वह अपना मुँह ख़ामोशी से भींच लेता और चक्के के गोल पहियों के चारों ओर घूमता हुआ सिर्फ़ अपने दाँतों का अस्तित्व अनुभव करता, जहाँ केवल एक ख़ामोश आगंतुक का आगमन होता था और थी उसकी ज़बान। वह अपनी मुट्ठियाँ भींचता और दाँत पीसता। क्रोध से लाल हुई आँखों और भारी पलकों से फाड़-फाड़कर देखता। नींद और थकान से उसके पपोटे फूल गए थे। कुछ भी भयानक घट सकता था।

उसके बग़ल में पुल की सीढ़ी पर बैठी उसकी पत्नी उसके बोलने की प्रतीक्षा कर रही थी। पुल बड़ा था—गर्मियों में उस छोटी-सी नदी के लिए बहुत बड़ा, लेकिन सर्दियों में, जब नदियाँ चढ़ जाती हैं, तो यह लोहे का होने के बावजूद कीड़े की तरह काँपने लगता था। काइदूना उसकी ओर देख नहीं रही थी, वह पास ही था। उसकी ओर देखकर क्या होता? जो कुछ भी बोलने को था, वह यही था कि कुछ ग़लत हुआ।

आँसुओं से भरी आँखों को बंद करके वह अपने बेटों के बारे में सोचती रही। अनाक्लेतो और सेरापीतो कल शाम अँधेरा घिरने पर पहाड़ों में चले गए थे ताकि सैनिकों के हाथ पड़ जाएँ।

वे अब उनके साथ नहीं थे, कहाँ थे, मालूम नहीं। जो भी सैनिकों के हाथ पड़ जाता, उसे बग़ैर नाम पूछे गोली से उड़ा दिया जाता। सिर्फ़ उसका पति, बुएइओन अपनी इच्छा से वहाँ रह गया था। वह था ही ऐसा। लेकिन जब से पौ फटी थी, काइदूना तब से चक्कर काटती घूम रही थी, उस घटना की प्रतीक्षा में जो संभावित थी। वह अपनी अँगुलियों को चटखा रही थी, अपनी मुद्राएँ बदल रही थी। ठंडी साँसें ले रही थी। वह सब कुछ सहन नहीं कर पा रही थी।

सब पहले से तैयार हैं... उसने कहना शुरू किया। वास्तव में वहाँ अब दीवारों और खेतों के सिवा कुछ रह भी नहीं गया था...सब पहले से तैयार हैं, सब पहले से लिप्त हैं, सबने अपनी टोकरियाँ और फावड़े फेंक दिए हैं।

दब्बू बुएइओन बदल गया था। यह दूसरी प्रकृति थी। दूसरी उपज थी। उसने काइदूना को घृणा की नज़र से नहला दिया—बर्बर घृणा से, जैसे वह असुरक्षित होने पर किसी को सिर्फ़ इसलिए पीट देगा कि वह उसे समझता नहीं, उसके विचारों का अनुमान नहीं लगा सकता।

ताता, तुम्हारे बाप-बेटों को ले गए हैं, यह हो नहीं सकता...।

“और तुम क्या सोचते हो, तुम उन्हें छोड़कर आए हो?

ओह, नहीं ताता, लेकिन मेरा दिल जानता है कि तुम भयभीत हो और सोचती हो कि पहाड़ों में चला जाना चाहिए।

“मुझे कोई भय नहीं है...”

“और वहाँ कौन-सी सुरक्षा है, ख़ैर...

उसने कोई जवाब नहीं दिया, मानो बात की पुष्टि करते हुए वह चक्के को पंजों से पकड़कर झटके से उठ खड़ी हुई।

“मैं भी कितना मूर्ख हूँ! उसने विषय बदलने की ग़रज़ से कहा, जल्दी बाहर निकलने के चक्कर में मैं टमाटरों की बाबत तो भूल ही गई।

वह खेतों की ओर दौड़ गई, दूसरे सिरे पर सब्जियों और फलदार पौधों का बाग़ लगा था।

आँसुओं से उसका चेहरा भीग गया था। हाथों में रखे टमाटरों की तरह आँसू उसके गालों पर दुलक आए। वह समझ क्यों नहीं पाई, लेकिन वह जानती थी कि वे लोग उस ज़मीन के मालिक थे, जो सरकार ने उन्हें दी थी। उनकी सरकार ने तो ज़मीन उनके नाम कर दी थी, लेकिन दूसरे सैनिकों ने बिना किसी क़ानूनी अधिकार के उनसे छीन ली थी।

