दुनिया का सबसे अनमोल रतन प्रेमचंद की पहली कहानी थी। यह कहानी कानपुर से प्रकाशित होने वाली उर्दू पत्रिका ज़माना में १९०७ में प्रकाशित हुई थी। यह प्रेमचंद के कहानी संग्रह सोज़े वतन में संकलित है। यह उस कहानी संग्रह का हिस्सा है जिसे अंग्रेज़ सरकार ने बैन कर दिया था। इसमें दिलफ़रेब दिलफ़िगार से कहती है कि ‘अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ।’ दिलफ़रेब दो बार नाकाम हो कर लौटता है मगर तीसरी बार जब वह आता है तो वह रत्न खोजने में कामयाब हो जाता है जिसके सामने दुनिया की हर चीज़ फीकी है। निया का सबसे अनमोल रतन प्रेमचंद की पहली कहानी थी। इसमें दिलफरेब दिलफिगार से कहती है कि- "अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा दुनिया की सबसे अनमोल चीज लेकर मेरे दरबार में आ।" उसे पहला रतन फाँसी पर चढ़ने वाले काले चोर की आँखों से टपका हुआ आँसू मिला किंतु दिलफरेब ने वह स्वीकार नहीं किया। वह दूसरा रतन प्रेमी तथा प्रेमिका की चिता की मुट्ठीभर राख लेकर दिलफरेब के दरबार में गया किंतु वह भी सबसे अनमोल रतन नहीं माना गया। खून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया का सबसे अनमोल रतन माना गया। इस कहानी में प्रेमचंद का देशप्रेम साफ़ झलकता है।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के पास लमही नामक गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। नाम रखा गया धनपतराय श्रीवास्तव। पिता का नाम मुंशी अजायबलाल और माता का नाम आनंदी देवी था। किसानी से गुज़ारा न होता था तो पिता ने डाकख़ाने में 20 रुपए पगार पर मुंशी की नौकरी कर ली थी। सात वर्ष के थे तो माता का देहांत हो गया और पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। पंद्रह की आयु में उनका विवाह करा दिया गया और सोलह की आयु में पिता चल बसे।
उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव के मदरसे में हुई। गाँव में रहते थे और हाई स्कूल की पढ़ाई करने शहर जाते थे। ट्यूशन पढ़ाते थे और रात में कुप्पी जलाकर ख़ुद पढ़ते थे। दसवीं पास कर कॉलेज में दाख़िला लिया। मेहनत बहुत करनी पड़ती थी। हिसाब की परीक्षा में दो बार फ़ेल हुए। फिर शहर में रहने लगे। एक वकील के लड़के को ट्यूशन पढ़ाते थे और अस्तबल के ऊपर कच्ची कोठरी में रहते थे। पढ़ने-लिखने का चस्का पहले ही लग चुका था। उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘‘इस वक़्त मेरी उम्र कोई तेरह साल की रही होगी। हिंदी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने का उन्माद था... उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी वहीं के मिशन स्कूल में आठवीं में पढ़ता था, जो तीसरा दरजा कहलाता था। रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दूकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दूकान से अँग्रेज़ी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसकी एवज़ में उपन्यास दूकान से घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे...’’
दसवीं की परीक्षा क्वींस कॉलेज, बनारस से पास की 18 रुपए मासिक पर अध्यापक की नौकरी करने लगे थे। इस दौरान बहराइच, प्रतापगढ़, महोबा, गोरखपुर, कानपुर, इलाहाबाद —कई शहरों में रहना हुआ। प्रोन्नति भी मिली और स्कूल इंस्पेक्टर बन गए। 1904 में उर्दू और हिंदी में विशेष वर्नाकुलर परीक्षा पास कर ली थी। स्वाध्याय से हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अँग्रेज़ी का ज्ञान भी बढ़ा रहे थे। फ़रवरी 1921 में गाँधी जी इलाहबाद आए। वह देश से असहयोग की माँग कर रहे थे। प्रेमचंद भी सरकारी नौकरी छोड़ आंदोलन में शरीक़ हो गए। पहले वह महावीर प्रसाद पोद्दार के साथ चर्खे का प्रचार करते रहे, फिर कई निजी संस्थानों में अध्यापकी की। इस बीच पत्रकारिता भी शुरू कर दी थी। पहले ‘मर्यादा’ पत्रिका का संपादन किया, फिर सरस्वती प्रेस की स्थापना से संलग्न हुए। इसी सरस्वती प्रेस से आगे ‘हंस’ और ‘जागरण’ का प्रकाशन किया। आगे उन्होंने गंगा पुस्तक माला के साहित्यिक सलाहकार, ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक और हिंदुस्तानी अकादेमी के काउंसिल सदस्य के रूप में भी योगदान दिया। वह प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष भी रहे थे।
