सिफैलोटस

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रघुनंदन त्रिवेदी

और अधिकरघुनंदन त्रिवेदी

     

    (यह एक विषैला, मांसभक्षी पौधा है जिसमें एक ढक्कन-सा होता है जो वर्षा के पानी को रोकता है ताकि वह पानी उसके विष को हल्का न कर दे)

    ख़ाली बरस

    मोहल्ले में इतने घर थे कि कुछ न कुछ होता ही रहता था। कभी कहीं ब्याह-सगाई का धूम-धड़ाका तो भी कहीं मौत का मातम। शायद ही कोई बरस था जो घटनाओं के लिहाज़ से ख़ाली गया हो। और कुछ नहीं तो एक रसोई में जीमनेवाल भाई ही आपस में झगड़कर अलग हो जाते और मोहल्लेवालों को बातचीत के लिए विषय मिल जाता। अकेले दिवाकर के यहाँ मेरे देखते-देखते कितना कुछ हुआ! दिवाकर के बड़े भैया डॉक्टर बने। उनकी शादी हुई। उन्होंने शंकर नगर में बंगला बनवाया। अपनी माँ और बाबू के साथ दिवाकर वहाँ रहने गया और छह-सात महीने बाद वापस लौट आया।

    परंतु यह कैसा घर था हमारा कि यहाँ कुछ होता ही नहीं था! न शरद भैया का ब्याह, न तनु दी की सगाई और न किसी के जन्मदिन का कोई उत्सव ही। ये तो ख़ैर बड़ी घटनाएँ थीं मुझे तो कोई छोटी-सी घटना भी याद नहीं जो उन बरसों में हमारे यहाँ हुई हो। रोज़ एक ही तरीक़े से जागना, एक ही तरीक़े से सोना। और जीवन का यह ढर्रा इतना नियमित, इतना व्यवस्थित था कि लगता ही नहीं था कि यह कोई घर है जिसमें एक नहीं, हम पाँच जीवित प्राणी रहते हैं।

    रोज़ाना दिन की शुरूआत माँ के जागने और फिर उनके भजन गुनगुनाने से होती है। रोज़ाना सुबह बाबू दो कप चाय पीते और ठीक आठ बजे घर से रवाना होकर दुकान चले जाते। रोज़ाना मैं और तनु दी स्कूल जाते और शरद भैया कॉलेज। रोज़ाना शाम को बाबू के घर आने तक मैं ज्ञान, दिवाकर और तनवीर के संग खेलता। तनु दी रसोई में माँ का हाथ बँटाती। शरद भैया अपने दोस्त परमजीत के यहाँ पढ़ने चले जाते। रोज़ाना बाबू के घर लौटने का समय एक ही होता-आठ से साढ़े आठ के बीच।

    बाबू के आते ही तनु दी रसोई में से निकलकर दरवाज़े तक जातीं। बाबू अपनी थैली तनु दी को देकर जूते खोलते। वे अपने जूते हमेशा दरवाज़े के पासवाले आले में दाईं तरफ़ रखते। कभी भूल से या जल्दी में बाबू ने अपने जूतों को घर में किसी दूसरी जगह नहीं छोड़ा। बाबू के घर लौटने के थोड़ी देर बाद हम खाना खाते। खाना खाकर मैं और तनु दी सोने चले जाते। बाबू चौक में बैठकर अगरबत्ती के तिनके से दाँत कुरेदते या हाथ बाँधे टहलते रहते। क़रीब दस बजे शरद भैया परमजीत के घर से लौटते। उनके आने के थोड़ी देर बाद घर की बत्तियाँ गुल हो जातीं।

    इस दिनचर्या में कभी हेर-फेर हुआ हो, मुझे याद नहीं। इस निश्चित, नियमित दिनचार्य का असर घर की बेजान चीज़ों और जगहों पर भी देखा जा सकता था। उस आले का फ़र्श, जहाँ शौच के बाद हाथ धोने के लिए वेकलू (रेत) पड़ी रहती थी, घिसकर ढलवाँ हो गया था। खाने के बाद थाली हटाकर रसोई के बाहर जिस जगह बाबू गीले हाथ फिराते थे, वह जगह चिकनी, काली और बदरंग-सी हो गई थी।

