प्रस्तुत संकलन में तीन निबंध क्रमश: 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य', 'काव्य में रहस्यवाद' और 'काव्य में अभिव्यंजनावाद' है। इन निबंधों को आत्मसात करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य सलिला उक्त सोपान साहित्यिक रसानुभूनित कराते हुए हृदय संपन्न मनुष्य को भावातिरेक अभिभूत कर देता है। 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' में प्रकृति की भावभंगिमाएं मानवीय कृत्यों के बिम्ब के रूप में प्रकट होकर साहित्य प्रेमी के आल्हादित करती हुई प्रतीत होती हैं। दूसरे निबंध 'काव्य में रहस्यवाद' आकृष्ट करता है कि मानव अपनी वास्तविकता ढूंढ़ता हुआ शरीर, मन व आत्मा के खेल को दक्षता से समझने को आतुर है। तीसरे निबंध 'काव्य में अभिव्यंजनावाद' में काव्य के अर्थ की महत्ता पर लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियों का आह्वान कर सामान्य कथन को अभिव्यंजित करने की दक्षता का बखान प्रकट करता है, जिससे योग्य व प्रकरण संबंधी अर्थ प्राप्त किया जाता है। इस विशिष्टता को इस निबंध में चितेरे की भांति उकेरा गया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 4 अक्टूबर, 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के अगौना नामक गाँव में हुआ था। आरंभिक शिक्षा मिर्ज़ापुर में हुई, फिर कायस्थ पाठशाला प्रयाग से इंटर किया। आगे फिर उन्होंने स्वाध्याय से ज्ञान अर्जन किया और इस क्रम में उर्दू, अँग्रेज़ी, बांग्ला और हिंदी भाषा एवं साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। मिर्ज़ापुर में ही वह भारतेंदु युग के महत्त्वपूर्ण रचनाकार चौधरी बदरीनारायण प्रेमघन के संपर्क में आए और ‘आनंद कादंबिनी’ पत्रिका के संपादन में उनका सहयोग किया। इस कार्य से उनमें साहित्य और संपादन की समझ तो विकसित हुई ही, वह भारतेंदु युग के साहित्य और समकालीन साहित्य-कर्म से भी परिचित हुए। इस दौरान उनका साहित्य लेखन भी आरंभ हो चुका था। वह ब्रज भाषा और खड़ी हिंदी में कविता-लेखन करते रहे थे। ‘कविता क्या है’ निबंध का प्रारंभिक रूप इसी अवधि में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ। 1903 में उनकी कहानी ‘ग्यारह वर्ष का समय’ भी प्रकाशित हो चुकी थी।
सन् 1908 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल मिर्ज़ापुर से काशी आ गए जहाँ काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा तैयार किए जा रहे 'हिंदी शब्द सागर’ से सहायक संपादक के रूप में जुड़े। इस कोश के प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदर दास थे। सन् 1927 में इस कोश का कार्य पूरा हुआ जिसकी लंबी भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखी। यही भूमिका बाद में परिवर्तित रूप में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के रूप में प्रकाशित हुई।
सन् 1919 में रामचंद्र शुक्ल काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रध्यापक भी नियुक्त हो चुके थे। सन् 1937 में श्यामसुंदर दास के निधन के बाद वह हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने और इस भूमिका में रहते उन्होंने पाठ्यसामग्री के निर्माण में अभूतपूर्व योगदान दिया। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के प्रकाशन के साथ हिंदी साहित्य का एक ढाँचा बनकर तैयार हो गया था। उन्होंने सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ संबंधी पदों का संग्रह किया और उसकी एक विस्तृत भूमिका लिखी। इसी तरह उन्होंने ‘जायसी ग्रंथावली’ का संपादन किया और उसकी भी एक लंबी भूमिका लिखी। इस बीच शुक्लजी ने काव्यशास्त्र और साहित्य सिद्धांतों का भी गंभीर अध्ययन किया जो बाद में उनकी पुस्तक ‘रस मीमांसा’ और ‘चिंतामणि’ में सुचिंतित रूप में व्यक्त हुई। हिंदी आलोचना को संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रभाव से मुक्त कराने तथा हिंदी का अपना व्यवस्थित शास्त्र निर्मित करने की दृष्टि से ‘रस मीमांसा’ एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ‘चिंतामणि’ में उन्होंने मनोविकार संबंधी निबंधों के साथ-साथ साहित्य-सिद्धांतों का भी विश्लेषण-मूल्यांकन किया।
रामचंद्र शुक्ल हिंदी के अत्यंत समादृत लेखक और आलोचक हैं। डॉ. रामविलास शर्मा उन्हें आलोचना के क्षेत्र में उतने ही महत्त्व से रखते हैं, जो महत्त्व प्रेमचंद का उपन्यास में है और निराला का कविता में। उन्होंने हिंदी में व्यवस्थित साहित्य-सिद्धांतों की नींव रखी, जिनके आधार पर हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा और हिंदी साहित्य की व्यावहारिक आलोचना की। उन्होंने हिंदी-साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के लिए व्यवस्थित रूप से पाठ्यक्रम का निर्माण किया और पाठ्यक्रम उपलब्ध करवाया। इसके साथ ही उन्होंने निबंध लेखन और अनुवाद का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उनके पत्र और अख़बारों को भेजी गई टिप्पणियाँ भी प्रकाशित हैं। उनका समस्त रचना-कर्म एक-दूसरे का पूरक बना रहा। ‘चिंतामणि’ पर उन्हें अत्यंत प्रतिष्ठित मंगला प्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया।
प्रमुख कृतियाँ
काव्य में रहस्यवाद, विचार वीथि (मनोविकार संबंधी लेखों का पहला संग्रह), चिंतामणि-1 (विचार वीथि का परिवर्द्धित और परिष्कृत रूप), चिंतामणि-2 (काव्य में प्राकृतिक दृश्य, रहस्यवाद, अभिव्यंजनावाद संबंधी लेखों का संग्रह। सं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र), चिंतामणि-3 (कुछ अप्रकाशित लेखों का संग्रह। सं. नामवर सिंह), त्रिवेणी (सुर, तुलसी, जायसी पर तीन निबंधों का संग्रह), हिंदी साहिय का इतिहास, रस मीमांसा, मालिक मुहम्मद जायसी, गोवास्मी तुलसीदास, साहित्य शास्त्र: सिद्धांत और व्यवहार पक्ष, भाषा, साहित्य और समाज विमर्श। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली (सं. ओमप्रकाश सिंह) के आठ खंडों में उनकी रचनाओं को संग्रहीत किया गया है।
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