी है और नहीं भी। अकेलापन भी मिलता है और साथ भी। मुहब्बत भी आती है और डर भी लगता है। कब्रिस्तान में जा जाकर आप अपना जीवन भी बिता सकते हैं, लेकिन अगर किसी गड़े मुर्दे ने आंख खोल दी तो आपका जीवन नरक भी हो सकता है। कब्रिस्तान में जाकर आप गड़े मुर्दे उखाड़ोगे तो भी तकलीफ होगी। इसीलिए परिवारों में इतिहास के ऊपर सुंदर मजार और मकबरे बनाने की परंपरा होती है। हमेशा यशस्तिगान होता है। लेकिन इतिहास किसी को चैन से जीने नहीं देता। परिवार का इतिहास भी इस मामले में ऐसा ही होता है। सारे चमत्कारों, षड़यंत्रों, धोखा, प्रेम, बदला, घृणा, अतिशय प्रेम, अपनों की कुर्बानी, दूसरों की कुर्बानी, झूठ, परम सत्य, मौके पर भाग जाना, मौके पर खड़ा रहना- सबसे भरा होता है।

पिछले सौ सालों में दुनिया में औद्योगीकरण बढ़ा और लोगों को अकेले रहने का मौका मिला। जीवन अपने तरीके से जीने का मौका मिला। बड़ी बड़ी नौकरियां, बड़े बड़े ऑफिस, बड़ी बड़ी तनख्वाहें, घूमने की जगहें, पार्टी करने की जगहें, सारे सुख चैन, आराम तलब की जिंदगी- फिर बीपी, शुगर, गर्दन में दर्द, पीठ में दर्द, डिप्रेशन- सब कुछ मिला। लेकिन अंततः कंपनियों ने भी कहना शुरू कर दिया कि हम पांच हजार करोड़ रुपये की पूंजी वाले एक बड़ा परिवार हैं। जब परिवार ही बनाना था तो हम एक परिवार छोड़ कर क्यों भागें? आखिर पांच हजारी परिवार में भी वही डायनेमिक्स है, जो पांच हजार करोड़ वाले परिवार में है। पहले में तो इमोशन भी है, दूसरे में तो कतई इमोशन नहीं है। हमारे परिवारों में कभी पिंक स्लिप नहीं मिलती। हां, स्लिप जरूर होती है। आपने गलती की और आपका कैच पकड़ लिया जाएगा, फिर जोरदार स्लेजिंग होगी। अगर इस स्लेजिंग से डील करना सीख गये फिर तो आप टेस्ट मैच खेलेंगे। कभी कभी ट्वेंटी ट्वेंटी भी। कभी कभी मैच फिक्स भी कर लेंगे। कभी अंपायर भी साथ दे देगा। कभी कोई बॉलर हल्की गेंद डाल देगा। कभी मांकड़िंग हो जाएगा आपके साथ। कभी मीटिंग में जोरदार बहस, लड़ाई होगी, कैप्टेंसी को लेकर मनमुटाव होगा। पर फिर ड्रेसिंग रूम में शैंपेन खोलने का भी मौका आएगा। किसी के कंधे पर सिर रखकर रोने को भी मिलेगा।

परिवार के ऊपर ढेर सारी फिल्में बनी हैं और ढेर सारी किताबें लिखी गई हैं। यह सब देख कर और पढ़ कर लगता है कि परिवार सिर्फ दुख देने के लिए बना है। जब इतना दुख है तो हम परिवार में क्यों रहना चाहते हैं? हम उनसे क्यों जुड़े रहना चाहते हैं? आज के समाज में हमारे पास सोशल मीडिया है, दोस्त मित्र हैं, करियर हैं। और सबसे बढ़कर, हमारे पास चिंताएं हैं जो हमें चैन से जीने नहीं देतीं और चैन से मरने भी नहीं देतीं। ऐसे में हम परिवार के बिना भी रह सकते हैं। पर हमें उनकी जरूरत क्यों पड़ती हैं? हमें ऐसा क्यों लगता है कि दुनिया में सबसे ज्यादा नाराज हम उन्हीं से हैं?

अपने जीवन में एक पॉइंट पर हम उन लोगों को कत्ल करना चाहते हैं जिन्होंने हमें सताया है। बहुत बार ये लोग वो होते हैं जिन्हें हम अपने परिवारों में देखते हैं। परिवार इन्हीं लोगों के साथ भी रिश्ता बनाकर रखना सिखाता है। जो चीजें हमारे कॉर्पोरेट में काम आती हैं, राजनीति में काम आती हैं, हमारे जीवन में काम आती हैं, वो हम परिवारों से ही सीखते हैं। कई बार बड़ी पक्की ट्रेनिंग हो जाती है, तो कई बार बहुत ही घटिया। पर हम जब चाहें सुधार सकते हैं।

हम अपने जीवन में सबसे आसान रास्ता चुनना चाहते हैं। कि हम तो ऐसे ही हैं, बाकी आप जानो। यह रास्ता तब बड़ा मुफीद होता है जब हमारे पास काम होता है, पैसा होता है और हम सुरक्षित होते हैं। लेकिन जब यह समीकरण गड़बड़ होता है तब हमें दुनिया के हिसाब से बदलना पड़ता है।