    जाने क्यों कभी ऐसा नहीं हुआ उन बरसों में कि किसी दिन बाबू या शरद भैया ने घर लौटने के अपने निर्धारित समय से ज़ियादा देर की हो और माँ या तनु दी चिंतित हुई हों। 

    उन दिनों घर में आकस्मिक कही जा सकने वाली घटना अगर कभी होती भी थी तो यही कि गर्मियों में किसी शाम पतंग के पीछे भागते हुए मैं किसी साइकिल से टकराकर अपने घुटने को जख़्मी कर लेता और शरद भैया मुझे पीटते, या किसी-किसी दिन शरद भैया का दोस्त परमजीत अपनी बहन राजिंदर कौर को लेकर हमारे घर आ जाता। घर में आपसी बातचीत के दौरान हम कभी हिंदी नहीं बोलते थे और माँ को तो हिंदी में बात करना आता ही नहीं था। लेकिन परमजीत या उसकी बहन राजिंदर कौर से बात करते वक़्त माँ टूटी-फूटी हिंदी बोल लेती थीं। परमजीत के जाने के बाद मैं और तनु दी उसका मज़ाक़ उड़ाया करते थे।

    रेलवे स्टेशन नज़दीक होने के कारण उन दिनों मैं, ज्ञानू, दिवाकर और तनवीर खेलते प्लेटफ़ॉर्म पर चले जाते थे। दृश्य याद आता है। रँगी-पुती छक्-छक् करती लोगों को लाती—ले जाती रेलगाड़ियाँ और यार्ड में पड़ा वह टूटा बदरंग डिब्बा, जो हमारे छुपने की ख़ास जगह था, बिलकुल हमारे घर की तरह अलग-अलग और गतिहीन।

    बचपन के वे बरस बिना घटनाओं वाले थे, इसलिए मैं उन्हें ख़ाली बरस कहता रहा।


    प्रतीक्षा के बरस और हताशा

    ये वे दिन थे जबकि शरद भैया अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी तलाश कर रहे थे और तनु दी कॉलेज जाने लगी थीं। इन्हीं दिनों मुझे यह लगने लगा था कि बरसों बाद में जब जल्दी ही कोई घटना होगी। लेकिन मैं ही क्यों, माँ और बाबू और शरद भैया भी तो यही सोचते थे।

    उन दिनों मुझे कम से कम दो बड़ी घटनाओं की उम्मीद थी। पहली घटना तो मेरे ख़याल से] यही हो सकती थी कि शरद भैया को नौकरी मिल जाती। और दूसरी घटना?

    दूसरी घटना की बाबत सोचते हुए मैं अकसर उलझ जाता था, क्योंकि माँ और बाबू जो सोचते थे वह शरद भैया के सोचने से भिन्न था। माँ और बाबू की बनाई हुई भविष्य की योजना के मुताबिक शरद भैया की नौकरी लग जाने के दो-तीन साल बाद (जबकि थोड़ा पैसा जमा हो जाए) सबसे पहले मकान की मरम्मत होनी थी। बाबू चाहते थे कि ऊपर छत पर एक कमरा और एक स्नानघर बन जाए, रसोई का फ़र्श ठीक हो जाए और दीवारों पर फिर से पलस्तर चढ़ जाए। इस तरह जब घर मेहमानों के लायक़ हो जाए तो शरद भैया और तनु दी की शादियाँ एक-साथ हो जाएँ, ताकि तनु दी के जाने से रिक्त होने वाली जगह शरद भैया की पत्नी के आने से भर जाए। भविष्य में होने वाली घटनाओं की इस काल्पनिक सूची में इन बड़ी घटनाओं के अलावा बाबू ने माँ के साथ किसी तीर्थ पर जाने की छोटी घटना को जोड़ा था और माँ ने तीर्थ की बजाए बाबू के एक्ज़िमा के इलाज को।

    लेकिन मेरे ख़याल से माँ और बाबू की इस योजना में सबसे बड़ी बाधा थे ख़ुद शरद भैया। नौकरी मिल जाने के बाद सबसे पहले शरद भैया तनु दी के दायित्व से मुक्त हो जाना चाहते थे। तनु दी से पहले या उनके साथ-साथ वे शादी नहीं कर सकते थे। कम से कम उस लड़की से तो हरगिज़ ही नहीं जिसे माँ और बाबू पसंद करने वाले थे। यह बात माँ और बाबू भले ही नहीं जानते थे, मुझसे छुपी हुई नहीं थी। मैं कोई एकदम छोटा बच्चा तो था नहीं। शरद भैया एम.ए. कर रहे थे, मैं भी तो दसवीं में आ गया था, और यह बात मुझे ख़ूब अच्छी तरह मालूम थी कि शरद भैया परमजीत की बहन राजिंदर कौर से शादी करना चाहते हैं।

