यह प्रतापनारायण मिश्र जी के निबंधों का एक संग्रह है जिनमें उन्होंने जीवन व साहित्य पर समीक्षात्मक विवेचना की है।
कवि, गद्यकार और संपादक प्रतापनारायण मिश्र का जन्म 24 सितम्बर 1856 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बैजनाथ बैथर में हुआ। वह हिंदी खड़ी बोली और भारतेंदु युग के उन्नायकों में से एक थे। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद विद्यालयी शिक्षा से उनका मन विरत हो गया और स्वाध्याय के बल पर ही अपनी प्रतिभा का विस्तार किया। वह छात्रावस्था से ही ‘कविवचनसुधा’ के नियमित पाठक रहे थे और बाद में स्वयं मौलिक रचना का अभ्यास करने लगे। समकालीन प्रखर साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रति उनकी अनन्य श्रद्धा रही और उनकी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषा पर भी भारतेंदु का व्यापक प्रभाव रहा। इस कारण वह 'प्रतिभारतेन्दु' और 'द्वितीयचन्द्र' भी पुकारे जाते थे। उनकी पहली काव्य-कृति ‘प्रेम पुष्पांजलि’ 1883 में प्रकाशित हुई। 1883 में ही होली के दिन उन्होंने मित्रों के सहयोग से 'ब्राह्मण' नामक मासिक पत्र की शुरुआत की जो भारतेंदु युग के प्रतिनिधि पत्रों में से एक था और उनकी रचनात्मक गतिविधियों का प्रमुख साधन था। वह सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक कार्यों में रुचि लेते थे और इस संबंध में अपने पत्र में लेख लिखते थे। उन्होंने कानपुर में एक ‘रसिक समाज’ की स्थापना की थी और कांग्रेस के कार्यक्रमों में भाग लेते थे।
उनके गद्य-पद्य का ध्येय देश-प्रेम का प्रसार, समाज-सुधार, नैतिकता का पाठ, भाषा का प्रसार एवं विकास और जनसामान्य का मनोरंजन था। हिंदी गद्य के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उन्होंने जन-प्रचलित खड़ी बोली का उपयोग अपने लेखन में किया। तत्सम और तद्भव शब्दों के साथ ही अरबी, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को भी ग्रहण किया है। कहावतों और मुहावरों के प्रयोग में उन्होंने अत्यंत कुशलता दिखाई है।
‘प्रेम पुष्पांजलि’, ‘मन की लहर’, ‘लोकोक्तिशतक’, ‘कानपुर महात्मय’, ‘तृप्यंताम्’, ‘दंगल खंड’, ‘ब्रेडला स्वागत’, ‘तारापात पचीसी’, ‘दीवाने बरहमन’, ‘शोकाश्रु’, ‘बेगारी विलाप’, ‘प्रताप लहरी’ उनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। उनकी प्रमुख काव्य-रचनाओं को 'प्रतापनारायण मिश्र कवितावली' में और प्रमुख निबंधों को ‘प्रतापनारायण ग्रंथावली (खंड-1)’ में संकलित किया गया है. उन्होंने ‘कलि-कौतुक रूपक’, ‘हठी-हमीर’, ‘भारत दुर्दशा रूपक’, ‘दूध का दूध पानी का पानी’, ‘जुआरी-खुआरी’, ‘संगीत शाकुंतलम्’ आदि नाट्य-कृतियों की भी रचना की है। उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में भी योगदान दिया जिनमें बंकिमचन्द्र के उपन्यासों का अनुवाद उल्लेखनीय है।
विभिन्न रोगों और लापरवाही के कारण युवावस्था से उनका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया था। 6 जुलाई, 1894 को 38 वर्ष की अल्पायु में 'भारतेंदुमंडल' के इस नक्षत्र का अवसान हो गया।
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