परिवार में हम सीखते हैं कि सब कुछ गड़बड़ होने के बाद भी अपने हृदय को सही जगह कैसे रखें। बिना घबराये, बिना दिल पर लिये, कैसे मैनेज करें रिश्ते। क्योंकि जीवन तो इतना ही है। पैदा होंगे, पढ़ेंगे लिखेंगे, खेलेंगे। नौकरी करेंगे, व्यापार करेंगी, इंस्टा सेलिब्रिटी बनेंगे। पैसे कमाएंगे। घर गाड़ी सब लेंगे। प्यार मुहब्बत करेंगे। शादी करेंगे। बच्चे करेंगे। बीच बीच में अन्य चीजें भी होंगी। अफेयर, डिवोर्स, पैसे कम होना, पैसे ज्यादा होना, दिल टूटना, दिल जुड़ना। और फिर एक दिल दिल का रुकना। इतना ही है जीवन। इसी में हम चाहे जो मैनेज कर लें, जिस चीज को वैल्यू दें।

अगर हम अपने दिल को सबसे पहले वैल्यू दें और उसे इस कदर मजबूत बनायें कि वो एक बालक की तरह दुनिया को देखता रहे और खुश होता रहे इसकी खूबसूरती पर, दुखी होता रहे इसकी विकृति पर, तो हम मैनेज कर ले जाएंगे।

आज के दौर में जब हमें पता चलता है कि हमारा घूमना फिरना, पहाड़ों में खुद को खोजना, तकनीक में खुद को खोजना, एक कमरे में रहना, मिनिमल लाइफ जीना, अध्यात्म की तरफ जाना, अपने पैशन को फॉलो करना- यह सब एक बड़े व्यापार का भी हिस्सा है, तब हम ठगा हुआ महसूस करते हैं। जब आपको पता चलता है कि फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर आपको वही दिखा रहे हैं जो वो दिखाना चाहते हैं और आपको महसूस करा देते हैं कि आप वही देखना चाहते हैं, तब आपको अहसास होता है कि हम तो एक बहुत बड़े खेल के अदने से खिलाड़ी हैं। सबसे बड़ा खिलाड़ी है रिश्ता। फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर भी हमारे साथ रिश्ते ही बना रहे हैं और हमें अनजान लोगों से रिश्ता बनाने को कह रहे हैं। तो हमारा परिवार कहीं जा नहीं रहा। बस उसका कॉन्सेप्ट बदल रहा है।

हम राजनीति में देखते हैं कि लोग अपना भरा पूरा कैरियर छोड़कर परिवारों में आ जाते हैं, विरासत संभालने। देखने में यह लगता है कि इसकी क्या जरूरत है, पर परिवार का आकर्षण उन्हें खींच लाता है। आप उनसे दूर भागते तो हैं, पर आप उनके साथ रहना भी चाहते हैं। आप उनसे नफरत भी करते हैं, तो आप उनसे प्यार भी करते हैं।

प्रकाश झा की फिल्म अपहरण के एक मार्मिक दृश्य में पढ़ाकू लड़के से गैंगस्टर बने अजय देवगन अंत में अपने पिता के पास आते हैं, उसी पिता के पास जिसके आदर्शों से वो नफरत करते थे। जो चीजें उन्हें खींचकर अपने पास ले गई थीं, वही चीजें अब उनकी जान की दुश्मन बनी हुई थीं। पिता रात को उनको एक चादर ओढ़ा देते हैं। दोनों को पता है कि अब बेटे का जीवन बचा नहीं है। पर उतना सा ही वक्त अजय को संतुष्टि दे देता है।

द गॉडफादर फिल्म में परिवार की डायनेमिक्स दिखाया गया है। अपने परिवार को बचाने के लिए माइकल कोर्लियोन अपने जीवन का सब कुछ बदल देता है।

कोरोना लॉकडाउन के दौरान दो वेब सीरीज आईं- पंचायत और गुल्लक। दोनों ही परिवारों की कहानियों पर आधारित थीं। इनसे पहले लगभग पंद्रह साल से टीवी पर तारक मेहता का उलटा चश्मा आ रहा है। अपनी सारी कमियों खूबियों के बावजूद वह इसी बात से लोगों के दिल में जगह बनाये हुए है कि वह परिवार का एक मॉडल प्रस्तुत करता है। जो कि देखने में सुंदर है, हमें पता है कि इसमें परिवार के उन राजों को नहीं दिखाया गया है जो हम आम तौर पर फेस करते हैं। एक लंबे समय तक चलने वाले पुलिस ड्रामा एफआईआर में भी तीन अलग अलग लोग थाने में हैं, पर उनका स्ट्रक्चर एक परिवार का है। यहां तक कि एक कॉन्स्टेबल गोपी चंद्रमुखी मैडम को मॉम ही कहता है।

बहुत सारी फिल्में जो हिट होती हैं, वो परिवारों पर ही बनी होती हैं। किसी में परिवार बहुत सुंदर होते हैं, किसी में बहुत खराब। बहुत सारी फिल्मों में तो परिवार पर हुए अत्याचार का बदला ही दिखाया जाता है। केजीएफ, पुष्पा, आरआरआर से लेकर हम साथ साथ हैं, हम आपके हैं कौन, कभी खुशी कभी गम, कुछ कुछ होता है- सब परिवारों की ही कहानियां हैं। जो हीरो हार्ड फेस लेकर रहता है, उसका बैकग्राउंड यह होता है कि उसने अपने परिवार को खो दिया है। हमारी दो सबसे बड़ी गाथाएं रामायण और महाभारत परिवारों की ही कहानियां हैं। हमारे सबसे फेमस हिंदी उपन्यासों में परिवार ही हैं। यहां तक कि हास्य व्यंग्य से भरपूर रागदरबारी में भी सबसे अच्छे सीन परिवारों के ही हैं।

