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अख़्तरुल ईमान

1915 - 1996

आधुनिक उर्दू नज़्म के संस्थापकों में शामिल। अग्रणी फ़िल्म-संवाद लेखक। फ़िल्म ' वक़्त ' और ' क़ानून ' के संवादों के लिए मशहूर। फ़िल्म 'वक़्त' में उनका संवाद ' जिनके घर शीशे के हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते ' , आज भी ज़बानों पर

आधुनिक उर्दू नज़्म के संस्थापकों में शामिल। अग्रणी फ़िल्म-संवाद लेखक। फ़िल्म ' वक़्त ' और ' क़ानून ' के संवादों के लिए मशहूर। फ़िल्म 'वक़्त' में उनका संवाद ' जिनके घर शीशे के हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते ' , आज भी ज़बानों पर

अख़्तरुल ईमान का परिचय

उपनाम : 'अख़्तर'

मूल नाम : अख़्तर-उल-ईमान

जन्म : 12/11/1915

निधन : 09/03/1996

अख़तरुल ईमान उर्दू नज़्म के नए मानक स्थापित करने वाले अद्वितीय शायर हैं जिनकी नज़्में उर्दू अदब के धरोहर का अमूल्य हिस्सा हैं। उन्होंने उर्दू शायरी की लोकप्रिय विधा ग़ज़ल से किनारा करते हुए सिर्फ़ नज़्म को अपने काव्य अभिव्यक्ति का ज़रिया बनाया और एक ऐसी ज़बान में गुफ़्तगु की जो शुरू में,उर्दू शायरी से दिलचस्पी रखने वाले तग़ज़्ज़ुल और तरन्नुम आश्ना कानों के लिए खुरदरी और ग़ैर शायराना थी लेकिन वक़्त के साथ यही ज़बान उनके बाद आने वालों के लिए नए विषयों और अभिव्यक्ति की नए आयाम तलाश करने का हवाला बनी। उनकी शायरी पाठक को न तो चौंकाती है और न फ़ौरी तौर पर अपनी गिरफ़्त में लेती है बल्कि आहिस्ता-आहिस्ता, ग़ैर महसूस तरीक़े पर अपना जादू जगाती है और स्थायी प्रभाव छोड़ जाती है। उनके चिंतन को भ्रम या कैफ़ आवर ग़िनाइयत के दायरे तक सीमित नहीं किया जा सकता था, इसीलिए उन्होंने अभिव्यक्ति का वो ढंग अपनाया जो ज़्यादा से ज़्यादा संवेदी, भावनात्मक, नैतिक और सामाजिक अनुभवों का समावेश कर सके। यही वजह है कि मौज़ूआत,एहसासात और अनुभवों की जो विविधता अख़तरुल ईमान की शायरी में मिलती है वो उनके दूसरे समकालीन शायरों के यहाँ नहीं है। उनकी हर नज़्म भाषा, शब्दावली, लब-ओ-लहजा और सामंजस्य की एक नई प्रणाली का परिचय देती है। अख़तरुल ईमान के लिए शायरी एक ज़ेहनी तरंग या तफ़रीही मशग़ला नहीं था। अपने संग्रह “यादें” की भूमिका में उन्होंने लिखा, “शायरी मेरे नज़दीक क्या है? अगर मैं इस बात को एक लफ़्ज़ में स्पष्ट करना चाहूँ तो मज़हब का लफ़्ज़ इस्तेमाल करूँगा। कोई भी काम, जिसे इंसान ईमानदारी से करना चाहे, उसमें जब तक वो लगन और तक़द्दुस न हो जो सिर्फ़ मज़हब से वाबस्ता है, इस काम के लिए अच्छा होने में हमेशा शुबहा की गुंजाइश रहेगी।” शायरी अख़तरुल ईमान के लिए इबादत थी और उन्होंने शायरी की नमाज़ कभी जमाअत के साथ नहीं पढ़ी। जिन शायरों के यहां उनको इबादत समझ कर शायरी करने की विशेषता नहीं मिली, उनको वो शायर नहीं बल्कि महज़ बैत साज़ समझते थे। मजाज़, मख़दूम, फ़ैज़ और फ़िराक़ को वो किसी हद तक शायर मान लेते थे लेकिन बाक़ी दूसरों की शायरी उनको रचनात्मक कविता से बाहर की चीज़ नज़र आती थी।