    शरद भैया का किसी लड़की के साथ चक्कर है, यह बात पहली बार मुझे ज्ञानू ने बताई थी। तब तक मैंने राजिंदर कौर को देखा नहीं था, इसलिए ज्ञानू ने जब मुझे बताया कि पायल सिनेमा हॉल के सामने वाली गली में उसने शरद भैया को एक  लंबी गोल-मटोल चेहरे वाली गोरी लड़की के साथ, जिसने गहरे रंग की शलवार और वैसे ही रंग का पूरी आस्तीन वाला कुरता पहन रखा था, देखा तो मैं यह नहीं सोच पाया कि वह परमजीत की बहन हो सकती है। पर बाद में जबकि राजिंदर कौर हमारे घर आने लगी और दो-एक बार मैंने उसे शरद भैया के साथ फ़ोर्ट रोड पर घूमते देखा तो मैं समझ गया कि उस दिन ज्ञानू ने जिस लंबी और गोरी लड़की का ज़िक्र किया था, वह राजिंदर कौर ही थी।

    राजिंदर कौर के बोलने का लहज़ा एकदम परमजीत जैसा ही था। दोनों के चेहरे भी बहुत मिलते-जुलते थे। लेकिन राजिंदर कौर का रंग उसके भाई की तुलना में काफ़ी गोरा था और शायद यही वजह थी कि उसके होंठ और मुँहासे हमेशा लाल सुर्ख़ दिखाई देते थे। परमजीत की तरह उसके हाथ में भी स्टील का एक कड़ा रहता था जो मुझे बहुत पसंद था और मैं सोचता था कि जब शरद भैया उसके साथ शादी कर लेंगे तो मैं उससे कड़ा माँग लूँगा।

    लेकिन कुछ नहीं हुआ। शरद भैया को नौकरी मिली और राजिंदर कौर की भी शादी हो गई। राजिंदर कौर ने शायद सारी बात अपने घरवालों को बता दी थी, तभी तो परमजीत ने हमारे यहाँ आना-जाना छोड़ दिया और हममें से कोई भी राजिंदर कौर की शादी के जलसे में शामिल नहीं हुआ। इस पूरे घटनाक्रम पर शरद भैया किस तरह सोचते थे, यह जानने का कोई साधन नहीं था क्योंकि वे भी बाबू की तरह शुरू से ही अंतर्मुखी स्वभाव के थे। बाबू की भाँति वे न ज़ोर से हँसते और न ऊँची आवाज़ में बोलते। सचमुच मैंने तब तक शरद भैया और बाबू को ठहाका लगाकर हँसते हुए नहीं देखा था, ख़ैर।

    राजिंदर कौर की शादी के बाद भी जीवन पूर्ववत चलता रहा, पूरे तीन बरस और, फिर कहीं जाकर वह साल आया तो पिछले सालों से अलग था।


    घटना-वर्ष

    यह साल पिछले सालों की तरह ख़ाली नहीं था। इस साल एक के बाद एक चार घटनाएँ हुई जिनसे वह पुराना ढर्रा एकदम बदल गया।

    उस साल पहली घटना मार्च के दूसरे सप्ताह में हुई थी और वह थी बाबू की दुकान से छुट्टी। हालाँकि यह कोई अप्रत्याशित बात नहीं थी, क्योंकि कोई सालभर पहले से ही एक्ज़िमा जैसी किसी बीमारी के कारण बाबू के दोनों हाथों की उगलियाँ लगभग सड़ गई थीं। लगातार इलाज के बावजूद यह रोग ठीक होने की बजाए बढ़ता ही जा रहा था और अब तो बाबू की उँगलियों में से चिपचिपा पानी भी बहने लगा था, जिससे बहुत तेज़ दुर्गंध आती थी।