उसके भीतर यह विचार घुमड़ने लगा कि उसके पति और बेटों के साथ कुछ घटने वाला है। उसने रीढ़ से सिर के बालों तक सिहरन दौड़ती महसूस की, जैसे किसी ने हिमजल की बरसात कर दी हो।

उसने याद किया कि वह क्या करने आई थी। दर्द से छटपटाती उँगलियों से उसने वह चाक़ू निकाला जो उसका बेटा अनाक्लेती भागते समय छोड़ गया था, ताकि हाल ही में लगाए गए फलों के पौधों की निराई की जा सके।

मुझे क्षमा करना प्रभु! उसने काँपती आवाज़ में प्रार्थना की, लेकिन हम इस संपत्ति को क्यों छोड़ें, जिसकी क़ीमत उन्होंने नहीं दी। अच्छा हो, ये नारंगियाँ इस अन्याय के कारण कभी रसीली हों। क्या मालूम था कि वे लोग यहाँ आकर क़ब्ज़ा जमा लेंगे! जानते हो, ज़हर उगाते?

बुएइओन ने उसे पौधों को नष्ट करते नहीं देखा, पत्ते और उसके आँसू दोनों गिर रहे थे। पुल के पास खड़ा वह सोच रहा था कि कौन उसे समझाता है! वह किसी रहस्यमय घटना को देख पा रहा था, जो घटित होने वाली थी।

“बेहतर यही है कि इन अभागे खेतों से, जिन्हें ग़रीबों ने मालिकों के मोटे पेटों को भरने के लिए अपने पसीने से सींचा है, ज़हर ही पैदा हो...इतने हतभाग्य...इतने...इतने...इतने...इतने...”

इतने पर उसका चाक़ू ज़मीन में घुसता और पौधों की जड़ों के साथ बाहर आता। अनेक पौधे बिंध गए। अनेक पूरी तरह नष्ट हो गए।

मुझे ईसाइयों के कपड़ों की तरह ढकने वाला यह पाला नारंगी की इस झाड़ी के बीजों में महरूम करेगा—तभी तो मुझे दुःख हो रहा है।

वह हँसी, उसके धूप से तपे चेहरे में उसके दाँत चमक उठे—लेकिन कड़वी हँसी! जिसमें आवाज़ नहीं होती...।

दाँतों में ठिठकी हँसी, जो शायद चीर-चीर देगी।

वह चाँटे मारती रही, क्योंकि सभी पीड़ित थे। सूरज सिर पर चुका था। उसके विनाशक परिश्रम का पसीना उसके आँसुओं में मिल गया था—उन आँसुओं से जो बेकार और गंदा पानी है, जो नमकीन होने के कारण प्यासे हैं, आँसू कभी ख़ुशी-भरे नहीं होते, फिर भी, उस बार, जब वे काग़ज़ात के साथ खेतों का मालिकाना हक़ देने आए थे, तो वह ख़ुशी से रोई थी। हाँ, ख़ुशी से, जिसने उसकी छाती फुला दी थी। उसने प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए हाथ जोड़ दिए थे। वह प्रभु वर्जिन मेरी और संत मातेओ को लाख-लाख धन्यवाद देती रही थी, जिनकी कृपा से उन्हें खेत मिल रहे थे।

और बुएइओन?

वह अपने पंजों के बल पर स्थिर खड़ा मग्न होकर सोचता रहा, कौन जानता है रहस्य क्या है!

हे ईश्वर! अचानक उसने दूर आता शोर सुना; कुछ क्षणों में ख़ामोशी छा गई। भय से काइदूना के हाथ से चाक़ू गिर गया। उसे इतना भी समय नहीं मिला कि वह उसे उठा ले।

बुएइओन को खोजने वह घर से निकली। लेकिन वह अपने स्थान पर स्थिर ठिठकी-सी खड़ी रही। पहली गूँज पर उसका हैट गिर गया था और दूसरी पर चाक़ू की मूठ से उसका सिर छिल गया था।

दूसरी ओर पानी, झाग और बूँदें ख़ुशी-भरे स्वरों के साथ चीनी मिल के चक्के पर गिरती रहीं—कभी-कभी उसके बड़े-बड़े चमकदार बुलबुले बनते और इधर-उधर फैल जाते। चक्के की गड़गड़ाती आवाज़ के बाद पानी की धार प्रचंड शोर करती और फिर नए दाँते बूँदों की उस गहन दीवार को काटने के लिए थाम लेते और उड़ते जलकणों से बने इंद्रधनुष के बीच उसे ऐसे गायक के स्वर में बदल देते, जो रोलरों की खड़खड़ाती आवाज़ से परेशान हो गया हो।

शाम ढल गई, रात हो गई, उसे बुएइओन का कोई चिह्न नहीं मिला। जब शाम ढल रही थी, रोशनी कम हो रही थी, तो वह बुएइओन को दूर तक तलाशती जिस रास्ते से कई बार गुज़री थी, अब अँधेरा घिर आने पर उसी रास्ते से अंधों की भाँति टटोल-टटोलकर चलती हुई बुएइओन को चीख़-चीख़कर पुकार रही थी, नाइके बुएइओन कुइके! वह उसका पूरा नाम पुकार रही थी, “नाइके बुएइओन कुइके!