भावनात्मक रूप से हर इंसान एक ही जैसा होता है। यहां पर पूरी डेमोक्रेसी है और पूरी बराबरी है। कोई भी इंसान अलग इमोशन प्रोड्यूस नहीं कर सकता। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, नफरत, प्रेम, चिढ़, चापलूसी, झूठ, सत्य- यह हर स्तर पर मौजूद है। जीवन में जो चीजें हमें अलग करती हैं वो हैं काम करने की स्किल और हमारी मटीरियल सक्सेस। हम किसी काम में बहुत निपुण हो जाते हैं तो हमें समाज में अलग इज्जत मिलती है। ज्यादा पैसा कमा लेते हैं तो एक अलग तरह की इज्जत मिलती है। पर भावनात्मक रूप से हम एक जैसे ही होते हैं।

इंदिरा गांधी के बारे में लिखा गया है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इंदिरा अपने बचपन में अपनी बुआ द्वारा किये गये अपमान को भूल नहीं पाई थीं और अपने तरीके से बदला भी निकाला। वही इंदिरा अपने बेटों और उनकी वधुओं को लेकर परिवार की पॉलिटिक्स भी करती रहीं। देश की पॉलिटिक्स से ज्यादा असर परिवार की पॉलिटिक्स का पड़ा। ठीक उसी तरीके से पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के जीवन में हुआ। वी पी ने राजनीति में शह मात खेलते हुए पीएम की कुर्सी भी पा ली, छोड़ भी दिया। देश की राजनीति बदल दी। पर अंत में उनके बेटे की पत्नी के साथ हुए विवाद को वो संभाल नहीं पाएं। वहां पर राजनीति के कौशल काम नहीं आए।

प्लेटो ने कहा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। पर समाज के मूल में इमोशन ही तो है। मनुष्य एक इमोशनल प्राणी है। इमोशन के लिए ही मनुष्य क्या क्या नहीं कर देता है। अपनी पब्लिक लाइफ में मनुष्य अपने इमोशन्स को मैनेज करता है और अपनी छवि के हिसाब से काम करता है। लेकिन पारिवारिक जीवन में मनुष्य अपने इमोशन्स को बहने देता है और वहां पर उसकी कोई छवि नहीं होती, वही छवि होती है जो लोगों ने अपने अपने तरीके से अपने मन में बना रखी है।

परिवार के लोग आपकी कला की, आपके अचीवमेंट्स की या आपके पैसे की इज्जत नहीं करते। वो आपकी इज्जत करते हैं। परिवार इसी के लिए बना है। इसका मतलब यह नहीं है कि वो आपकी कला, आपके अचीवमेंट्स या पैसे से प्रभावित नहीं होते। होते हैं लेकिन इज्जत तो आपकी ही करते हैं।

कई ऐसे परिवार होते हैं जिनमें प्यार भरपूर मात्रा में मिलता है। पैसे की कमी नहीं होती, जीवन बढ़िया चलता है। लोग एक दूसरे को सपोर्ट करते हैं, वैसे परिवारों में लोगों का नजरिया अलग होता है। वह दुनिया को अलग तरीके से देखते हैं। वो दुनिया में सही चीजें तलाश लेते हैं। खराब चीजों से बचते हैं और फंस जाते हैं तो परिवार की मदद से निकल आते हैं।

लेकिन जो परिवार सिर्फ जी रहे हों, किसी तरह गुजारा कर रहे हों, चाहे वो पैसे के हिसाब से हो चाहे वो इमोशन्स के हिसाब से हो, उनका दुनिया देखने का नजरिया और हो जाता है। अपने बुरे अनुभवों के आधार पर वो सही चीजें तलाश पाने में अक्षम रहते हैं और अपने आप नकारात्मक चीजें उनकी तरफ आकृष्ट हो जाती हैं।

फिर इन दो तरह के परिवारों के लोग आपस में मिलते हैं तो आकर्षण भी हो जाता है लेकिन फिर विकर्षण भी पैदा होता है। यहां पर यह समझना आवश्यक होता है कि एक बार एक दूसरे को समझ लेने से यह विसंगति भी दूर हो सकती है। जीवन का नजरिया बदल सकता है, लेकिन तभी जब कोई इसे बदलना चाहे।

पर भूतकाल में क्या हुआ, इस पर तो हमारा वश नहीं है। हमारा वश इस पर है कि हम आगे क्या कर सकते हैं। हमारा बचपन अगर खराब गुजरा, तो हम उसे बदल नहीं सकते। लेकिन हम अपने मन में उसकी कहानी जरूर बदल सकते हैं। कहानी यूं कि हम अपनी नई कहानी में विक्टिम बनकर नहीं रहेंगे कि हमारे साथ यह हुआ, वह हुआ। बल्कि हम इसे इस तरीके से देखेंगे कि हम हीरो थे इस कहानी के और हमने ये सारी चीजें फेस कीं। और अब हम उससे बाहर हैं।

दुनिया की किसी कहानी में हीरो के साथ यही तो होता है। रामायण में श्री राम के साथ यही तो हुआ था। राजघराने में जन्मे उनका जीवन अच्छा चल रहा था। बढ़िया शिक्षा मिल रही थी। राजगद्दी मिलने वाली थी। लेकिन परिवार की राजनीति में अचानक उनको वन जाना पड़ गया। पत्नी के साथ। भाई भी गया। यह पूरे परिवार के ऊपर आघात था। पर यह हुआ। इसके बाद भी उनके जीवन में दुख कम नहीं हुए। पत्नी का अपहरण हो गया। पत्नी को वापस लाने के लिए सेना बनानी पड़ी जबकि सेना में लड़ने लायक लोग नहीं थे। फिर सेना बनी तो समंदर पार करने की झंझट आ गई। फिर समंदर पार हुआ। फिर युद्ध हुआ। उसमें भी रावण को मार पाना असंभव हो रहा था। फिर उसका भी हल निकला। वापस आए तो पत्नी पर आक्षेप लगा और उनको एक बार फिर वन जाना पड़ा।

