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भोर... होने को है

bhor hone ko hai

विवेक चतुर्वेदी

विवेक चतुर्वेदी

भोर... होने को है

विवेक चतुर्वेदी

एक उनींदी रात में

नन्ही बेटी के ठंडे पैर

अपने हाथों में रखकर

ऊष्म करता हूँ

और मेरी जीवन-ऊर्जा

जाने कैसे

विराट हो जाती है

मैं अनुभव करता हूँ

कि भोर मेरे ये हाथ

फैल जाएँगे

मै सूर्य से ऊष्मा लेकर पृथ्वी तक पहुँचाऊँगा

पृथ्वी हो जाएगी एक छोटा अंडा

और मेरे हाथ

शतुरमुर्ग़ के परों-से विशाल...

मैं सेऊँगा पृथ्वी को

और गोल पृथ्वी से निकल आएँगी असंख्य छोटी पृथ्वियाँ

पृथ्वियाँ... जिनमें हैं बस

जंगल, नदी, पहाड़ और चिड़ियाएँ

है आदमी भी, पर बस

अमलतास के फूल की तरह

कहीं-कहीं

दानवीय मशीनें नहीं,

कोई शस्त्र

पूरी पृथ्वी एक-सी हरी

भय, भूख

दिल्ली, लाहौर

चंद्रमा पर जाने की हूक

औरत भी सोनजुही के फूल-सी खिली

गहाती गेहूँ

धूप के आँगन में

नेह की आँच से सेंकती रोटी

खुले स्तनों से निश्चिंत

पिलाती बच्चे को दूध

बेटी के ठंडे पैरों को

मेरे हाथ की ऊष्मा

मिलने से वो सो चुकी है

और उसके सपनों के

हरे मैदान की बागुड़ को

फाँद कर

छोटी-छोटी पृथ्वियाँ

दाख़िल हो रही हैं खेलने

हालाँकि आकाशगंगा में

घूमते कुछ नए हत्यारे

नन्ही पृथ्वियों को

घूरते खड़े हुए हैं

पर बेख़बर नन्हीं पृथ्वियाँ

रंगीन फूल वाली

फ़्रॉक पहने सितोलिया

खेल रही हैं

नन्ही बेटी इन्हें देखकर नींद में

मुस्कुरा रही है

भोर... होने को है।

स्रोत :
  • रचनाकार : विवेक चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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