नई कविता के सर्वप्रमुख कवियों में से एक श्रीनरेश मेहता का जन्म मालवा के शाजापुर क़स्बे में 15 फ़रवरी 1922 को हुआ। उनका नाम ‘पूर्णशंकर’ रखा गया। नरसिंहगढ़ की राजमाता ने एक काव्य सभा में उनके काव्यपाठ पर प्रसन्न हो उन्हें ‘नरेश’ की उपाधि दी। कालांतर में उन्होंने यही नाम रख लिया।
वह दो-ढाई वर्ष के थे तो उनकी माता की मृत्यु हो गई। इस संताप में पिता तटस्थ और एकाकी हो गए। उन्हें आश्रय चाचा शंकरलाल मेहता का मिला, जिन्होंने पहले अपने पास रख उनका लालन-पालन किया, बाद में जब उन्हें बुआ के पास रहने के लिए भेजा गया, तब भी उनका ख़र्च उठाते रहे। नरेश मेहता ने स्वीकार किया है—‘‘मेरे व्यक्तित्व में दो व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं, साहित्यिक असंग व्यक्तित्व मेरे पिता का है और उदार, उल्लसित और वैभवपूर्ण व्यक्तित्व मेरे चाचा का।’’ बुआ के यहाँ वह स्नेह से रिक्त रहे। उन दिनों के बारे में उन्होंने लिखा है—‘‘घरों में जैसे फ़ालतू चीज़ें एक जगह डाल दी जाती है, आप भी कहीं डल जाइए।’’ बड़ी बहन शांति उनका स्नेहमयी संबल बनी रहीं। उनकी इस पारिवारिक पृष्ठभूमि की उनके व्यक्तित्व निर्माण में बड़ी भूमिका रही। उनका एकाकीपन उन्हें प्रकृति के निकट लेकर आया। प्रकृति के प्रति संवेदन उन्हें प्रेरित करता रहा, प्रकृति उनके स्नेह का मूल आधार है।
श्रीनरेश मेहता हिंदी कविता में भारतीय आभिजात्य एवं सांस्कृतिक परंपरा के कवि कहे जाते हैं। नई कविता की अतिबौद्धिकता के प्रतिरोध में वह परंपरा के सांस्कृतिक-राग की ओर उन्मुख हुए। वेद-उपनिषद और रामायण-महाभारत महाकाव्यों की मिथकीय चेतना का उनके काव्य में प्रवेश हुआ। इस कारण उन्हें ‘वैष्णव परंपरा का कवि’ भी कहा गया है।
उनका काव्य-लेखन 1935-36 से आरंभ हुआ। मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, नेमीचंद्र जैन, सोहनलाल द्विवेदी, सुभद्राकुमारी चौहान सरीखे कवियों से प्रशंसा पाकर वह उज्जैन में विद्यार्थी जीवन से ही कवि के रूप में प्रसिद्ध होने लगे थे। कालांतर में वह पढ़ाई के लिए काशी गए। वहीं पंडित केशवप्रसाद मिश्र की प्रेरणा से वेदों की ओर उन्मुख हुए। वह ‘दूसरा सप्तक’ में शामिल प्रमुख कवियों में से एक हैं।
कविताओं के अलावे उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, आलोचना, अनुवाद आदि विधाओं में भी रचनात्मक योगदान किया है।
उनके साहित्यिक जीवन के निर्माण में उनकी पत्नी महिमा मेहता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने न केवल उनके पारिवारिक आर्थिक भार को कम किया बल्कि उन्हें साहित्य सृजन के लिए लगातार प्रेरित करती रहीं। दिल्ली, इलाहाबाद, उज्जैन आदि कई शहरों में अपना जीवन गुज़ारते हुए जीवन के उत्तरकाल में वह भोपाल आकर बस गए। यहीं 22 नवंबर 2000 को उनका देहावसान हुआ।
उन्हें 1988 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार और 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
प्रमुख कृतियाँ
काव्य-संग्रह : बनपाखी! सुनो!!, बोलने दो चीड़ को, मेरा समर्पित एकांत, उत्सवा, तुम मेरा मौन हो, अरण्या, आख़िर समुद्र से तात्पर्य, पिछले दिनों नंगे पैरों, देखना एक दिन, तुम मेरा मौन हो, चैत्या
खंडकाव्य : संशय की एक रात, महाप्रस्थान, प्रवाद पर्व, शबरी, प्रार्थना पुरुष, पुरुष
उपन्यास : डूबते मस्तूल, यह पथ बंधु था, धूमकेतु: एक श्रुति, नदी यशस्वी है, दो एकांत, प्रथम फाल्गुन, उत्तरकथा भाग-1, उत्तरकथा भाग-2
कहानी-संग्रह : तथापि, एक समर्पित महिला, जलसाघर
नाटक : सुबह के घंटे, खंडित यात्राएँ
रेडियो एकांकी : सनोवर के फूल, पिछली रात की बरफ़
यात्रावृत्त : साधु न चलै जमात
संस्मरण : प्रदक्षिणा: अपने समय की
संपादन : वाग्देवी, गाँधी गाथा, हिंदी साहित्य संमेलन का इतिहास
अनुवाद : आधी रात की दस्तक
आलोचना/विचार : काव्य का वैष्णव व्यक्तित्व, मुक्तिबोध: एक अवधूत कविता, शब्द पुरुष: अज्ञेय, काव्यात्मकता दिक्काल, हम अनिकेत
जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली
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