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सभी ज़ुबानों को सुनते रहिए

सभी ज़ुबानों को सुनते रहिए

कभी-कभी मेरे पास कुछ व्यक्तिगत संदेश आ जाते हैं कि भाषा सुधारने में मैं उनकी कुछ मदद करूँ। अनुमान है कि ये संदेश युवाओं से आते होंगे, जिनके पास मुझसे बहुत अधिक ऊर्जा और नई दृष्टि है। मैं क्या जवाब दूँ?—जिसकी भाषा ख़ुद इतनी बिगड़ी हुई हो, वह दूसरे की क्या सुधारेगा? मेरी साहित्य या भाषाओं में कोई शिक्षा न हो सकी। स्वाध्याय भी कुछ न हो पाया। अब तो समय भी इतना नहीं बचा। अपने उन अँधेरों में मैंने जो किया, वह आपसे बाँट सकता हूँ। उपदेश देने की हैसियत नहीं है, लेकिन जो अक्सर उत्तर में बोलता हूँ—वह यह है :

• आपने जिससे रास्ता पूछा है, वह ख़ुद भटका हुआ है।

• एक उम्र के बाद भी कोई आसान राह नहीं सूझती।

• सभी ज़ुबानों को सुनते रहिए—सड़कछाप ज़ुबानों को भी।

• गालियों में निहित हिंसा से बचिए, लेकिन उनमें संचित मनीषा को सुनिए।

• जो सूझता है, बोलते रहिए।

• लिखिए भी ऐसे जैसे बोल रहे हों।

• ‘वैचारिक’ गिरोहों से डरिए मत; वहाँ अब विचार नहीं बचे—घोर अज्ञान, दृष्टिहीनता, कुंठाएँ, मनोव्यभिचार और सुपारियाँ हैं।

• सुपारियों से डरिए मत—अपनी राह चलिए।

• समीकरणों और फ़ैशनेबल विमर्शों से आतंकित मत होइए, यहाँ प्रतिभा और स्मृति के प्रति अथाह विद्वेष है।

• भाषा की आत्मा अजर-अमर नहीं होती। औपचारिक भाषा और फ़ैशनेबल विमर्शों की आत्मा कबकी मर चुकी होती है।

• अकेले रहना पड़े तो बलपूर्वक अकेले रहिए—समीकरणों के सामने समर्पण से बेहतर है गुमनाम रहना।

• गिरोहों और समीकरणों से दूर रहने का अभ्यास भी भाषा और मौलिकता की कृपा का रास्ता है—भाषा पात्रतानुसार अपने आप उतरने लगेगी।

हो सकता है कि ये रास्ते आपके लिए ठीक न हों, पर मेरे पास कोई विकल्प नहीं था।

हो सकता है कि आप अपने लिए कोई नए रास्ते निकालें।

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