अगर सीता की कहानी लिखें तो उस कहानी में हीरो वो हैं और उनके साथ भी यही चीजें होती हैं। मतलब परिवार की वजह से दुख तो होता ही है। क्योंकि स्थितियों पर आपका नियंत्रण नहीं होता। लेकिन हम उसका सामना कर सकते हैं।

जैसा कि श्रीकृष्ण के जीवन में हुआ था। उनका बचपन तो और बुरा गुजरा था। पैदा होते ही मरने का खतरा था। पानी में तैरकर पिता ने किसी तरह किसी और के घर में पहुंचाया। यहां से तो जीवन शुरू हुआ। फिर किसी और के घर में रहना। फिर वो घर भी छोड़ देना। युद्ध करना और पिता का राज्य हासिल करना। उसके बाद दोस्ती में कुरुक्षेत्र का होना। तमाम चीजें उनके जीवन में आती रहीं। लेकिन कृष्ण ने अपना गेम सेट कर रखा था- वो टेंशन नहीं लेते थे। ऐसा लगता था कि उन पर किसी चीज का प्रभाव नहीं पड़ता था। ऐसा हो ही नहीं सकता। प्रभाव पड़ता था लेकिन वो उसे मैनेज करना जानते थे। अपने ऊपर इमोशनल दबाव नहीं बनाते थे। फिर भी आप देखेंगे कि कृष्ण ने किसी को निराश नहीं किया है। परिवार की वजह से अपना सुख कम नहीं किया, अपने जीवन में मजे कम नहीं किये। वृहद परिवार लेकर, बल्कि दूसरों का भी परिवार साथ में लेकर कृष्ण ने अपने जीवन में सिर्फ आनंद ही किया। यह एक नजरिया हो सकता है। लेकिन दूसरा नजरिया यह भी है कि कृष्ण के जीवन में दुख भी लगातार आते रहे। वो तो उनका अपना नैरेटिव था कि हमें उनका दुख दिखता ही नहीं है।

हम दोनों ही चीजें चुन सकते हैं- परिवार को साथ लेकर चलना और परिवार को हमेशा के लिए त्यागकर चलना। पर दोनों ही स्थितियों में हमें लोगों से ही डील करना है। हमारा जीवन ऐसा नहीं हो सकता कि हम लगातार ऑनलाइन जिंदगी जी रहे हैं। हो सकता है कि भविष्य में सब कुछ ऑनलाइन उपलब्ध हो। डॉक्टर ऑनलाइन देखें और ऑनलाइन ही उपचार कर दें, ऑपरेशन कर दें। सब कुछ घर पर डिलीवर हो जाए। हमें बाहर जाने की जरूरत भी ना पड़े। हम सिर्फ अपने कमरे में रहें, वॉक करें और फिट रहें। हमें किसी इंसान की जरूरत ही ना पड़े।

तब यह भी हो सकता है कि जो लोग इन सुविधाओं को बना रहे हैं, इनका उत्पादन कर रहे हैं, वो भी यही काम करने लगें और फिर हर चीज का उत्पादन रूक जाए। क्योंकि जो भी काम हम करते हैं, उसका एक बड़ा अंश दूसरों के लिए होता है। जब तक हमारे दिल में दूसरों के लिए कोई भी इमोशन रहेगा- प्यार या नफरत- कुछ भी- तब तक हमें लोगों की जरूरत रहेगी है। अगर हम जीना चाहते हैं तो वह दूसरे लोगों के बिना पूरा नहीं होगा।

और इसीलिए परिवार की धारणा सामने आती है। परिवार हमारे समाज की एक इकाई है। जैसे व्यक्ति भी एक इकाई है। छोटी यूनिट, बड़ी यूनिट। जब तक हम समाज में हैं, हम परिवार से बाहर नहीं जा सकते। पर क्या यह परिवार सिर्फ मां बाप और भाई बहन तक ही सीमित है? नहीं। इसमें वो लोग भी आते हैं, जिन्हें हम अपने परिवार में शामिल करते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि परिवार में अगर ढेर सारे बाहरी लोग भी आते हैं तो परिवार का मतलब क्या हुआ? हम परिवार का मतलब तो यही समझते थे कि मां बाप और भाई बहन, जिनके बीच असीमित धैर्य है आपसी और जिम्मेदारियां हैं, प्यार है और एक दूसरे का सपोर्ट है। इसमें कोई कंडीशन नहीं है और कोई छुपाव दुराव नहीं है।

यहीं पर सारी समस्याओं का जन्म होता है। परिवार को इस हिसाब से सोचते ही हम उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं को मारना शुरू कर देते हैं। और उनको इसी धारणा के अंतर्गत दबाने का प्रयास करने लगते हैं। जबकि बाहरी व्यक्ति को परिवार में शामिल करते ही हम उसकी बाउंड्रीज का सम्मान करना सीख जाते हैं। हमें पता है कि हमारा दोस्त क्या काम करेगा और क्या नहीं करेगा। लेकिन यही धारणा हम अपने परिवार पर लागू नहीं करते।

हम अपने दोस्त पर नहीं चिल्लाते लेकिन परिवार पर चिल्लाते हैं। हम उनको टेकेन फॉर ग्रान्टेड लेकर चलते हैं। कि चाहे जो हो, मैं चाहे जैसा व्यवहार करूं, ये लोग मेरे साथ ही रहेंगे। फिर वो हमारे सारे डरों, असुरक्षाओं और नेगेटिव थॉट्स को झेलते रहते हैं। हमारी सारी मानसिक बीमारियों का पहला शिकार हमारा परिवार होता है जिसको हम कभी स्वीकार नहीं करते।

