बचपन

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कृष्णा सोबती

और अधिककृष्णा सोबती

    नोट

    प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    मैं तुम्हें अपने बचपन की ओर ले जाऊँगी।

    मैं तुमसे कुछ इतनी बड़ी हूँ कि तुम्हारी दादी भी हो सकती हूँ, तुम्हारी नानी भी। बड़ी बुआ भी—बड़ी मौसी भी। परिवार में मुझे सभी लोग जीजी कहकर ही पुकारते हैं।

    हाँ, मैं इन दिनों कुछ बड़ा-बड़ा यानी उम्र में सयाना महसूस करने लगी हूँ। शायद इसलिए कि पिछली शताब्दी में पैदा हुई थी। मेरे पहनने ओढ़ने में भी काफ़ी बदलाव आए हैं। पहले मैं रंग-बिरंगे कपड़े पहनती रही हूँ। नीला जामुनी-ग्रे-काला-चॉकलेटी। अब मन कुछ ऐसा करता है कि सफ़ेद पहनो। गहरे नहीं, हलके रंग। मैंने पिछले दशकों में तरह-तरह की पोशाकें पहनी हैं। पहले फ़्रॉक, फिर निकर-वॉकर, स्कर्ट, लहँगे, गरारे और अब चूड़ीदार और घेरदार कुर्ते।

    बचपन के कुछ फ़्रॉक तो मुझे अब तक याद हैं। हलकी नीली और पीली धारी वाला फ़्रॉक।

    गोल कॉलर और बाजू पर भी गोल कफ़।

    एक हलके गुलाबी रंग का बारीक़ चुन्नटों वाला घेरदार फ़्रॉक नीचे गुलाबी रंग की फ्रिल।

    उन दिनों फ़्रॉक के ऊपर की जेब में रूमाल और बालों में इतराते रंग-बिरंगे रिबन का चलन था।

    लेमन कलर का बड़े प्लेटों वाला गर्म फ़्रॉक जिसके नीचे फ़र टँकी थी।

    दो ट्यूनिक भी याद हैं। एक चॉकलेट रंग का और अंदर की कोटी प्याज़ी। और उसके साथ सफ़ेद कोटी।

    मुझे अपने मोज़े और स्टॉकिंग भी याद हैं!

    बचपन में हमें अपने मोज़े ख़ुद धोने पड़ते थे। वह नौकर या नौकरानी को नहीं दिए जा सकते थे। इसकी सख़्त मनाही थी।

    हम बच्चे इतवार की सुबह इसी में लगाते। धो लेने के बाद अपने-अपने जूते पॉलिश करके चमकाते। जब जूते कपड़े या ब्रश से रगड़ते तो पॉलिश की चमक उभरने लगती।

    सरवर, मुझे आज भी बूट पॉलिश करना अच्छा लगता है। हालाँकि अब नई-नई क़िस्म के शू आ चुके हैं। कहना होगा कि ये पहले से कहीं ज़्यादा आरामदेह हैं। हमें जब नए जूते मिलते, उसके साथ ही छालों का इलाज शुरू हो जाता।

    जब कभी लंबी सैर पर निकलते, अपने पास रुई ज़रूर रखते। जूता लगा तो रुई मोज़े के अंदर। हाँ, हमारे-तुम्हारे बचपन में तो बहुत फ़र्क़ हो चुका है।

    हर शनीचर को हमें ऑलिव ऑयल या कैस्टर ऑयल पीना पड़ता। यह एक मुश्किल काम था। शनीचर को सुबह से ही नाक में इसकी गंध आने लगती!