प्रेमचंद ने अपना साहित्यिक सफ़र एक उपन्यासकार और आलोचक की हैसियत से शुरू किया था। उनका पहला उपन्यास 1901 में प्रकाशित हुआ और दूसरा 1904 में। वह तब उर्दू में लिखते थे और उनका नाम था नवाब राय। उन्होंने 1907 से कहानियाँ लिखना भी शुरू कर दिया था। वे आरंभिक कहानियाँ उस ज़माने की मशहूर पत्रिका ‘ज़माना’ में प्रकाशित हुईं। उनका पहला कहानी-संग्रह ‘ सोज़े वतन’ तब प्रकाशित हुआ जब प्रथम विश्वयुद्ध की तैयारियाँ ज़ोरों पर थी। इस संग्रह को अँग्रेज़ शासक द्वारा ख़तरे के रूप में देखा गया और लेखक को इसकी पाँच सौ प्रतियों को आग लगा देने के लिए मजबूर किया गया। यहीं से फिर प्रेमचंद ने नवाबराय नाम छोड़कर प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया। उन्हें यह नाम उर्दू लेखक और संपादक दयानारायण निगम ने दिया था। युद्धकाल में ही उन्होंने अपना पहला महान उपन्यास ‘सेवा सदन’ लिखा और युद्ध की समाप्ति पर ‘प्रेमाश्रम’ भी पूरा कर लिया था। हिंदी में जब 'सेवासदन' प्रकाशित हुआ तो हिंदी संसार में धूम मच गई। ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ को इतनी तारीफ़ उर्दू में नहीं मिली थी। इसी क्रम में प्रेमचंद ने रंगभूमि उपन्यास की रचना पहले हिंदी में की, फिर उसे उर्दू में प्रकाशित करवाया। वह अब हिंदी और उर्दू दोनों में लिखने लगे थे, जहाँ कभी पहले उर्दू में लिखकर उसे हिंदी में ढालते थे तो कभी हिंदी में लिखकर उसे उर्दू में भी ले जाते थे।
हिंदी-उर्दू में प्रेमचंद की विशेष ख्याति एक उपन्यासकार के रूप में है। उन्हें हिंदी समाज में प्रेमपूर्वक ‘उपन्यास सम्राट’ पुकारा जाता है। उनके उपन्यास समाज के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करते हैं। हिंदी उपन्यास के इतिहास में उनके के समय को ‘प्रेमचंद युग’ के नाम से जाना जाता है। वह हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय कहानीकार भी हैं। जयशंकर प्रसाद के साथ वह हिंदी कहानी की विकास यात्रा में एक युग का निर्माण करते हैं। उन्होंने उद्देश्यपरक कहानियाँ लिखी हैं जहाँ जीवन की सच्चाई को भाषा की सहजता-सरलता में प्रकट किया है। नाटक विधा में भी उनकी रुचि रही थी और इस क्रम में उन्होंने तीन नाटकों की रचना की, जबकि कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया। लेखन के आरंभिक दौर में उन्होंने टैगोर की कहानियों का भी अनुवाद किया था।
प्रेमचंद ने विपुल मात्रा में वैचारिक गद्य भी लिखा जो उस दौर की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। स्वयं एक संपादक और पत्रकार के रूप में उन्होंने समय और समाज के मसलों पर गंभीर टिप्पणियों के रूप में योगदान किया।
प्रेमचंद की रचनाओं का देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनकी रचनाओं पर फ़िल्म, टीवी सीरीज़ का निर्माण हुआ है और उनके नाट्य-मंचन किए गए हैं।
प्रमुख कृतियाँ
उपन्यास : सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, प्रतिज्ञा, गबन, कर्मभूमि, गोदान, मंगलसूत्र (अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह : सप्तसरोज, नवनिधि, समरयात्रा, मानसरोवर (आठ खंडों में प्रकाशित)।
चर्चित कहानियाँ : दो बैलों की कथा, ईदगाह, ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, कफ़न, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोग़ा, कर्मों का फल, बलिदान, शतरंज के खिलाड़ी।
नाटक : संग्राम, कर्बला, बलिदान।
बाल-साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, मनमोदक।
कथेतर साहित्य: प्रेमचंद: विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में प्रकाशित) साहित्य का उद्देश्य, चिट्ठी-पत्री (दो खंडों में पत्रों का संग्रह)।
अनुवाद : (अहंकार) अनातोल फ़्रांस के नॉवेल ‘दइस’ का भावानुवाद, (आज़ाद कथा) रतन नाथ धर सरशार के ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ का अनुवाद, (चाँदी की डिबिया) जॉन गाल्सवर्दी के ‘द सिल्वर बॉक्स’ का अनुवाद, टॉलस्टॉय की कहानियाँ।
जीवनचरित : दुर्गादास, महात्मा शेख़सादी।
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