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पुस्तक: परिचय

यह वृंदावन लाल वर्मा जी का एक मौलिक लघु उपन्यास है। 'प्रेम की भेंट' प्रेम के त्रिकोण की एक छोटी-सी कहानी है।

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लेखक: परिचय

वर्माजी का जन्म उत्तर प्रदेश के मऊरानीपुर (झाँसी) नामक स्थान में 9 जनवरी सन्‌ 1889 को हुआ। आपके पिता श्री अयोध्या प्रसाद जी झाँसी के तहसीलदार के कार्यालय में “रजिस्ट्रार कानूसगो' थे। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत ही आप “मुहिरर्र' का काम करने लगे। कुछ ही समाए बाद आपके मन में वकील बनने की भावना जगी और मुहिरर्र के पद से त्यागपत्र देकर आगे की पढ़ाई के लिए आपने विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर में जाकर दाखिला' ले लिया। ग्वालियर से बी० ए० करने के उपरांत आगरा जाकर एल-एल० बी० की पढ़ाई प्रारंभ कर दी। कुछ दिन के लिए आपने 'मुफीद आम हाई स्कूल’ मे तीस रुपए मासिक की नौकरी भी की तथा अध्यवसाय एवं लगन से एल० एल० बी० हो गए। सन्‌ 1916 में आपने वकालत प्रारंभ की। वकालत की कम आमदनी से निराश होकर आपने काशी के बाबू गौरीशंकर प्रसाद की कृपा से नेपाल के राजगुरु को हिंदी पढ़ाने के लिए बाहर जाने का निश्चय किया, लेकिन पिता ने नहीं जाने दिया। वकालत में मन लगाया और, वकालत ऐसी चली कि मुकदमे दूसरों को भी देने पड़े। 

कचहरी से समय निकलने पर मेटरलिंक, अनातोले फ्रांस, मौलियर, मोपासां, इमर्सन, टालस्टाय और पुश्किन की कृतियों को पढ़ने लगे। धीरे-धीरे कुश्ती का शौक भी लग गया और लंगोट-लाठी समेत नित्य व्यायाम करने लगे। स्वाध्याय करते रहने के कारण मन में लेखक बनने की धुन सवार हुई और एक दिन देखते-ही-देखते आपने 'नारान्तक बध' नामक एक नाटक लिख डाला, जिसे आपने स्वयं मंचन कर भी देखा था। सन्‌ 1908 में आपने 'महात्मा बुद्ध का जीवन चरित्र' लिखने के अतिरिक्त शेक्सपियर के “टैम्पेस्ट' का अनुवाद भी किया; और श्री मैथिलीशरण गुप्त को दे दिया, जो उनसे कहीं खो गया। सबसे पहले वर्माजी की “राखी बन्द भाई' तथा 'राजपूत की तलवार' नामक दो कहानियाँ सन्‌ 1909 में “सरस्वती” में छपी थीं। सन्‌ 1910 में भी आपकी 'सफ़ेजिस्ट की पत्नी” नामक कहानी 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी। उसी वर्ष 'सेनापति ऊदल' नामक एक नाटक भी छपा था, जिसे सरकार ने जब्त कर लिया था और 2 वर्ष तक पुलिस बर्माजी को तंग करती रही। जब वर्माजी को कहानी-लेखन में सफलता मिलने लगी तो आपने उपन्यास लिखने का संकल्प किया। परिणामस्वरूप सन्‌ 1927 में आपका पहला उपस्थास “गढ़ कुण्डार' आया और सन्‌ 1930 में 'विराटा की पत्मिनी' नामक उपन्यास। ये दोनों उपन्यास तुरंत “गंगा पुस्तकमाला लखनऊ' की ओर से प्रकाशित हुआ। इन उपन्यासों  की रचना के उपरांत फिर कुछ दिन के लिए आप साहित्य से दूर हो गए और अपनी वकालत की मोटी कमाई के 50-60 हज़ार रुपए एक फार्म बनाने में लगा दिए। पथरीली और ऊसर जमीन होने के कारण आप उसमें सफल न हो सके और अपनी कमाई की रकम के अतिरिक्त 60 हज़ार रुपए कर्ज़े के भी डुबा दिए।


फ़िर दस वर्ष बाद आपने 'कभी न कभी', उपस्यास तथा एक नाटक की रचना आपने की। इसी बीच आपके सुपुत्र श्री सत्यदेव वर्मा ने मयूर प्रकाशन' प्रारंभ करके आपको साहित्य-रचना के लिए प्रेरित किया और इस तरह अंतिम समय तक अहर्निश साहित्य-रचना में ही लगे रहे। 


