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लहि कै बल बलबीर को
लहि कै बल बलबीर को, निबल बली संसार।ज्यों चकोर बल चन्द के, चाभत निचै अँगार॥
दीनदयाल गिरि
जौं रोऊँ तौ बल घटै
जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
कबीर
अपना बल सब छाडि दे
अपना बल सब छाडि दे, सेवै तन मन लाइ।सुन्दर तब पिय रीझि करि, राखै कण्ठ लगाइ॥
सुंदरदास
श्रम सों बाढ़त देह बल
श्रम सों बाढ़त देह बल, सुख संपति धन कोष।बिनु सम्र बाढ़त रोग तन, रतन दरिद दुःख दोष॥
रत्नावली
बल बाढ़यो रितुपति-पवन
बल बाढ़्यो रितुपति-पवन, पुहुप कीन बलवीर।मदन-उरग-उर-बिच डसत, लाँघि उरग तिय-धीर॥
मोहन
व्रिड सुधि बुधि बल लखतही
व्रिड सुधि बुधि बल लखतही, माशुक आशुक जाय।अलि कठोर ज्यों बस कट, मृदु सरोज मुरझाय॥
दयाराम
लै बल बिक्रम बीन, कवि
लै बल-बिक्रम-बीन, कवि! किन छेड़त वह तान।उठै डोलि जेहिं सुनत हीं धरा, मेरू, ससि, भान॥
वियोगी हरि
निज बल कौं परिमान तुम
निज बल कौं परिमान तुम, तारै पतित बिसाल।कहा भयौ जु न हौं तरतु, तुम खिस्याहु गोपाल॥
मतिराम
सकल तू बल-छल छाँड़ि
सकल तू बल-छल छाँड़ि, मुग्ध सेवै मुरलीधर।मिटहिं सहा भव-द्वंद फंद, कटि रटि राधावर॥
चतुर्भुजदास
बल होया बंधन छुटे
बल होया बंधन छुटे, सब किछु होत उपाय।सब कुछ तुमरे हाथ में, तुम ही होत सहाय॥
गुरु तेग़ बहादुर
जुद्ध-मद्ध बल सों सबल
जुद्ध-मद्ध बल सों सबल, कला दिखाई देति।निरबल मकरिहु जाल बुनि, सरप-दरप हरि लेति॥
दुलारेलाल भार्गव
तन धन जन बल रूप को
तन धन जन बल रूप को, गरब करौ जनि कोय।को जानै बिधि गति रतन, छन में कछु कछु होय॥
रत्नावली
बल छुट क्यौं बंधन परे
बल छुट क्यौं बंधन परे, कछू न होत उपाय।कह नानक अब ओट हरि, गज जिउ होहु सहाय॥