    सेठ ने पहले तो इस ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन एक दिन जब बाबू एक गोरी, फैशनेबुल औरत के सामने कपड़े का थान खोल रहे थे तो उस औरत ने बाबू के हाथों की तरफ़ नज़र जाते ही गिच-गिचाकर काउंटर पर ही उल्टी कर दी तथा यह कहते हुए वह दुकान से निकल गई कि ऐसी गंदी जगह से वह कपड़े नहीं लेगी, तब कहीं जाकर मजबूरन सेठ को बाबू से यह कहना पड़ा कि अब वे कपड़े की दुकान पर काम करने लायक़ नहीं रहे।

    सेठ ने बाबू से यह भी कहा था कि अगर बाबू चाहें तो अपनी जगह अपने किसी बच्चे (शरद भैया, तनु दी या मुझे) को दुकान पर रखवा सकते हैं, लेकिन बाबू ने सेठ का प्रस्ताव नहीं माना। इस इनकार का कारण यह था कि हालाँकि शरद भैया को अपनी पढ़ाई पूरी किए क़रीब चार बरस हो चुके थे और अभी तक वे बेरोज़गार ही थे, परंतु फिर भी बाबू उन्हें ऐसी किसी प्राइवेट नौकरी में फँसाना नहीं चाहते थे जिसमें सुबह के आठ से रात के आठ बजे तक काम करने के बावजूद न तो ढंग की तनख़्वाह मिलती हो और न बूढ़े हो जाने पर पेंशन।

    तनु दी लड़की थीं और बाबू को लड़कियों को नौकरी करना (कम से कम किसी कपड़े की दुकान पर जहाँ कई तरह के लोग आते हों) पसंद नहीं था इसलिए तनु दी भी बाबू की जगह नहीं ले पाईं; रहा मैं, तो मेरे लिए बाबू यह सोचते (और कहते भी) थे कि अभी मेरी उम्र नौकरी के लायक़ नहीं, इसलिए फ़िलहाल मुझे सिर्फ़ मन लगाकर पढ़ना चाहिए।

    तो जब बाबू हम तीनों में से किसी एक को भी अपनी जगह दुकान पर रखने के लिए तैयार नहीं हुए, तब उस साल मार्च के दूसरे सप्ताह में एक दिन सेठ ने बाबू को पूरे महीने की तनख़्वाह के अलावा एक छड़ी, सूट का कपड़ा और पाँच सौ एक रूपए नक़द देकर दुकान से छुट्टी दे दी।

    दूसरी घटना जुलाई में हुई थी और वह थी एक सेमी गवर्नमेंट डिपार्टमेंट में शरद भैया की नियुक्ति की घटना। शरद भैया की नौकरी लगने पर माँ और बाबू ने राहत की साँस ली, क्योंकि उनके ओवरएज होने में सिर्फ़ तीन-चार महीने ही रह गए थे।

    शरद भैया को वह नौकरी बाबू और हमारे पड़ोस में रहने वाले बद्री काका के प्रयासों से मिली थी। अगर बाबू और बद्री काका बोर्ड के चेयरमेन बतरा साब के घर न गए होते और बतरा साब की दस हज़ार की डिमांड पूरी नहीं की गई होती तो...

    मई में इंटरव्यू था। इंटरव्यू देने के बाद हर बार की तरह कहा तो शरद भैया ने यही कहा था कि इंटरव्यू अच्छा हुआ है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि उनका चयन हो जाएगा, लेकिन बाबू नहीं माने। वे रिज़ल्ट की प्रतीक्षा करने की बजाए कोई ‘सोर्स' ढूँढ़ना चाहते थे जो उन्हें जल्दी ही मिल गया। फिर एक दिन वे बद्री काका के साथ बतरा साब के घर गए और जब लौटे तो प्रसन्न थे। उन्होंने बतरा साब की डिमांड के बारे में बताया जिसे सुनकर एकबारगी माँ भड़क गई। माँ को नौकरी के लिए पैसा देने की बात जँची नहीं। जहाँ मैं और तनु दी यह सोच रहे थे कि शरद भैया के भविष्य को देखते हुए दस हज़ार कोई बहुत बड़ी रक़म नहीं, वहाँ माँ इस बात से नाराज़ थीं कि बाबू ने एक-एक पैसा जोड़कर जो रुपए जमा किए थे, वे यों ही ख़र्च हो जाएँगे। माँ के विचार से उन रुपयों का सही उपयोग तनु दी की शादी के समय ही हो सकता था। पर माँ की आनाकानी ज़ियादा टिक नहीं पाई। मैं, तनु दी और बाबू इसे एक अच्छा अवसर बताते हुए एकमत थे। शरद भैया चूँकि चुप थे, इसलिए माँ अकेली पड़ गई और बाबू रुपया दे आए। फिर बीच जुलाई में शरद भैया को अप्वॉयंटमेंट मिल गया।