    छोटे शीशे के गिलास, जिन पर ठीक ख़ुराक के लिए निशान पड़े रहते, उन्हें देखते ही मितली होने लगती।

    मुझे आज भी लगता है कि अगर हम न भी पीते वह शनिवारी दवा तो कुछ ज़्यादा बिगड़ने वाला नहीं था। सेहत ठीक ही रहती।

    तुम्हें बताऊँगी कि हमारे समय और तुम्हारे समय में कितनी दूरी हो चुकी है। यहाँ तक कि बचपन की दिलचस्पियाँ भी बदल गई हैं।

    याद रहे, उन दिनों कुछ घरों में ग्रामोफ़ोन थे, रेडियो और टेलीविज़न नहीं थे।

    हमारे बचपन की कुलफ़ी आइसक्रीम हो गई है। कचौड़ी समोसा, पैटीज़ में बदल गया है। शहतूत और फ़ाल्से और खसखस के शरबत कोक-पेप्सी में।

    उन दिनों कोक नहीं, लेमनेड, विमटो मिलती थी।

    शिमला और नई दिल्ली में बड़े हुए बच्चों को वेंगर्स और डेविको रेस्तराँ की चॉकलेट और पेस्ट्री मज़ा देने वाली होती। हम भाई-बहनों की ड्यूटी लगती शिमला माल से ब्राउन ब्रेड लाने की।

    हमारा घर माल से ज़्यादा दूर नहीं था। एक छोटी-सी चढ़ाई और गिरजा मैदान पहुँच जाते। वहाँ से एक उतराई उतरते और माल पर। कन्फ़ेक्शनरी काउंटर पर तरह-तरह पेस्ट्री और चॉकलेट की ख़ुशबू मनभावनी! 

    हमें हफ़्ते में एक बार चॉकलेट ख़रीदने की छूट थी। सबसे ज़्यादा मेरे पास ही चॉकलेट-टॉफ़ी का स्टॉक रहता। मैं चॉकलेट लेकर खड़े-खड़े कभी न खाती। घर लौटकर साइडबोर्ड पर रख देती और रात के खाने के बाद बिस्तर में लेटकर मज़ा ले-ले खाती।

    शिमला के काफ़ल भी बहुत याद आते हैं। खट्टे-मीठे। कुछ एकदम लाल, कुछ गुलाबी। रसभरी। कसमल। सोचकर ही मुँह में पानी भर आए। चेस्टनट एक और गज़ब की चीज़ आग पर भूने जाते और फिर छिलके उतारकर मुँह में।

    चने जोर गर्म और अनारदाने का चूर्ण! हाँ, चने जोर गर्म की पुड़िया जो तब थी, वह अब भी नज़र आती है। पुराने काग़ज़ों से बनाई हुई इस पुड़िया में निरा हाथ का कमाल है। नीचे से तिरछी लपेटते हुए ऊपर से इतनी चौड़ी कि चने आसानी से हथेली पर पहुँच जाएँ। एक वक़्त था जब फ़िल्म का गाना-चना जोर गर्म बाबू मैं लाया मज़ेदार, चना जोर गर्म—उन दिनों स्कूल के हर बच्चे को आता था।

    कुछ बच्चे पुड़िया पर तेज़ मसाला बुरकवाते। पूरा गिरजा मैदान घूमने तक यह पुड़िया चलती। एक-एक चना-पापड़ी मुँह में डालने और क़दम उठाने में एक ख़ास ही लय-रफ़्तार थी।

    छुटपन में हमने शिमला रिज पर बहुत मज़े किए हैं। घोड़ों की सवारी की है। शिमला के हर बच्चे को कभी-न-कभी यह मौक़ा मिल ही जाता था।

    हम जाने क्यों घोड़ों को कुछ कमतर करके समझते। उन पर हँसते थे। ननिहाल के घोड़े ख़ूब हृष्ट-पुष्ट और ख़ूबसूरत। उनकी बात फिर कभी।

    शाम को रंग-बिरंगे गुब्बारे। सामने जाखू का पहाड़। ऊँचा चर्च। चर्च की घंटियाँ बजतीं तो दूर-दूर तक उनकी गूँज फैल जाती। लगता, इसके संगीत से प्रभु ईशू स्वयं कुछ कह रहे हैं।

    सामने आकाश पर सूर्यास्त हो रहा है। गुलाबी सुनहरी धारियाँ नीले आसमान पर फैल रही हैं। दूर-दूर फैले पहाड़ों के मुखड़े गहराने लगे और देखते-देखते बत्तियाँ टिमटिमाने लगीं। रिज पर की रौनक और माल की दुकानों की चमक के भी क्या कहने! स्कैंडल पॉइंट की भीड़ से उभरता कोलाहल।