हम परिवार को सिर्फ जमीन जायदाद से ही जोड़ते हैं और या तो उनकी छवि देवताओं वाली पेश करते हैं या फिर दानवों वाली। कोई था जिसने आपकी सारी जरूरतों को समझा और कोई था जिसने आपकी किसी जरूरत को नहीं समझा। और हम यहां पर एक बड़ी गलती करते हैं। हम किसी को इंसान नहीं समझते। और एक बहुत पुरानी, बहुत क्लीशे लाइन भूल जाते हैं- मनुष्य गलतियों का पुतला है। मनुष्य गलतियां करता है और सीखता है। हम जब उनसे लड़ते हैं तो उन्हें ना सीखने के लिए प्रेरित करते हैं।

परिवार को जमीन जायदाद तक सीमित करने का घाटा यह होता है कि हम जीवन की ढेर सारी चीजों को मिस कर देते हैं। जमीन जायदाद तो सिर्फ शुक्राणु और अंडाणु की अवधारणा तक सीमित हैं। लेकिन परिवार तो इमोशन है। और यह सच बात है कि परिवार में आप नहीं बता सकते कि निषेचन किसका किससे हुआ। यह सुनने में खराब लग सकता है पर यह जीवन का एक सच है। लेकिन अगर हम किसी की जेनेटिक लीनिएज नहीं जानते तो उसे अपने ही शुक्राणु अंडाणु का हिस्सा मानकर चलते हैं। अगर जान जाते हैं तो उस जमीन जायदाद से बेदखल करने का प्रयास करते हैं। जमीन जायदाद का मसला अलग है। हम यहां बात कर रहे हैं इमोशन की, जो कि परिवार का आधार है।

और इमोशन के आधार पर परिवार का विश्लेषण करें तो हम इसमें बाहरी व्यक्तियों को भी शामिल कर सकते हैं और बाहरी व्यक्तियों को शामिल करते ही हमारी बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

अगर हम अपने बेटे की गर्लफ्रेंड या अपनी बेटी के बायफ्रेंड को अपने परिवार में शामिल कर लें तो हमारे लिए आसानी हो जाएगी। कई लोगों को यह बात नागवार गुजर सकती है। लेकिन इससे कई लोगों का जीवन आसानी से कट सकता है, बहुत सी समस्याएं आ भी जाएं तो हम उन्हें झेल लेंगे।

सोचिए कि आपकी बेटी का बॉयफ्रेंड है या आपके बेटे की गर्लफ्रेंड है और पूरे शहर को पता है, सिर्फ आपको नहीं पता है। ऐसा तो नहीं है कि वो ऐसी जगह मिलते होंगे जहां कोई नहीं जाता होगा। कहीं ना कहीं तो लोग देख ही लेते हैं। इससे बेहतर है कि सबसे पहले आप जाने और उसे स्वीकार कर लें।

अब पहली टेंशन से आप बचे। दूसरी टेंशन है कि आपके बच्चे ने सेक्स किया या नहीं। तो आपकी टेंशन दूर किये देते हैं। आपका बच्चा तो पहली अपॉर्च्युनिटिी मिलते ही सेक्स करेगा। वो आपकी टेंशन का इंतजार नहीं करेगा। उसे अपने सेक्स की ज्यादा टेंशन है। आपको भी पता होगा, पूरी दुनिया को पता होगा कि पंद्रह सोलह साल की उम्र में सेक्स को लेकर सबसे ज्यादा चुल्ल मचती है (अगर चलताऊ शब्दों में कहें तो), जो कि बिल्कुल प्राकृतिक है। आप नाराज हों, दुखी हों या कुछ भी हों, बच्चा तो करेगा। यहां तक कि प्रलय आ जाए, तूफान आ जाए, तो भी कुछ बच्चे सेक्स कर के ही मरेंगे। वो वर्जिन नहीं मरना चाहते। आप भी अपनी यौवनावस्था में करना चाहते होंगे।

काशीनाथ सिंह की किताब रेहन पर रग्घू में रग्घू अपने यौवन को याद कर रहे हैं और वही चीजें याद कर रहे हैं कि कैसे एक औरत के पीछे वो पागल थे।

हमने काफ्का के बारे में पढ़ा कि वो अपने पापा को चिट्ठियां लिखा करता था जिसमें वो उनसे बहुत नाराज था। उनके नारसिसिज्म से नाराज था। मैक्स वेबर के बारे में पढ़ा है कि वो अपने पापा से इतना नाराज था कि रिश्ते खराब हो गये थे और एक बार गुस्से में उसने उनको इतना सुना दिया कि दुख से उनकी मौत हो गई। बाद में वेबर जीवन भर दुखी रहा। महात्मा गांधी और उनके बेटे से अनबन और दुख के बारे में हम जानते ही हैं। बहुत बार ऐसा लगता है कि हमारे जीवन में दुखों का कारण ही परिवार है। यह सच भी है क्योंकि परिवार ही हमें पैदा करता है, पालता पोसता है तो जो दुख पैदा होते हैं, उनकी वजह से ही होते हैं। वो पैदा नहीं करते तो हमारे जीवन में दुख आता नहीं। पर पैदा कर देते हैं और दुख आ जाता है। तो हमें यही सीखना है। पैदा हुए हैं तो दुख को मैनेज करना है।

