'शब्द' बसंत त्रिपाठी की कहानियाँ पिछले बीस-पचीस बरसों के अराजक और अमानवीय शहरीकरण के दौर में, अमानवीयकरण की जटिल, त्रासद और निराशाजनक प्रक्रियाओं को रेखांकित करती हुई बढ़ती चली जाती हैं। इन कहानियों में हमारे समय के इस मार्मिक सच की बार-बार प्रतीति मिलती रहती है कि हमारे व$क्त में सिर्फ आदमी बने रहना कितना मुश्किल हो गया है! इस संग्रह की सभी कहानियाँ अपने समय, समाज और संस्कृति के प्रति, गहरी प्रतिबद्धता-सम्बद्धता जताते हुए, अगर हमें इतनी सच्ची और समकालीन जान पड़ती है तो इसका एक कारण मुझे बसंत त्रिपाठी की अपनी लेखकीय चेतना, इस लेखकीय चेतना की प्रश्नाकुलता और जागरुकता में भी नजर आता है। इन कहानियों की रेंज बड़ी है तो इनका डिक्शन भी व्यापक है जो मुझे नागरी जीवन को समझ रहे नागरी लेखन के अनिवार्य तत्व जान पड़ते हैं। यहाँ विभिन्न परिवेशों से, अलग-अलग पृष्ठभूमि लिए हुए, तरह-तरह के पात्र आते हैं। किसी लेखक के पहले ही कथा-संग्रह में दुहरावों के लिए ऐसा प्रतिरोध बहुत कम नजर आता है। मुझे लगता है कि खुद को न दुहराने का उनका लेखकीय स्वभाव भी कहीं उनकी लेखकीय चेतना और आलोचनात्मक विवेक से ही बाहर आता है। हम जानते हैं कि बरसों से बसंत त्रिपाठी कविता और आलोचना के क्षेत्र में भी अपनी सर्जनात्मक सक्रियताएँ बनाए हुए हैं, लेकिन ये कहानियाँ अपनी चिन्ताओं और चिन्तन से उनको अपनी दोनों विधाओं से अलग करती है।
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