    जिस दिन शरद भैया पहली बार ऑफ़िस गए, माँ ने मीठे चावल बनाए थे। शाम को शरद भैया के लौटने पर घर में जो बैठक जमी, वह देर रात तक चलती रही। बद्री काका भी सपरिवार हमारे यहाँ आमंत्रित थे। पूरे तीन महीने घर पर इस घटना का असर रहा, फिर एक और घटना हो गई।

    अक्टूबर के दूसरे सप्ताह अचानक एक दिन शरद भैया को नौकरी से हटा दिया गया। कारण कि बतरा साब ने जो नियुक्तियाँ की थीं, उनके लिए न तो उन्होंने विधिवत रोज़गार-दफ़्तर से आशार्थियों की सूची मँगवाई थी और न ही दूसरी औपचारिकताएँ पूर्ण की थीं। इतना ही नहीं, उन्होंने चारों रिक्त पदों पर सवर्ण लड़कों को नियुक्ति दे दी थी, जबकि क़ायदे से उन्हें एक पद पर अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को लगाना था। यही कारण था कि इन नियुक्तियों के फ़ौरन बाद ही बतरा साब के विरूद्ध शिकायत हो गई थी।

    शुरू-शुरू में किसी ने इस मामले को सीरियसली नहीं लिया था, क्योंकि हम सभी यह ही सोचते थे कि ऐसे मामलों में शिकायतें होना आम बात है। दूसरे, बतरा साब के बारे में भी सुना था कि वे बेहद घाघ और तिकड़मबाज़ आदमी हैं, उनकी एप्रोच ठेठ ऊपर तक है।

    लेकिन मालूम नहीं कैसे, मामले ने तूल पकड़ ली और बीच सितंबर में ही बतरा साब का ट्रांसफ़र हो गया। उस वक़्त बाबू और शरद भैया बतरा साब के घर गए थे। और जब बाबू ने शरद भैया की नौकरी छिन जाने की आशंका व्यक्त की थी तो बतरा साब ने हँसते हुए शरद भैया की तरफ़ देखते हुए कहा था—“चिंता की बात नहीं तुम तो डटे रहो।”

    बतरा साब के यहाँ से लौटकर बाबू ने उनसे हुई भेंट का सारा वृत्तांत सुनाने के बाद माँ को आश्वस्त करने के लिए यह भी कहा था कि जल्दी ही बतरा साब का ट्रांसफ़र रद्द भी हो जाएगा। परंतु ट्रांसफ़र रद्द नहीं हुआ, बतरा साब की पूरी कोशिश के बावजूद। लाचार बतरा साब छुट्टी लेकर बैठ गए और उनकी जगह आए नए अधिकारी ने चार्ज एज़्यूम करने के एक सप्ताह बाद ही विभाग को बतरा साब द्वारा की गई अनियमितताओं का ब्यौरा अर्द्धशासकीय पत्र के ज़रिए भेज दिया। इसी पत्र के कारण विभाग के तीन माह के लिए की गई नियुक्तियों के मामले में एक्स्टेशन नहीं दी और फलस्वरूप शरद भैया की नौकरी छूट गई। यह उस साल की तीसरी घटना थी।

    इस घटना के तीन दिन बाद बद्री काका और शरद भैया वकील से मिले। वकील ने, जो शरद भैया के साथ पढ़ा हुआ था, सारे काग़ज़ात देखने के बाद साफ़ कह दिया कि इस मामले में अब कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि नियुक्ति केवल तीन माह के लिए थी और वह भी सर्वथा अस्थाई तौर पर दी गई थी, इसलिए विभागीय निर्णय को कोर्ट में चैलेंज करने से कोई फ़ायदा नहीं।

