विनोद कुमार शुक्ल के उद्धरण

घर का दरवाज़ा खोलते ही मैंने घर को ऐसे देखा जैसे किसी ख़ाली डब्बे के ढक्कन को खोलकर अंदर झाँक रहा हूँ। अगर ख़ालीपन मभी कोई चीज़ थी, तो उसी घर ठसाठस भरा था। इसके अलावा कुछ नहीं था। घर के अंदर मैं उसी तरह आया, जैसे एक उपराहा ख़ालीपन और आया है।
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