    सरवर, स्कैंडल पॉइंट के ठीक सामने उन दिनों एक दुकान हुआ करती थी, जिसके शोरूम में शिमला-कालका ट्रेन का मॉडल बना हुआ था। इसकी पटरियाँ—उस पर खड़ी छोटे-छोटे डिब्बों वाली ट्रेन। एक ओर लाल टीन की छतवाला स्टेशन और सामने सिग्नल देता खंबा—थोड़ी-थोड़ी दूर पर बनीं सुरंगें!

    पिछली सदी में तेज़ रफ़्तार वाली गाड़ी वही थी। कभी-कभी हवाई जहाज़ भी देखने को मिलते! दिल्ली में जब भी उनकी आवाज़ आती, बच्चे उन्हें देखने बाहर दौड़ते। दीखता एक भारी-भरकम पक्षी उड़ा जा रहा है पंख फैलाकर। यह देखो और वह ग़ायब! उसकी स्पीड ही इतनी तेज़ लगती। हाँ, गाड़ी के मॉडलवाली दुकान के साथ एक और ऐसी दुकान थी जो मुझे कभी नहीं भूलती। यह वह दुकान थी जहाँ मेरा पहला चश्मा बना था। वहाँ आँखों के डॉक्टर अँग्रेज़ थे।

    शुरू-शुरू में चश्मा लगाना बड़ा अटपटा लगा। छोटे-बड़े मेरे चेहरे की ओर देखते और कहते—आँखों में कुछ तकलीफ़ है! इस उम्र में ऐनक! दूध पिया करो। मैं डॉक्टर साहिब का कहा दोहरा देती—कुछ देर पहनोगी तो ऐनक उतर जाएगी।

    वैसे डॉक्टर साहिब ने पूरा आश्वासन दिया था, लेकिन चश्मा तो अब तक नहीं उतरा। नंबर बस कम ही होता रहा! मैं अपने-आप इसकी ज़िम्मेवार हूँ। जब आप दिन की रोशनी को छोड़कर रात में टेबल लैंप के सामने काम करेंगी तो इसके अलावा और क्या होगा! हाँ, जब पहली बार मैंने चश्मा लगाया तो मेरे एक चचेरे भाई ने मुझे छेड़ा-देखो, देखो, कैसी लग रही है!

    आँख पर चश्मा लगाया

    ताकि सूझे दूर की

    यह नहीं लड़की को मालूम

    सूरत बनी लंगूर की!

    मैं खीझी कि मुझ पर यह क्यों दोहराया जा रहा है! पर शेर बुरा न लगा।

    जब वह चाय पीकर चले गए तो मैं अपने कमरे में जाकर आईने के सामने खड़ी हो गई। कई बार अपने को देखा। ऐनक उतारी। फिर पहनी। फिर उतारी। देखती रही-देखती रही।

    सूरत बनी लंगूर की—

    नहीं-नहीं-नहीं—

    हाँ-हाँ-हाँ—

    मैंने अपने छोटे भाई का टोपा उठाकर सिर पर रखा। कुछ अजीब लगा। अच्छा भी और मज़ाकिया भी।

    तब की बात थी, अब तो चेहरे के साथ घुल-मिल गया है चश्मा। जब कभी उतरा हुआ होता है तो चेहरा ख़ाली-ख़ाली लगने लगता है।

    याद आ गया वह टोपा, काली फ़्रेम का चश्मा और लंगूर की सूरत! हाँ, शिमला में मैं सिर पर टोपी लगाना पसंद करती हूँ। मैंने कई रंगों की जमा कर ली हैं। कहाँ दुपट्टों का ओढ़ना और कहाँ सहज सहल सुभीते वाली हिमाचली टोपियाँ!

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    कृष्णा सोबती

    कृष्णा सोबती

    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत भाग 1 (पृष्ठ 5)
    • रचनाकार : कृष्णा सोबती
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022

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