हम जीवन को लगातार वैसे ही जीना चाहते हैं जैसे कि हमारे जीवन में कोई दुख कभी आया ही नहीं है। हम मानना नहीं चाहते हैं कि हमारे साथ कोई हादसा हुआ है। हम अपनी आत्मा के उन रहस्यमयी छिद्रों में, गुफाओं में नहीं जाना चाहते जो मौजूद हैं। जिनका अस्तित्व है और जहां पर हमारी ही कोई शक्ति है, जो हमें वहीं से संचालित कर रही है। घोर गुस्से में, उफनती भावनाओं में फिर हमारा कंट्रोल हमारे ऊपर से छूट जाता है और हम वही कर बैठते हैं जो हमारी वो छुपी हुई शक्ति हमसे कराना चाहती है। फिर वो चाहे सही हो या गलत, हो जाता है। हम फिर भावनाओं के सागर में गोते लगाने लगते हैं और फिर यह एक लूप बन जाता है जिसमें हम फंसे रहते हैं।

इसलिए हम हर संभव यह प्रयास करते हैं कि वह स्थिति हमारे सामने ना आए। हम अपनी आत्मा की उन गुफाओं का साक्षात्कार ना करें। पर यह भी सच है कि जब तक हम उन गुफाओं का साक्षात्कार नहीं करेंगे, हम खुद पर नियंत्रण नहीं कर पाएंगे, खुद के जीवन को सुंदर नहीं बना पाएंगे। यह जीवन बाहरी आवरण में सुंदर नजर आएगा, लेकिन अंदर से यह खोखला होता रहेगा।

ठीक यही चीज परिवार के साथ भी होती है। हम परिवार में छिपी दरारों को नहीं देख पाते। वो दरारें जो किसी गुफा में खुलती हैं जहां पर हमारे परिवार के रहस्य दफन होते हैं। या यूं कहें कि कैद होते हैं जिनको हम अपनी मेमरी में भी नहीं लाना चाहते। लेकिन जब तक हम उन्हें फेस नहीं करेंगे, हम अपने दुख से बाहर नहीं पाएंगे।

फिर हम जीवन में आगे बढ़ते हैं। तो हम देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं और समझते हैं कि हमारे परिवार ने हमें किस तरह बंधक बनाया हुआ था। और फिर हम उससे मुक्त होने का प्रयास करते हैं। हम जीवन में जितनी नई चीजें पढ़ते हैं, उनके आधार पर हम अपने परिवार को जज करते हैं। हम हर नई चीज अपने परिवार में ही लागू करना चाहते हैं। हमारी बड़ी इच्छा होती है कि जो भी हमने सोचा, वो हमारे परिवार में परिपाटी बनकर चले। क्योंकि वहां पर हमारा अधिकार होता है, हमें यकीन होता है कि लोग हमारी बात मान लेंगे। इन तमाम लड़ाई-झगड़ों के बावजूद। और यह सिर्फ हाई एजुकेशन प्राप्त लोगों के साथ ही नहीं है, जो भी व्यक्ति बाहर होकर आता है, नये अनुभवों से गुजरता है, वो अपने परिवार में उन अनुभवों को लागू करना चाहता है।

जैसे कि पहले आर्मी में काम करने वाले जवान छुट्टियों में घर आकर सबसे पहले घर के बच्चों को वही रुटीन फॉलो कराना चाहते थे जो आर्मी में उन्हें खुद करना पड़ता है। बिना यह सोचे कि बच्चे क्या चाहते हैं, उनका आदेश बच्चों पर लाद दिया जाता। उसी तरह बड़े विश्वविद्यालयों से पढ़े लोग अपने घर की तरफ देखते हैं तो उन्हें स्वाभाविक रूप से गुस्सा आ जाता है और वह तत्काल प्रभाव से अपने घर के सारे रीति रिवाजों को बदलना चाहते हैं। चाहे वो पर्व त्यौहार का मसला हो, जाति धर्म लिंग की बात हो, वह अति आधुनिक विचारधारा को घर में लागू करना चाहते हैं।

पर बिना यह समझे कि परिवार उसके लिए तैयार है या नहीं। जैसे कि किसी देश में जब पहली बार डेमोक्रेसी लागू की जाती है तो पहले यह देखा जाता है कि यह देश इन नये विचारों के लिए तैयार है कि नहीं। जब भारत में डेमोक्रेसी लागू की गई तब पाया गया कि अंग्रेजी राज के डेढ़ सौ सालों में भारतीय जनता ने डेमोक्रेटिक रूप से लड़ना, चुनाव करना और अपनी हिस्सेदारी जताना सीखा था- अपने तरीके से। तब जाकर यह डेमोक्रेसी लागू हो पाई और चली भी। जिन देशों में जनता तैयार नहीं थी, वहां पर डेमोक्रेसी का प्रयोग असफल हुआ।

इसी तरह परिवार का कॉन्सेप्ट भी काम करता है। परिवार में भी कोई नया आईडिया एकदम से लागू नहीं किया जा सकता। यहां भी अगर डेमोक्रेसी लागू करनी है तो सबसे पहले व्यक्ति को खुद फुल डेमोक्रेट बनना होगा अर्थात ढेर सारा धैर्य खुद में पैदा करना होगा। बिना इस धैर्य के हम कहां तक सफल हो पाएंगे? फिर तो हम अपने परिवार की दरारों को ना तो देख पाएंगे और ना ही समझ पाएंगे। जरा सी समस्या में हम परिवार से भागना शुरू कर देंगे। लेकिन यह हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