    वकील के यहाँ से निराश होकर लौटने के बाद शरद भैया हर रोज़ बतरा साब के यहाँ चक्कर लगाने लगे। बतरा साब चूँकि बाहर गए हुए थे, अतः उनसे भेंट नहीं हो पा रही थी। इस बीच बाबू और माँ के व्यवहार में अजीब-सा बदलाव आने लगा। माँ जो पहले ज़ियादातर चुप रहती थीं, अब बहुत चिड़चिड़ी हो गई थीं। बात-बेबात बाबू से उलझना और उन्हें ताने कसना माँ की दिनचर्या का हिस्सा हो गया, जबकि बाबू पहले से कहीं अधिक चुप, उदास और बीमार रहने लगे।

    पैसों की चिंता सिर्फ़ माँ को ही थी, सो बात नहीं, बाबू भी चिंतित थे पर उन्हें उम्मीद थी कि बतरा साब अपने वायदे के मुताबिक़ शरद भैया को एक्स्टेंशन दिलवाकर कंफ़र्म नहीं कर पाने के कारण पैसे लौटा देंगे।

    और शरद भैया—सबसे ख़राब स्थिति तो घर में उनकी हो गई थी। माँ को अब वे जैसे बर्दाश्त ही नहीं हो रहे थे। सुबहदम उन्हें देखते ही माँ किसी न बहाने कोसना शुरू कर देतीं। प्रायः वे चुप रहकर कलह को टालने की कोशिश करते, लेकिन इस कोशिश में कई बार उन्हें बिना कुछ खाए-पिए पूरे-पूरे दिन घर से बाहर भटकना पड़ता।

    कितने ही दिन यही क्रम चलता रहा, फिर एक दिन बद्री काका ने ही आकर यह सूचना दी कि बतरा साब लौट आए है। बाबू इस सूचना से इतने उतावले हो गए कि बुख़ार के बावजूद ख़ुद शरद भैया को लेकर बतरा साब के यहाँ जाने लगे, लेकिन बद्री काका ने समझा-बुझाकर उन्हें रोक दिया और बाबू की जगह वे ख़ुद शरद भैया को साथ लेकर बतरा साब के यहाँ गए।

    यह 10 दिसंबर की बात है। यह तारीख़ मुझसे भुलाए नहीं भूलती। पिछली रात श्रीनगर में हिमपात के कारण उस दिन ठंड और दिनों से तेज़ थी। पूरे दिन सूरज नहीं निकला था। तेज़ हवा से किवाड़ बजते रहे थे। दूधवाला सुबह छह के बजाए आठ बजे आया था। छत पर तुलसी का गमला बंदर ने उलट दिया था। बाबू बाजरी का दलिया खाकर, दूध के साथ कुनैन की गोली निगलने की कोशिश में उल्टी करने के बाद शरद भैया का इंतिज़ार करते हुए सो गए थे। दुपहर तीन बजे जब तनु दी उनके कमरे में गईं तो वे नींद में कुछ बड़बड़ा रहे थे। माँ ने कमरे की खिड़की बंद करके उन्हें एक कंबल ओढ़ा दिया था। शायद पाँच-सवा पाँच बजे शाम को शरद भैया घर लौट थे। इस वक़्त माँ रसोई में बाबू के लिए चाय बना रही थीं। शरद भैया की आवाज़ सुनकर बाबू ने उन्हें बुलाया। शरद भैया के पीछे-पीछे मैं भी बाबू के कमरे में गया। बाबू तकिए का सहारा लिए बैठे थे और शायद भैया बता रहे थे कि बतरा साब ने पैसा लौटाने से इंकार कर दिया है, इसलिए अब वे कल से बाबू की जगह दुकान पर काम करने के लिए सेठ से मिलने जा रहे हैं।

    शरद भैया की बात सुनकर एक क्षण, हाँ, केवल एक क्षण के लिए बाबू के चेहरे का रंग उड़ा, फिर अचानक उनके होंठों पर मुस्कुराहट-सी उभरी और इससे पहले कि शरद भैया कुछ और कहते, बाबू ज़ोरदार ठहाका लगाकर हँसने लगे।

    हम बाबू का ठहाका रुकने का इंतिज़ार करते रहे, कितनी ही देर। लेकिन वे हँसते ही रहे। तब बड़ी मुश्किल से उन्हें रस्सी से बाँधकर हम मेंटल हॉस्पिटल छोड़ आए और यह उस साल की चौथी घटना थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 310)
    • संपादक : उमाशंकर चौधरी-ज्योति चावला
    • रचनाकार : रघुननंदन त्रिवेदी
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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