कहीं जाने की इच्छा (के) लिए
अमन त्रिपाठी 18 अक्तूबर 2023
मैं बहुत दिनों से एक जगह जाना चाहता हूँ। इन दिनों मेरे पास इतना अवकाश नहीं रहता कि कुछ ज़रूरी कामों के अलावा भी मैं कुछ और कर सकूँ, लेकिन उस जगह का आकर्षण ऐसा दुर्निवार है कि किसी अन्य काम में मेरा मन एकदम नहीं लगता। आलम यह है कि मैं सो नहीं पाता जब मुझे याद आती है कि मुझे वहाँ जाना है। अपने दिल में जैसे मैं इस बात से आश्वस्त हूँ कि वहाँ गए बिना मेरा निस्तार नहीं है और इसी आश्वस्ति से दिन गुज़रने की राह बनती है। पहले भी बहुत बार मैं वहाँ जा चुका हूँ और जितनी भी बार गया हूँ इसी कैफ़ियत में गया हूँ।
यह करके मुझे क्या मिलता है, मैं क्यों वहाँ जाता हूँ या कौन मुझे मिलता है—ये क्रूर सवाल हैं और इन सबका जवाब मैं नहीं जानता। मैं बस चला जाता हूँ और निरर्थक-निरुद्देश्य घूमता रहता हूँ और कुछ दिनों में लौट आता हूँ। हर बार लौटने के बाद सोचता हूँ कि अब बस! यह सिलसिला बंद होना चाहिए। लेकिन फिर कुछ दिनों में वही हालत! दिल कचोटने लगता है। उस जगह बहने वाली नदी इस शिद्दत से याद आती है कि कभी-कभी लगता है कि मैं उसके किनारे साँस ले रहा हूँ और किसी अन्य शहर के भीड़ भरे चौराहे पर मेरे नथुनों में उस नदी-किनारे की गंध भर जाती है। इस स्थिति में आदमी क्या करे! अपना दिल थामकर उसी गंध की दिशा में क्या न दौड़ पड़े? लेकिन साली नौकरी की तलाश क्या कम कमीनी शय है? इतनी आसानी से आदमी को जीने दे तो इसका इतना ख़ौफ़ कैसे हो!
वहाँ बार-बार जाकर मैंने अपने कुछ परिचित भी बना लिए हैं। संयोग से मेरा एक अच्छा मित्र वहाँ रहता है जो इतना सहृदय है कि मुझसे प्रयोजन पूछे बिना अपने यहाँ टिकने देता है। वह एक साधु है। वहाँ एक चायवाला मेरे चेहरे से परिचित है, मैं भी उसका बँधा हुआ ग्राहक हूँ। वह मुझे देखते ही ज़ोर-ज़ोर से मुस्कुराता हुआ, ‘‘चाय सर चाय?’’ पूछता है और सिगरेट की डिब्बी दिखाता है। वहाँ एक शानदार बुज़ुर्ग, जिनसे इत्तेफ़ाक़न मेरा परिचय हो गया, मुझे बहुत मानते हैं और मुझसे आने को कहते रहते हैं। उन्हें नहीं पता कि उनके इस कहने का मेरे ऊपर कितना बोझ है, तब जबकि मैं ख़ुद ही हर घड़ी वहाँ जाना चाहता हूँ।
मैं पिछले ग्यारह सालों से अपने घर से विस्थापित हूँ। मुझे महसूस होता है कि एक समाज के तौर पर विस्थापन हमारा बहुत बड़ा घाव है, पर उस घाव को चूस-चूसकर ही हमने अपना जीवन-द्रव निकाला है और अब अगर अचानक से हम सबको संस्थापित कर दिया जाए तो जाने कैसा केऑस हो! बार-बार विस्थापित होना एक घर ढूँढ़ने की प्रक्रिया भी हो सकती है। तो क्या वह जगह मेरा घर है जो मैं बार-बार उसका विन्यास समझने को उसकी अत्यन्त जटिल संरचना में कूद जाता हूँ? या फिर वहाँ के लोग क्या मेरे घर के लोग हैं या मेरे अपने