साहित्य और संस्कृति, समाज के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं। साहित्य में परम्परा पर विचार करते हुए रामविलास जी ने इसे चार सन्दर्भों में देखा है- सामाजिक परम्परा, सांस्कृतिक परम्परा, भाषिक परम्परा और साहित्यिक परम्परा । सामाजिक परम्पराएँ क्रमशः सांस्कृतिक परम्पराओं को, सांस्कृतिक परम्पराएँ भाषिक परम्पराओं को और भाषिक परम्पराएँ साहित्यिक परम्पराओं को प्रभावित करती हैं।
प्रखर आलोचक, चिंतक, निबंधकार और आरंभ में उदीयमान कवि रहे रामविलास शर्मा का जन्म 10 अक्टूबर 1912 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के ऊँचगाँव सानी में हुआ। अँग्रेज़ी साहित्य में उच्च शिक्षा के साथ वह बतौर प्राध्यापक कार्यरत रहे और 1974 में कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिंदी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। प्राध्यापन के पेशे के पहले से और इसके समानांतर और फिर सेवानिवृत्ति के बाद उनकी साहित्यिक यात्रा अपनी पूरी प्रखरता से जारी रही।
‘तार सप्तक’ में संभावनाशील कवि के रूप में शामिल किए गए रामविलास शर्मा ने अपनी कविता-अभिरुचि और कविता-यात्रा की संभावना के संकेत आरंभ में ही दे दिए थे जब ‘तार सप्तक’ के वक्तव्य में यह कहा था—‘‘कविता लिखने की ओर मेरी रुचि बराबर रही है लेकिन लिखा है मैंने कम। जो व्यक्ति एक विकासोन्मुख साहित्य की आवश्यकताओं को चीन्ह कर उनके अनुरूप गद्य लिखे, वह कवि हो भी कैसे सकता है ? मेरे बहुत से लेख साहित्य के अशाश्वत सत्य, वाद-विवादों से पूर्ण हैं। कविता में शाश्वत सत्य की मैंने खोज की हो, यह भी दिल पर हाथ रखकर नहीं कह सकता।...पता नहीं कविता पढ़कर अपरिचित मित्र मेरे बारे में किस तरह की कल्पना करेंगे। मैं उन्हें इस बात का आश्वासन देना चाहता हूँ: जैसे वे मेरी कविताओं के बारे में सीरियस नहीं हैं, वैसे मैं भी नहीं हूँ। ...आशा है यह प्रकाशन अंतिम होगा।’’
उनके दो कविता-संग्रह ‘रूपतरंग’ (1956) और ‘सदियों के सोए जाग उठे’ (1988) प्रकाशित हैं। रूपतरंग को 1990 में ‘रूपतरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि’ के रूप में प्रकाशित किया गया जिसके पहले भाग में उनकी कविताएँ और दूसरे भाग में उनके द्वारा अनुदित बल्गारिया के विद्रोही कवि निकोला वप्त्सारोव की कविताएँ हैं। तीसरे भाग में ‘प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि’ शीर्षक के अंतर्गत निबंध रखे गए हैं। 1988 में प्रकाशित ‘सदियों के सोए जाग उठे’ काव्य-संग्रह में 1945-47 में उनके द्वारा रचित राजनीतिक कविताओं का संकलन किया गया।
उनकी कविता-यात्रा संक्षिप्त रही लेकिन उनका काव्य-अनुभव भावस्रोत के रूप में उनके आलोचक के साथ हमेशा खड़ा रहा। उन्होंने स्वयं कहा—‘मेरे समस्त विवेचनात्मक गद्य के भावस्रोत यहीं हैं। जो लोग पूछते हैं, कविता लिखना क्यों छोड़ दिया, उन्हें मैं कह सकता हूँ, अपनी कविता की व्याख्या ही तो करता रहा हूँ।’
आलोचना के क्षेत्र में उनकी अद्वितीय उपस्थिति रही है जहाँ उनकी पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें प्रगति और परंपरा (1949), साहित्य और संस्कृति (1949), प्रेमचंद और उनका युग (1952), प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ (1954), आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना (1955), विराम चिह्न (1957), आस्था और सौंदर्य (1961), भाषा और समाज (1961), निराला की साहित्य साधना (तीन खंड 1969, 72, 76), भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा (1975), महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण (1977), नई कविता और अस्तित्ववाद (1978), परंपरा का मूल्यांकन (1981), भाषा, युगबोध और कविता (1981), कथा विवेचना और गद्यशिल्प (1982), मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य (1984), भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ (1985), भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंडों 1979-81), भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद (दो खंडों में 1982), स्वाधीनता संग्राम : बदलते परिप्रेक्ष्य (1992), मार्क्स, त्रोत्स्की और एशियाई समाज (1986), मार्क्स और पिछड़े हुए समाज (1986), भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद (1992), पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद (1994), भारतीय नवजागरण और यूरोप (1996), इतिहास दर्शन (1995), भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश (दो खंडों में 1999) आदि प्रमुख हैं।
‘अपनी धरती अपने लोग’ तीन खंडों में प्रकाशित उनका आत्मजीवन है। ‘चार दिन’ उनका एकमात्र उपन्यास है। इसके अतिरिक्त, उनके साक्षात्कार ‘मेरे साक्षात्कार’ शीर्षक से और पत्र-संवाद ‘मित्र-संवाद’ (केदारनाथ अग्रवाल से पत्र-व्यवहार) और ‘अत्र कुशलं तत्रास्तु’ (अमृतलाल नागर से पत्र-व्यवहार) शीर्षक से प्रकाशित हैं।
वह साहित्य अकादेमी पुरस्कार, श्लाका सम्मान, भारत-भारती पुरस्कार, व्यास सम्मान, शताब्दी सम्मान आदि से नवाज़े गए।
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