थकान से चूर उसके पाँव लड़खड़ा रहे थे, उसके नीचे से बार-बार रेत दरकती और छोटे-छोटे पत्थर लुढ़क जाते, छोटे-छोटे मेढक और टिड्डे बार-बार इधर-उधर भागते, गोल पत्थर आवाज़ों को गुँजाते। नाइके कुइके! और फिर नाइके कुइके।”...“नाइके बुएइओन कुइके। उसका वास्तविक नाम यही था। बुएइओन नाम तो उसे तब मिला था, जब वह अनिवार्य सैनिक जीवन की अवधि पूरी कर रहा था। तभी साथियों ने उसकी शक्ति और भलमनसाहत को देखते हुए उसे इस नाम से पुकारना शुरू किया था।

उसके गालों पर आँसू फुंसियों की पपड़ियों की तरह सूख गए थे। सुबह की धुँध ने उसका चेहरा मानो गड्ढों से भर दिया था। उसके बेटे, जो पहाड़ों में खो गए थे, उसका पति, उसके मकई के खेत, सिर्फ़ ख़ाली घर और वह स्वयं! कोई नहीं जानता कि उसने ये दिन कैसे जिए!

पहाड़ों से, जहाँ भगोड़े जाते हैं, लोग लौटते हैं—दुबलाए, थके, खोए-से, बढ़ी दाढ़ियाँ लिए, चिथड़े पहने, लेकिन लौटते हैं। सिर्फ़ वे ही नहीं लौटते, जिन्हें मौत लील गई हो। कहने के लिए...किसलिए कहने के लिए!...पहाड़ों से लोग लौटते हैं...अब उसके पोते हैं, उनके बेटों के बेटे...कहा जाता है कि उसके असली पोते नहीं हैं...लेकिन...लोग क्या जानते हैं?...वे उसके पोते हैं, असली पोते!...हाँ दादाओं को वे ज़िंदा चित्रफलक पर ऐसे ही लगते हैं। पहाड़ों से लोग लौटते हैं, सिर्फ़ वे नहीं लौटते जिन्हें मौत लील गई...लेकिन बुएइओन का फटा कपड़ा तक नहीं लौटता कुछ भी नहीं जैसे कभी उसका अस्तित्व ही रहा हो।

...दादी, कहानी सुनाओ।

आह! एक बार की बात है...हम अमीर बन गए, उन्होंने हमें अमीर बना दिया...एक सरकार थी, जिसने लोगों को खेतों की मिल्कियत देकर अमीर बना दिया था। सुन रहे हो तुम लोग? हम उससे माँगने नहीं गए थे, उन्होंने तुम्हारे दादा नाइके कुइके को शहर के चौक में बुलाया और वहाँ एक झाड़ की छाया में...मैं उनके साथ गई थी, जैसे अगर वे जाएँ, तो आज भी जाऊँगी...तुम्हारे दादा बहुत ताक़तवर और सुंदर थे—मकई की रोटी की तरह...लेकिन सुंदर किसे कहते हैं...झाड़ की छाया में, चौक में शहर के बहुत से लोग इकट्ठे थे। उनमें से एक ने कहना शुरू किया। उसने बहुत-सी बातें कहीं। उनमें से काफ़ी हमारी समझ में नहीं आईं। लेकिन एक बात है...वह व्यर्थ की बात नहीं कर रहा था। अंत में उसने खेतों के काग़ज़ात दिए, जिनसे हम संपत्ति वाले बन गए, मालिक बन गए...असली मालिक, अपनी ज़मीन के स्वामी...

“यह तो सपने जैसी बात है दादी। पोती ने कहा, जो अब स्कूल जाती थी।

इसे तो इतिहास में ही रखना होगा...।

नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है...?

सच बेटी, उन्होंने इतिहास को भुला दिया है। जिससे उन्हें असुविधा होती है, उसे नहीं रखते, लेकिन मैं जो कह रही हूँ, वह हुआ नहीं था...