“परिवार के साथ हमारी नाराजगी इस बात की होती है कि परिवार हमें खुद से नफरत करना सिखाता है, हमें खुद को नापसंद करना सिखाता है। जो परिवार हमें खुद से प्रेम करना सिखाता है, वह परिवार बहुत खुश रहता है।”

जब हम वर्कप्लेस पर जाते हैं तो हमारे पास ऐसे ही परिवारों के लोग होते हैं। जो प्रीटेंड तो करते हैं बिल्कुल बदले हुए इंसानों के रूप में लेकिन ज्योंही कन्फ्लिक्ट होता है, परिवार की पॉलिटिक्स वहां भी सामने आ जाती है। वर्कप्लेस पर ऐसा कुछ नहीं होता जो एक परिवार में नहीं होता है। लोग अपने को बचाने के लिए झूठ बोलते हैं, कमजोर को दबाते हैं और अपने को ऊंचा दिखाने के लिए नीचता की हरकतें करते हैं।

इस प्रकार ना तो हम परिवार के साथ खुश रहते हैं और ना ही वर्कप्लेस पर खुश रहते हैं। हम सारी खुशी उन चीजों में खोजते हैं जो हमें परिवार और वर्कप्लेस से दूर ले जाती हैं। इसमें सबसे आसान चीज होती है- नशे की वस्तुएं। सिगरेट, खैनी, तम्बाकू, गांजा, शराब, ड्रग्स- ये सारी चीजें तुरंत अवेलेबल होती हैं। फिर इसके बाद आती हैं भावनात्मक चीजें। हम छुपाकर रिश्ते बना लेते हैं। कोई पुरुष किसी स्त्री से, और कोई स्त्री किसी पुरुष से- ये छुपे हुए रिश्ते हमारे परिवार और वर्कप्लेस के खिलाफ रिबेलियन यानी विद्रोह का काम करते हैं। हमें एक भयानक संतुष्टि मिलती है। इस प्रकार धीरे धीरे हम अपने लिए एक लूप बनाते हैं जिसमें हर कोई फंस जाता है। जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति जीवन में यही मॉडल फॉलो करता है, पर जिनके लिए ये मॉडल या इससे मिलता जुलता एक अलग मॉडल है, उनके लिए ये बातें हैं।

हम हमेशा बात करते हैं स्वतंत्र रहने की, आजादी से अपना जीवन जीने की। और इसमें हमें पहली बाधा के रूप में नजर आता है- परिवार। पर ऐसा नहीं है कि परिवार से मुक्त होते ही हम आजादी का जीवन जीने लगते हैं। हम एक परिवार से मुक्त तो हो जाते हैं लेकिन अपने जीवन में जितने लोगों से मिलते हैं, वो इन्हीं परिवारों से ही आए होते हैं, वही यादें, वही तड़प, वही गुस्सा लिये हुए। इसलिए हम कहीं भी जाते हैं, हमें लोग वैसे ही मिलते हैं, अनुभव वही होते हैं। बस तरीका बदल जाता है।

तो हम इसमें आजादी किस चीज की चाहते हैं? हम आजादी चाहते हैं इमोशन की। हम अपने इमोशन को महसूस करना चाहते हैं, उसे स्वीकार करना चाहते हैं, हम यह भी चाहते हैं कि हमारे अपने लोग भी उसे स्वीकार करें, उसे झुठलायें नहीं, उसे सम्मान दें। अगर हमें परिवार में यह आजादी मिल जाए और हमारे परिवार के हर व्यक्ति को यह आजादी मिल जाए तो क्या हम परिवार से भागेंगे, क्या उससे नफरत करेंगे? क्या हमारा जीवन आसान नहीं हो जाएगा इसके बाद?

कोरोना के वक्त हमने परिवारों की जरूरत को सबसे ज्यादा महसूस किया। यह दो साल हमारे लिए आंखें खोलने वाले हैं। लोगों को अचानक अहसास हुआ कि सारी अचीवमेंट, सारी धन संपत्ति, सारे कॉन्टैक्ट्स- सबका जीवन में कोई महत्व नहीं है। जीवन खत्म, ये सब कुछ खत्म। अंत में आपको अपना परिवार ही याद आता है। आप उनके साथ ही वक्त बिताना चाहते हो। आप उन्हीं से लड़ना चाहते हो, उन्हीं से प्यार करना चाहते हो।

अंशु 2011 में अमेरिका चला गया और चार पांच साल में उसने तेजी से प्रगति की और बहुत पैसे कमाने लगा। वह जो काम करना चाहता था, वो कर पा रहा था। लेकिन जब 2016 में वह भारत वापस लौटा तो उसने पाया कि उसके मां बाप बूढ़े हो गये हैं। अमेरिका वापस जाकर उसे अहसास हुआ कि उसके मां बाप के पास अब वक्त बहुत कम बचा है। उसने अनुमान लगाना शुरू किया तो पाया कि वह तो 2005 से अपने घर से बाहर है और मुश्किल से आठ या दस बार अपने मां बाप से मिल पाया है- पिछले दस वर्षों में। आने वाले कुछ वर्षों में चार या पांच बार और मिल पाएगा। इसके बाद उसके मां बाप ही नहीं रहेंगे। अंशु के इस ख्याल ने उसका दिल तोड़ दिया। वह अपने मां बाप की मृत्यु से निकटता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। फिर उनसे तुरंत एक निर्णय लिया। वह नौकरी छोड़कर अपने गांव तो नहीं आ सकता था लेकिन अब वो रोजाना वीडियो कॉल कर अपने मां बाप से बात करने लगा। अंशु का यह कहना था कि कम से कम अपने मां बाप को बूढ़ा होते हुए तो वो देख सकता है। जैसे वो उसे बड़ा होते हुए देख रहे थे।