हैं? ज़ाहिर है कि ऐसा कुछ नहीं है। पर मैं अपनी बेबसी का एक उदाहरण देता हूँ। मैं वहाँ जब भी जाता हूँ तो अपने-आप वहाँ की ज़मीन पर मेरे पैर ऐसे पड़ते हैं, जैसे मैं उस पर चलने की क्षमा माँग रहा होऊँ। आप से आप वहाँ के लोगों से मैं यूँ बात करता हूँ, जैसे कि मैं एहसानमंद हूँ कि उन्होंने मुझे अपने पास खड़ा होने दिया। जबकि आमतौर पर, या अन्य जगहों पर मैं ऐसा नहीं हूँ।
मुझे याद है, एक बार मैं वहाँ घूम रहा था और मेरे पास बहुत कम पैसे बचे थे। वहीं कहीं एक छोटे-से बाज़ार में एक जादूगर जादू दिखा रहा था। मैं भी देखने लगा। उसने तरह-तरह के करतब दिखाए और कई लोगों को ठगा। शायद मुझे भी ठगा, मुझे याद नहीं। पर मैं आख़िर तक उसके जादू को जादू ही समझता रहा और आज तक भी मुझे उस पर हँसी या ग़ुस्सा या अपनी नादानी पर हँसी या ग़ुस्सा नहीं आता। वह सबसे असली जादूगर है और उसका जादू खालिस जादू। कभी मिले तो मैं उसके हाथ चूमूँगा या शायद अपने साथ अपने शहर लेता आऊँ। ऐसा आकर्षण कि क्या कहूँ! मैं वहाँ की बोली सीखना-समझना चाहता हूँ। उस भाषा के पिछले कवि मेरे बहुत प्रिय हो गए हैं। वहाँ का एक शाइर मुझे मीर-ओ-ग़ालिब से ज़्यादा प्यारा हो गया है। वह समाज मुझे अपने समाज से ज़्यादा पसंद है। वैसे तो वह किसी भी लिहाज़ से आदर्श शहर नहीं है। जितनी तरह की परेशानियाँ एक आम उत्तर-भारतीय सोच सकता है, वे सब वहाँ बहुतायत में मौजूद हैं। नदी का पानी सड़ गया है और हवा में दुनिया की सारी ज़हरीली गैसें मिली हुई हैं। और शायद वह हवा सूँघने के लिए मैं कल उस जगह की बस में बैठ जाऊँ, क्या पता!
अनचीन्हे आकर्षण की एक और बात बताता हूँ। मैं एक बार किसी को यह कह रहा था कि चम्बल नदी मुझे बहुत फ़ैसिनेट करती है, सोन भी और यमुना भी। उन्हें यह पता था कि मेरे क़स्बे से सरयू नदी बहती है तो उन्होंने पूछा कि तुम्हारी नदी जब सरयू है तो उससे आकर्षण अधिक होना चाहिए। किंतु यदि चम्बल ज़्यादा आकर्षित करती है तो उसके पीछे कोई अन्य कारण भी होगा। मैंने उस समय तो उन्हें एकाध मूलभूत कारण गिनाए किंतु बाद में मैंने सोचा कि प्रारंभिक कारण जो भी रहे हों, आज तो मेरे उसके प्रति आकर्षण या लगाव की एक स्वतंत्र सत्ता है और उसे किसी अवलंब की ज़रूरत नहीं। मैं अपने आकर्षण की व्याख्या क्यों करूँ? मैं अपने इन आकर्षणों को और लगावों को अभौतिक, रूमानी और वायवीय मानने से भी इनकार करता हूँ; बल्कि वे इतने ज़ाहिर और ठोस हैं कि उन पर सिर पटककर मैं जान दे दूँ, तब भी वे टस-से-मस न हों।
‘‘वो सितमगर मेरे मरने पे भी राज़ी न हुआ’’
कैसी अधूरी-सी बात लग रही है! जैसे कुछ छूट गया है, जैसे कुछ कहा ही नहीं…
‘‘हाय रे वहशत कि तेरे शहर का
हम सबा से रास्ता पूछा किए’’
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