नीलामी

neelami

बोरिस लियोनिदोविच पास्टर्नक

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    जिन दिनों की यह घटना है, उन दिनों रूस में आज जैसी ही सामाजिक परिस्थितियाँ थीं और छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बन जाया करता था। एक दिन किसी बड़े शहर में एक अफ़वाह फैली कि एक नौजवान अपने-आपको नीलामी पर चढ़ा रहा है।

    नीलामी वाले दिन लोगों की भीड़ शहर से निकलकर चल पड़ी। सारी घटना शहर से दूर उस मकान में घटी, जहाँ इससे पहले कोई नहीं आया था।

    लोग जमा हो गए थे, जो सभी एक ही श्रेणी के थे—अभिजात वर्ग के, धनवान कलाप्रेमी, वकील आदि। कुर्सियों की क़तारें लगी थीं। मंच पर एक बड़ा पियानो रखा था और उसके पास की मेज़ पर लकड़ी का एक हथौड़ा पड़ा था। खिड़कियाँ खुली हुई थीं। अंत में वह नौजवान मंच पर आया। उसकी जवानी मानो अभी फूट ही रही थी। वह कौन है, कहाँ का है, क्या करता है? ऐसे सवाल उठने स्वाभाविक ही थे।

    बीजगणित की शैली में हम उसे फ़िलहाल 'क' कहकर पुकारेंगे।

    ‘क’ ने अपनी भूमिका में कहा, मैं अपने आपको बेच डालना चाहता हूँ, जो भी सज्जन सबसे बड़ी बोली देंगे, उन्हीं का मुझ पर पूरा अधिकार होगा, पर नीलामी के बाद मेरे ख़रीदार को मुझे चौबीस घंटे की मोहलत देनी होगी, ताकि मैं बिक्री से प्राप्त रक़म बाँट सकूँ। मैं ख़ुद के लिए कुछ नहीं रखूँगा। इसके बाद मेरी ग़ुलामी का दौर शुरू होगा। मेरे मालिक को मुझसे काम लेने का ही नहीं, मेरी जान लेने का भी अधिकार होगा।

    तब 'क' के मित्रों में से एक व्यक्ति उठकर मंच पर आया और मेज़ के पास कुर्सी पर बैठ गया। उसका काम केवल इतना था कि सबसे ऊँची बोली पर रक़म वसूल करके 'क' को सौंपकर चला जाए।

    कार्रवाई शुरू हुई। 'क' ने घोषणा की, मैं पहले आप लोगों के सामने संगीत प्रस्तुत करूँगा— ऐसा संगीत, जिसे आप लोगों ने आज तक कभी नहीं सुना होगा। यह संगीत आत्मा से उठी सहज रचना होगी।

    तभी बाहर वर्षा होने लगी। खिड़कियों के बाहर हवा सनसनाने लगी। फिर अँधेरा छा गया। बादलों की पहली गड़गड़ाहट के साथ ही 'क' ने संगीत शुरू कर दिया।

    संगीत की लय और गीत के स्वरों की प्रेरणा 'क' को उस विशाल नीलगगन से मिल रही थी, जिसमें दूधिया इंद्रधनुषी बादल मँडरा रहे थे। वर्षा ने धुँधले सितारों का मुँह धो डाला था, जिससे वे और भी जगमगाने लगे थे।

    पियानो पर लहराती हुई अँगुलियों को 'क' ने झटककर अपना हाथ खींच लिया। संगीत रुक गया। पर तभी 'क' की मधुर कंठ-ध्वनि लहरा उठी। खिड़कियों के शीशों पर बूँदें नाच रही थीं। पेड़ों की टहनियाँ झूम रही थीं, हवा लहरा रही थी, और वह गीत चारों ओर गूँज रहा था।

    आखिर 'क' उठ खड़ा हुआ और लोगों को संबोधित करके कहने लगा, आपके स्नेह के लिए मैं आभारी हूँ, पर केवल इतने से ही मुझे संतोष नहीं है। मैं अपनी योजना आप पर प्रकट नहीं करूँगा, क्योंकि तब आप उसमें हस्तक्षेप करना चाहेंगे, और समस्या के समाधान के लिए कोई दूसरा तरीक़ा अपनाने को कहेंगे। आपकी सहायता चाहे कितनी ही उदार क्यों हो, मेरे मन के अनुकूल होगी...आज के बाज़ार में मनुष्यरूपी सिक्के का जो व्यावहारिक मूल्य है, उसकी दृष्टि से मेरी क़ीमत गिर चुकी है। मैं अपने आपको बिक्री की चीज़ बता रहा हूँ।

    फिर संगीत लहराने लगा और बीच-बीच में बोली दी जाने लगी। अंत में एक कट्टर सैद्धांतिक, कलाप्रेमी ने 'क' को ख़रीद लिया।

    पर कहानी यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। नीलामी के तीसरे-चौथे दिन वह धनी 'क' से ऊब गया। उसने उसके लिए एक अच्छे स्थान पर निवास की व्यवस्था कर दी। उसको सुखी रखने की चिंता में वह परेशान रहने लगा। एक दिन वह उसे बुलाकर कहने लगा, “मैं आज तक यह नहीं समझ पाया हूँ कि तुमसे क्या काम लूँ? इसलिए मैं तुम्हें आज़ाद करना चाहता हूँ, तुम कहीं भी जा सकते हो।

    'क' ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। लेकिन तब यह बात अफ़वाह बनकर उस इलाक़े में फैल गई, जहाँ 'क' ने अपनी बिक्री के पैसे बाँटे थे। वहाँ उपद्रव फूट पड़े। इससे दोनों को गहरा दुःख हुआ—ख़ासकर 'क' को, क्योंकि उसकी नज़र में फिर से आज़ाद होने का अर्थ था, ठीक पहले जैसी परिस्थितियों में लौट जाना। और वह इसके लिए तैयार नहीं था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 199-201)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : बोरिस लेओनिदोविच पास्तेरनाक
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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