सन्‌ 1942 के बाद रचित वर्माजी की रचनाओं का काल-क्रमानुसार विवरण इस प्रकार है— 'मुसाहिबजू' (उपन्यास, 1943), "कलाकार का दण्ड' (कहानी-संग्रह,1943), 'झाँसी की रानी” (उपस्यास, 1946), 'कचनार' (उपन्यास, 1947), “अचल मेरा कोई” (उपन्यास, 1947) झाँसी की रानी' (नाटक, 1947), “राखी की लाज' (उपन्यास, 1947), "कश्मीर का काँटा' (नाटक, 1947), 'माधवजी सिन्धिया' (उपन्यास, 1949), “टूटे काँटें” (उपन्यास, 1949), 'मृगनयनी' (उपन्यास, 1950), 'सोना' (उपन्यास, 1950), 'हंस मयूर' (नाटक 1950), '

बाँस की फाँस फॉँस' (नाटक, 1950), 'पीले हाथ' (नाटक, 1950), “लो भाई पंचो, लो' (एकांकी, 1950), 'तोषी' (कहानी-संग्रह, 1950), 'पूर्व की ओर' (नाटक, 1951), 'केवट' (नाटक, 1951), 'नील कंठ' (नाटक, 1951), 'फूलों की बोली (नाटक, 1951), 'कनेर' (एकांकी-संग्रह, 1951), सगुन' (नाटक, 1951), 'जहाँदारशाह' (नाटक, 1951), 'अमर बेल” (उपन्यास, 1952), 'मंगल-सूत्र” (नाटक, 1952), 'खिलौने की खोज' (नाटक, 952), 'बीरबल' (नाटक, 1953), “ललित विक्रम” (नाटक, 1953), “भुवन विक्रम' (उपन्यास, 954), 'अहिल्या बाई" (उपन्यास, 1955), 'शरणागत' (कहानी-संग्रह, 1955), “निस्ता' (नाटक, 1956), 'देखा-देखी' (नाटक, 1956), “दबे पाँव” (शिकार-कहानियाँ, 1957), 'अंगूठी का दान (कहानी-संप्रह, 1957), “अकबरपुर के अमर मीर' (कहानियाँ, 1957), 'ऐसिहासिक कहानियाँ (1957), 'मेंढकी का व्याह' (कहानियाँ, 1957) तथा 'बुल्देलखंड के लोकगीत' (1957) आदि । आपकी 'शबनम', 'आहत' और लास कमल” अप्रकाशित रचनाएँ हैं। इनमें से झांसी की रानी' तथा 'मृगनयनी' को अति पुरस्कृत रचनाएँ हैं।

वर्माजी अच्छे निशानेबाज भी थे। अपने शिकारी-जीवन की अनुभूतियाँ आपने 'दंबे पाँव' नामक पुस्तक में दर्ज कर दी हैं। एक लेखक होने के साथ-साथ वर्माजी सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। आपके द्वारा स्थापित झाँसी का 'कोआपरेटिव बैंक' आपकी कर्मठता का द्योतक है। आप अनेक वर्ष इस बैंक के प्रबन्ध-निदेशक होने के साथ-साथ लगभग 2 वर्ष तक झाँसी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन भी रहे। कुछ दिन तक आपका क्रांतिकारियों से भी गहरे संबंध रहे। बीच-बीच में आप उनकी आर्थिक सहायता भी करते रहते थे। अहिंसा में आपका बहुत कम विश्वास था। इस संबंध में आपकी यह पंक्तियाँ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं--“'गान्धीजी के अहिसात्मक आल्दोलन ने जनता को निर्भीक तो बताया, परंतु हमें सन्‌ 1857, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, तिलक, गोखले तथा दादाभाई नौरोजी इत्यादि और अन्य आतंकवादियों के कार्यों को सामूहिक रूप से ध्यान में रखना चाहिए। सुभाष बोस और आज़ाद हिन्द फौज तथा नाविक विद्रोह को भी हमें नहीं भूलना चाहिए।”


आपने अपने संपूर्ण जीवन की गाथा 'अपनी कहानी” नामक पुस्तक में वर्णित की है। आपकी साहित्य-सेवाओं के लिए आगरा विश्वविद्यालय ने आपको डी० लिटृ० की मानद उपाधि प्रदान की, वहीं भारत के राष्ट्रपति ने भी आपको 'पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की सर्वोच्च उपाधि "साहित्य वाचस्पति' से भी आपको सुशोभित किया गया। 


23 फरवरी सन्‌ 1969 को आपका निधन हुआ।

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