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लेखक: परिचय

राधाकृष्ण का जन्म राँची के अपर बाज़ार में 18 सितंबर 1910 को हुआ था। इस दिन अनंत चतुर्दशी थी। 


राधाकृष्ण के पिता मुंशी रामजतन कचहरी में मुंशी का काम करते थे। इनकी छह पुत्रियाँ थीं। उनके बाद राधाकृष्ण पैदा हुए। राधाकृष्ण जब चार साल के थे, पिता का निधन हो गया। घर में माँ और राधाकृष्ण ही बच गए। अपने अभाव और गुरबत की जिंदगी के बारे में उन्होंने ख़ुद लिखा है, 'उस समय हम लोग ग़रीबी के बीच से गुज़र रहे थे। पिता जी मर चुके थे। घर में कर्ज और ग़रीबी छोड़ कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न। किसी प्रकार कुटौना-पिसौना करके माँ ग़रीब गुज़ारा चला लेती थी। पास-पड़ोस के लोग हम लोगों को तुच्छ समझते थे। अकसर हम लोगों की उपेक्षा-अवहेलना करके हमारा मज़ाक उड़ाना ही उन लोगों को पसंद था। खेलते समय हमजोली लड़के भी मुझसे घृणा करते थे। वे घृणा और उपेक्षा को ही अपना महत्व समझते। पर मेरे सामने ऐसे लड़के भी आए जो पढ़ने-लिखने में तो नहीं, पर प्रेम का जवाब प्रेम से दे सकते थे। वैसे मित्रों के साथ मटरगश्ती करना मुझे अच्छा लगता था। उन्हीं मित्रों के साथ रहकर मैंने बीड़ी पीना और पान के साथ जर्दा खाना सीख लिया था।'


इस तरह उनका बचपन बीता। स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। कसी तरह एक पुस्तकालय से पढ़ने-लिखने का सिलसिला बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। इसी दौरान लिखने का क्रम बना। वहाँ मन नहीं लगा तो एक बस में कंडक्टर हो गए। यह बस प्रतिदिन शाम को राँची से लोहरदगा जाती। बाद में 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इस बीच लोहरदगा में बस रुकती और जो समय बचता, उसमें वह कहानी लेखन का काम करते। उनकी पहली कहानी छपी 'गल्प माला' में। यह 1929 का साल था। इस पत्रिका को जयशंकर 'प्रसाद' के मामा अंबिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था—सिन्हा साहब। माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखते रहे। प्रेमचंद राधाकृष्ण की प्रतिभा देख कायल हो चुके थे। इसलिए 'हंस' में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। आगे चलकर राधाकृष्ण प्रेमचंद परिवार का हिस्सा ही बन गए।

जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने 'हंस' का काम देखने के लिए उन्हें राँची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानी' पत्रिका निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे अधिक दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। वे मुंबई गए और वहाँ कथा और संवाद लिखने का काम करने लगे। पर मुंबई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर राँची चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। इसके बाद कोलकाता में नौकरी की। 1941 में खिदिरपुर में जापानियों के आक्रमण से कोलकाता में भगदड़ मच गई। राधाकृष्ण कोलकाता को विदा कह राँची आ गए। इस बीच माँ की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। 

अमृत राय ने लिखा है, 'मेरी पहली भेंट राधाकृष्ण सेद 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर मेरे पिता का देहांत अक्तूबर 4936 में हुआ था और उधर लाल बाबू—राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थे—की माँ का देहांत उसी के दो-चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लाल बाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितांत सगी एक माँ बची थी, जिसके न रहने पर लाल बाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।'
इसी बीच 1942 में उनकी शादी हो गई। विवाह के बाद उन्होंने राँची रहने का निश्चय किया और अंत तक राँची में ही रहे। 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासी' के संपादक बनाए गए और अवकाश प्राप्ति तक वे इसी पद पर बने रहे।

इसी बीच राधाकृष्ण जी पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर बनाए गए। इसका जगदीशचंद्र माथुर को है। वे
आकाशवाणी के महानिदेशक थे। बाद में जब राँची में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना 27 जुलाई 1957 को हुई तो यहीं आ गए। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि में उनकी लेखनी लगातार सक्रिय रही। 
पाँच पुत्रों एवं एक पुत्री के पिता राधाकृष्ण 3 फरवरी 1979 को दुनिया छोड़ गए। 

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