प्रशासन के इस जंगल में हाथी, हिरन, ऊंट, घोड़ा, खच्चर, तेंदुआ, रीछ, बायसन, बन्दर तो हैं ही, बारहसींगा, नीलगाय और शिपांजी भी हैं। सबसे ऊपर है शेर-सीनियर। वह जाल भी खूब दिखाई देता है जो उनकी उछलकूद अनायास ही बुनती होती है। यह है ‘अरण्य-तंत्र’ गोविन्द मिश्र का ग्यारहवां उपन्यास, जिसमें वे जैसे अपनी रूढ़ि (अगर उसे रूढ़ि कहा जा सकता है तो) संवेदनात्मक गाम्भीर्य-को तोड़ व्यंग्य और खिलंदडे़पन पर उतर आये दिखते हैं। यहां यथार्थ को देखा गया है तो हास्य की खिड़की से। फिर भी ‘अरण्य-तंत्र’ न व्यंग्य है, न व्यंग्यात्मक उपन्यास। अपनी मंशा में यह लेखक के दूसरे उपन्यासों की तरह ही बेहद गम्भीर है।
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