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अरुणोदय
जय हो, कि स्वर्ग से छूट रही आशिष की ज्योतिधारा है।बज रहे किरण के तार, गूँजती है अंबर की गली-गली,
रामधारी सिंह दिनकर
वसंत के नाम पर
समय माँगता मूल्य मुक्ति का, देगा कौन मांस की बोटी?पर्वत पर आर्दश मिलेगा, खाएँ चलो घास की रोटी।
रामधारी सिंह दिनकर
पढ़क्कू की सूझ
कहा पढ़क्कू ने सुनकर, “तुम रहे सदा के कोरे!बेवक़ूफ़! मंतिख की बातें समझ सकोगे थोड़े!