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लेखक : गजानन माधव मुक्तिबोध

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशन वर्ष : 1943

श्रेणियाँ : गद्य

पृष्ठ : 86

तार सप्तक

लेखक: परिचय

प्रगतिशील काव्यधारा और समकालीन विचारधारा में भी अत्यंत प्रासंगिक कवियों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर में हुआ। उनके दादा जलगाँव, महाराष्ट्र के मूल निवासी थे जो ग्वालियर आकर बस गए थे। शमशेर बहादुर सिंह ने बताया है कि उनके किसी पूर्वज ने संभवतः ख़िलजी काल में मुग्धबोध नामक कोई आध्यात्मिक ग्रंथ लिखा था और उसके ही आधार पर उनके परिवार का नाम मुक्तिबोध चल पड़ा। उनके पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे, ओहदा अच्छा था पर आय अच्छी नहीं थी। उनकी आरंभिक शिक्षा उज्जैन, विदिशा, अमझरा आदि कई स्थानों पर हुई। पिता की नौकरी और तबादले के कारण उनकी पढ़ाई का सिलसिला टूटता-जुड़ता रहा, फलतः मिडिल स्कूल की परीक्षा में असफलता मिली जिसे मुक्तिबोध अपने जीवन की पहली महत्त्वपूर्ण घटना मानते थे। बचपन से उनका स्वभाव अंतर्मुखी और आत्मकेंद्री रहा था। वे अत्यंत जिज्ञासु भी थे। चित्त-विचलन भी उनकी एक प्रमुख प्रवृत्ति थी जिसे मुक्तिबोध स्वयं ‘स्थानांतरगामी प्रवृत्ति’ कहते थे। 

युवा जीवन में कविता और बौद्धिक गतिविधियों के प्रवेश के तुरंत बाद ही उनके जीवन में प्रेम का प्रवेश हुआ। बक़ौल शमशेर ‘एक जनून गहरा और सुंदर और स्थाई।’ शांताबाई से स्वेच्छापूर्ण इस विवाह के बाद उनके जीवन में उस संघर्ष और आर्थिक अभाव का प्रवेश हुआ जो अंतिम क्षण तक उनके साथ चलता रहा। नौकरी के लिए संघर्ष और सिद्धांतों से समझौता नहीं करने की उनकी धुन हमेशा आड़े आती रही। मास्टरी, रिपोर्टरी और एडिटरी के मुश्किल दिनों के बाद 1958 में राजनांदगाँव में प्रोफ़ेसरी के दिनों में जीवन कुछ आसान रहा तो ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ जैसी महत्त्वपूर्ण कविताओं की रचना की। 1962 में उनके द्वारा तैयार की गई पाठ्य पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ को सरकार द्वारा प्रतिबंधित किए जाने से उनके मन को आघात लगा था। जीवन भर साहित्य और साहित्येतर प्रश्नों को लेकर चिंतित रहे मुक्तिबोध 1964 के आरंभ में पक्षाघात के शिकार हुए तो फिर संभल नहीं सके। 11 सितंबर 1964 को अचेतावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई। 

47 साल की उनकी अल्पायु में ज़िंदगी का जो रूप रहा, जो रवैया, एटीट्यूड-वह उनकी रचनात्मकता में प्रकट रहा। उन्होंने जिस कठोर यथार्थ को भोगा उसकी अभिव्यक्ति ‘फंतासी’ या ‘फ़ैंटेसी’ के शिल्प में की है। ‘अँधेरे में’ और ब्रह्मराक्षस’ सरीखी उनकी लंबी प्रसिद्ध कविताओं सहित अन्य कई कविताओं में कम-बेशी मात्रा में यही शिल्प उतरता हुआ नज़र आता है। हिंदी कविता में फ़ैंटेसी की पहचान मुक्तिबोध से ही होती है। यह फ़ैंटेसी कविता वातावरण के सृजन, वस्तुस्थिति के प्रत्यक्षीकरण, आत्मकथन, बिंब रचना, कर्ता के प्रवेश, काव्यवस्तु और काव्य-कर्ता के बीच संबंध निर्माण और अंतःक्रियाओं के सूत्रों का सृजन, कथ्य का उभार, प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से तय दिशा की ओर प्रस्थान, फ़ैंटेसी से बाहर सचेत वाचक की टिप्पणी आदि प्रक्रियाओं से गुज़रती है जहाँ मुक्तिबोध कोई विशिष्ट क्रम नहीं बनने देते और अलग-अलग कविताओं में बार-बार हेर-फेर से उसे चुनौती देते हैं। बक़ौल नामवर सिंह “नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है, जो छायावाद में निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपने युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा को चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।” 

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