आपकी खोज से संबंधित
परिणाम "s hri krishn ke bachpan ki kahaniyan ebooks"
Doha के संबंधित परिणाम "s hri krishn ke bachpan ki kahaniyan ebooks"
शरण युधिष्ठिर कृष्ण की
शरण युधिष्ठिर कृष्ण की, अथवा भजि नहिं जाय।जो इंद्रादि सहाय तोहूँ, पितॄन दैहूँ मिलाय॥
स्वरूपदास
सुन्दर कृष्ण प्रगट कहै
सुन्दर कृष्ण प्रगट कहै, मैं धारी यह देह।संतनि कै पीछे फिरौं, सुद्ध करन कौं येह॥
सुंदरदास
कै कृपाण की धार कै
कै कृपाण की धार कै, अनल-कुंड कौ ठाट।एही बीर-बधून के, द्वै अन्हान के घाट॥
वियोगी हरि
ब्रजदेवी के प्रेम की
ब्रजदेवी के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।ब्रह्मादिक बांछत रहैं, तिनके पद की धूरि॥
ध्रुवदास
सुर तरहू के फरन की
सुर-तरहू के फरन की, मति कीजौ उत आस।जाय बाल-बिधवा निकसि, जित ह्वै भरति उसाँस॥
वियोगी हरि
पद्मनाभ के नाभि की
पद्मनाभ के नाभि की, सुखमा सुठि सरसाय।निरखि भानुजा धार को, भ्रमि-भ्रमि भंवर भुलाय॥
रघुराजसिंह
करत भगति हरि की मिलै
करत भगति हरि की मिलै, गति जो चाहे नाहिं।ज्यों अनिच्छ तरु तें परै, युत पद माह के माहिं॥
दीनदयाल गिरि
जानति हरि की बाँसुरी
जानति हरि की बाँसुरी, उर-छेदन की पीर।फिरि तू मो उर छेदिबे, हा! क्यों होत अधीर॥
मोहन
आज कालि के नौल कवि
आज-कालि के नौल कवि, सुठि सुंदर सुकुमार।बूढ़े भूषण पै करैं, किमि कटाच्छ-मृदु-वार॥
वियोगी हरि
आस देस हित की हमैं
आस देस-हित की हमैं, नहिं तुम तें अब लेस।जैसे कंता घर रहे, तैसे रहे बिदेस॥
वियोगी हरि
हरि के सुमिरे दुख सबै
हरि के सुमिरे दुख सबै, लछु दीरघ अघ जाहिं।जैसे केहरि भूरि भय, करि मृग दूरि नसाहिं॥
दीनदयाल गिरि
जिन सतगुरु के बचन की
जिन सतगुरु के बचन की, करी नहीं परतीत।नहि संगत करी संत की, वह रोवें सिर पीट॥
संत शिवदयाल सिंह
संग पाय कै बुधन के
संग पाय कै बुधन के, छिद्र निहारैं नीच।बिलहिं विलोकै भुजंग ज्यों, रंगभवन के बीच॥
दीनदयाल गिरि
मरदाने के कवित ए
मरदाने के कवित ए, कहिहैं क्यों मति-मन्द।बैठि जनाने पढ़त जे, नित नख-सिख के छंद॥
वियोगी हरि
सर्व सिद्धि की सिद्धि हरि
सर्व सिद्धि की सिद्धि हरि, सब साधन को मूल।सर्व सिद्धि सिद्धार्थ-हरि, सिद्धि बिना सब स्थूल॥
संत परशुरामदेव
प्रिय-परिकर के सुघरजन
प्रिय-परिकर के सुघरजन, बिरही-प्रेम-निकेत।देखि कबै लपटायहों, उनतें हिय करिहेत॥
नागरीदास
कै सांई की बंदगी
कै सांई की बंदगी, कै सांई का ध्यांन।सुन्दर बंदा क्यों छिपै, बंदे सकल जिहांन॥