हर कोई गूगल का सीईओ ही नहीं बन सकता। बहुत से लोग नौकरियां करते हैं और एक मॉडरेट इनकम में गुजारा करते हैं। ऐसे में वो अगर अपने करियर के लिए बाहर घंटे- पंद्रह घंटे काम करते भी हैं तो क्या हासिल कर लेंगे? एक फ्लैट के बजाय दो फ्लैट खरीद लेंगे। आप इससे ज्यादा नहीं खरीद पाएंगे। हम सामान्य स्थितियों की बात कर रहे हैं। कुछ व्यक्ति सामान्य से ज्यादा हासिल करते हैं और उनकी संख्या कम है। जब आप एक सामान्य स्थिति से ऊपर पहुंच जाते हैं तब आप परिवार को मैनेज कर सकते हैं क्योंकि आपके पास आने जाने की सुविधा रहती है। आपको यह डर नहीं होता कि आप मां बाप के पास जाएंगे तो आपका काम खराब होगा। बीच के स्तर और निचले स्तर पर यह समस्या ज्यादा है। ऐसा माहौल होता है कि आप नहीं रहेंगे तो कोई काम ही नहीं हो पाएगा। तो कोरोना काल में लोगों ने यही महसूस किया कि वो नहीं भी रहेंगे तब भी काम हो जाएगा इसलिए उस वक्त में अपने परिवार का साथ मिस करना, उनके साथ वक्त ना बिताना बेवकूफी है।

अब उद्देश्य यह है कि परिवारों को कैसे आगे बढ़ना चाहिए, कैसे इवॉल्व करना चाहिए और कैसे बदलते समय में परिवार खुद को बनाये रख सकते हैं। अगर ऐसा नहीं करेंगे, तो परिवार बिखर जाएंगे। क्योंकि आने वाले वक्त में मेटावर्स, थ्री डी, फाइव डी या इसी तरह की बिल्कुल व्यक्तिगत अनुभव वाली जिंदगी हो जाएगी। लोग खुद में जीने लगेंगे, बिल्कुल अकेले। लोगों की अपनी डिमांड पर फिल्में बनेंगी, मैच होंगे और बिल्कुल व्यक्तिगत एक्सपीरियेंस होगा। ऐसा लगेगा कि लोगों को किसी की जरूरत ही नहीं है। कुछ समय तक तो यह अच्छा लगता है। पर मनुष्य है तो सामाजिक प्राणी, इमोशनल प्राणी। फिर धीरे धीरे ऐसे में लोगों को अकेलापन भी सालेगा और मानसिक बीमारियां बढ़ेंगी। इमोशनल समस्याओं को सहने की क्षमता कम हो जाएगी। लेकिन आस पास लोग नहीं होंगे क्योंकि आस पास के लोग भी इसी अनुभव से गुजर रहे होंगे। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है या ये कोई गल्प नहीं है। संयुक्त परिवार से न्यूक्लियर परिवार और धीरे धीरे उसमें भी हर किसी का फोन में रहना इसी बात को दर्शाता है। आज चाहे डाइनिंग टेबल हो या फिर ड्राइंग रूम हो या फिर चौपाल हो- सारे लोग फोन में लगे रहते हैं। यही आदत विकसित होते होते बिल्कुल अकेलेपन में पहुंच जाएगी। इसमें परिवार की जरूरत होगी।

“परिवार में ही हम यह भी सीखते हैं कि तरह तरह के लोगों का सामना कैसे करना है क्योंकि ठीक ऐसे ही लोग हमें बाकी दुनिया में भी मिलते हैं। तो परिवार में दुनिया में रहने की ट्रेनिंग देता है। अगर यह ट्रेनिंग प्रेम से समर्थित है तो फिर धरती पर ही जन्नत है।”

तो हमें अपने जीवन के इस महत्वपूर्ण हिस्से को सुधारना है, अगर हम खुश रहना चाहते हैं तो। इसके लिए जरूरी है कि हम परिवार की संरचना और उसकी दरारों को पहले जानें और फिर समझें। किसी डेमोक्रेसी की तरह परिवार के सारे डार्क हिस्सों को समझना जरूरी है। बहुत सारे कागजात कॉन्फिडेंशियल होंगे जो तीस साल या चालीस साल बीतने के बाद ही सार्वजनिक किये जा सकेंगे। इसके साथ ही लड़ाई चलती रहेगी सच जानने की। लेकिन अगर इसे चलाना है तो इसकी सारे श्वेत-श्याम-धूसर रंगों को समझना ही होगा।

परिवार हमारी सबसे बड़ी ताकत बन सकता है और सबसे बड़ी कमजोरी भी। पुराने जमाने में राजा महाराजा तमाम सुख सुविधाओं, तमाम दिक्कतों, तमाम युद्धों के बावजूद कभी परिवार को छोड़ते नहीं थे। उनके परिवार में एक से बढ़कर एक षड़यंत्र होते थे, पर इसके बावजूद वो उनको साथ रखते थे। क्योंकि परिवार ही आपको राजा बनाता है। अंत में जाकर कॉर्पोरेट भी तो यह कहना शुरू कर देता है कि हम सभी एक परिवार हैं। तो फिर हम अपने परिवार को क्यों छोड़ें? आखिर, इससे तो इमोशनल बॉन्ड भी है, कॉर्पोरेट के साथ तो दस रुपये एफिडेविट वाला बॉन्ड है।

~•~

नोट : इस प्रस्तुति में चंद्रबिंदु और नुक़्ते का प्रयोग नहीं किया गया है।

नए ब्लॉग

जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

टिकट ख़रीदिए