सच तो यह है दादी, हमारी टीचर कहती हैं कि इतिहास धुर अतीत है, जैसे हम बहुत-सी पुरानी चीज़ें देखते हैं।

अगर वह सच कहती हैं...क्योंकि पुरानी चीज़ें—इतिहास की तरह, जिसकी तुलना वह किसी भी पुरानी चीज़ से करते हैं—झूठ को जन्म देती हैं, लेकिन मैं जो कह रही हूँ, वह झूठ को जन्म नहीं देगा, वह सच है, सच, जो घटित हुआ था...उन्होंने ज़मीन ग़रीबों में बाँट दी थी।

यहीं?

“हाँ, यहीं...आह! अगर तुम लोगों ने हमें तब देखा होता, जब हम ज़मीन के काग़ज़ात लेकर शहर से लौटे थे! हम लोग इतनी बातें करते रहे थे कि तीन रात सोए तक नहीं थे!...उन्होंने आतंक की डोर ढीली छोड़ दी...ओह! लेकिन काम शुरू हो चुका था, तब तुम्हारे दादा ने सब कुछ ठीक-ठाक करने के लिए क़मीज़ की आस्तीन चढ़ा ली...

“और वे खेत कहाँ हैं दादी?

छूट गए। उन्होंने छीन लिए। दूसरों की ज़मीन की तरह, दूसरी ज़मीन की तरह, उन पर ऐसा ताप पड़ा कि...

उन्होंने छीन लिए अमीरों को देने के लिए...?

एक लंबे मौन, पर धीरे-धीरे पलकें उठाने-गिराने के बाद झुर्रियों से भरी काइदूना ने शब्दों को साफ़-साफ़ बोलने की कोशिश में होंठों को मिलाते हुए खरखराती आवाज़ में कहा, ‘‘न उन्हें, हमें। सिर्फ़ विदेशी भाषा बोलने वालों को देने के लिए...दूसरी दुनिया के लोगों को...इसके लिए उन्होंने हम पर आकाश से बम बरसाए...

“तब वह दादी से ज़्यादा नहीं जानतीं?

फिर...मेरे बेटे वहाँ जाकर देखते हैं, हर तरफ झाड़-झंखाड़ और काँटे। मैं इस तरह की कल्पना नहीं करती, मैं वैसे ही देखती हूँ, जैसा था, जब मैंने देखा—विदेशियों के जहाज़ द्वारा पलक झपकते ही सब कुछ नष्ट कर दिए जाने से पहले—चीनी मिल, पुल बुइ इओन...सब कुछ मांस...सिर्फ़ उसे समझने की मनाही थी—ज़मीन को जवान मांस चाहिए था...मांस...हमारा मांस...जैसे तुम्हारा...क्योंकि यह ज़मीन भी किसी का मांस है। यह कुछ-कुछ माँ है, जो बेटे के बोने पर बेटी लौटाती है।

लेकिन जब उन्हें कुछ बोना नहीं था तो उन्होंने ले क्यों ली?

सिर्फ़ अपनी संपत्ति बनाने के लिए और कुछ नहीं...यही विदेशी चाहते थे कि हमें बर्बाद कर दें, हमारी ज़मीनों को बंजर बनाकर हमें बर्बाद कर दें ताकि वे निश्चित रूप से हमारी बर्बादी, हमारी ग़रीबी के स्वामी बन सकें...

यह तो सपना-सा है दादी!

हाँ, यह ऐसा सपना है, जैसे खुले में आग लगी हो, जो जल्दी बुझ जाएगी।

लेकिन आग फिर लग जाएगी...”

बेटी!

हमारी टीचर यही बताती हैं—एक आग, जो सबको अपने में लपेट लेगी, क्योंकि उड़ती हुई चिनगारियाँ छूट गई हैं और विचार उन्हें बुझा नहीं सकते। काइदूना चुप हो गई। उसने अपनी पोती अगुस्तीना को गोद में लेकर सहलाते हुए उसके कान में कहा, और मैं यह सब लोरी की तरह फिर से कहती हूँ...”

उसे दूसरे विचारों ने जकड़ लिया। लोग मौत के शिकंजे से लौट आए हैं। एक आग ने सबको जला दिया और काग़ज़ात पर दस्तख़त करके ज़मीन उसके असली मालिकों को, धरती के बेटों को—जैसे नाइके बुएइओन कुइके, जो विदेशियों द्वारा आकाश से की गई बमबारी में मर गए थे या खो गए थे—लौटा दिया। और अब वह देखेगी लोगों की प्रसन्नता के बीच सिर पर बँधे धुँधलाते पक्षियों के पंखों का प्रतीक।

स्रोत :
  • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 270-276)
  • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
  • रचनाकार : माइगुएल एंजल आस्तुरियस रोसालेस
  • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
  • संस्करण : 2008

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