अख़तरुल ईमान ने ज़िंदगी में बहुत कुछ देखा और बहुत कुछ झेला। वो 12 नवंबर 1915 को पश्चिमी उतर प्रदेश के ज़िला बिजनौर की एक छोटी सी बस्ती क़िला पत्थरगढ़ में एक निर्धन घराने में पैदा हुए। वालिद का नाम हाफ़िज़ फ़तह मुहम्मद था जो पेशे से इमाम थे और मस्जिद में बच्चों को पढ़ाया भी करते थे। उस घराने में दो वक़्त की रोटी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मसला थी। वालिद की रंगीन मिज़ाजी की वजह से माँ-बाप के ताल्लुक़ात कशीदा रहते थे और माँ अक्सर झगड़ा कर के अपने मायके चली जाती थीं और अख़तर शिक्षा के विचार से बाप के पास रहते। वालिद ने उनको क़ुरआन हिफ़्ज़ करने पर लगा दिया लेकिन जल्द ही उनकी चची जो ख़ाला भी थीं उनको दिल्ली ले गईं और अपने पास रखने के बजाय उनको एक अनाथालय मोईद-उल-इस्लाम (दरियागंज स्थित मौजूदा बच्चों का घर) में दाख़िल करा दिया। यहां अख़तरुल ईमान ने आठवीं जमात तक शिक्षा प्राप्त की। मोईद-उल-इस्लाम के एक उस्ताद अब्दुल वाहिद ने अख़तरुल ईमान को लिखने-लिखाने और भाषण देने की तरफ़ ध्यान दिलाया और उन्हें एहसास दिलाया कि उनमें अदीब-ओ-शायर बनने की बहुत संभावनाएं हैं। उनकी हौसला-अफ़ज़ाई से अख़तर ने सत्रह-अठारह साल की उम्र में शायरी शुरू कर दी। यह स्कूल सिर्फ़ आठवीं जमात तक था, यहां से आठवीं जमात पास करने के बाद उन्होंने फ़तेहपुरी स्कूल में दाख़िला ले लिया जहां उनके हालात और शिक्षा के शौक़ को देखते हुए उनकी फ़ीस माफ़ कर दी गई और वो चचा का मकान छोड़कर अलग रहने लगे और ट्युशन से अपनी गुज़र बसर करने लगे। 1937 ई. में उन्होंने उसी स्कूल से मैट्रिक पास किया।

मैट्रिक के बाद अख़तरुल ईमान ने ऐंगलो अरबिक कॉलेज (मौजूदा ज़ाकिर हुसैन कॉलेज)में दाख़िला लिया। कॉलेज में वो एक जुझारू वक्ता और अपनी सामान्य रूमानी नज़्मों की बदौलत लड़कियों के पसंदीदा शायर की हैसियत से जाने जाने लगे। उनके बेतकल्लुफ़ दोस्त उनको ब्लैक जापान अख़तरुल ईमान कहते थे। वो अशैक्षणिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे और मुस्लिम स्टुडेंट्स फ़ेडरेशन के ज्वाइंट सेक्रेटरी थे। उनकी एक आवाज़ पर कॉलेज में हड़ताल हो जाती थी। उसी ज़माने में उनकी माँ ने, उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनकी शादी एक अनपढ़ लड़की से कर दी जो तलाक़ पर ख़त्म हुई। ट्युशन में उनके पास लड़कियां भी पढ़ने आती थीं, उनमें एक शादीशुदा लड़की क़ैसर भी थी जिस पर अख़तर मोहित हो गए और अपने बुढ़ापे में उसकी याद में अपनी मशहूर नज़्म “डासना स्टेशन का मुसाफ़िर” लिखी। ये उनका आख़िरी इश्क़ नहीं था, वो बहुत जल्द किसी न किसी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाते थे और टूट कर मुहब्बत करने लगते थे। अपनी कमरुई और ग़रीबी के कारण उनमें आत्मविश्वास बिल्कुल नहीं था, वो लगभग हर क़रीब से नज़र आने वाली लड़की को पसंद कर लेते थे और फिर ख़ुद ही उससे मायूस हो जाते थे। वो जिससे मुहब्बत करते शिद्दत से मुहब्बत करते। ये मुहब्बतें उनके लिए कोई खेल तमाशा नहीं थीं, वो गहरी और शदीद होती थीं लेकिन दूसरी तरफ़ से बेतवज्जुही उनको महबूब बदलने पर मजबूर कर देती थी। फिर उन लड़कियों के अप्राप्य होने का एहसास उनको खा गया और स्थिति अलौकिक विचारों में बदल गई। उन्होंने ख़ुद को समझा लिया कि उनकी आदर्श प्रेमिका इस दुनिया में मौजूद ही नहीं है, अब वो एक काल्पनिक प्रेमिका की कल्पना में मगन हो गए जिसका वह एक नाम "ज़ुल्फ़िया” भी तजवीज़ कर लिया और अपना दूसरा काव्य संग्रह उसी के नाम समर्पित किया। ये ज़ुल्फ़िया इस दुनिया की जीव नहीं थी बल्कि एक कल्पना, एक आकृति और एक कैफ़ियत थी जिसके थोड़े बहुत मज़ाहिर जिसमें नज़र आए वो उसी की आराधना करने लगते। अपनी बाक़ी ज़िंदगी में, इंसानी, सामाजिक, नैतिक ग़रज़ कि ज़िंदगी के समस्त क्षेत्रों के मूल्यों से वो उसी ज़ुल्फ़िया के हवाले से से रूबरू होते रहे और वही उनकी शायरी की बौद्धिक, संवेदनात्मक और भावात्मक आधार बन गई। ऐंगलो अरबिक कॉलेज से बी.ए करने के बाद उनको वहां एम.ए में दाख़िला नहीं मिला क्योंकि उनको कॉलेज की डिसिप्लिन के लिए ख़तरा समझा जाने लगा था। कुछ दिनों बेकार रहने के बाद वो साग़र निज़ामी की ख़्वाहिश पर 1941 में “एशिया” के संपादन के लिए मेरठ चले गए जहां उनकी तनख़्वाह 40 रुपये माहवार थी। मेरठ में अख़तर का दिल नहीं लगा और वो चार-पाँच माह बाद दिल्ली वापस आकर सप्लाई विभाग में क्लर्क बन गए। लेकिन एक ही माह बाद 1942 में उनकी नियुक्ति दिल्ली रेडियो स्टेशन में हो गई। ये नौकरी रेडियो स्टेशन की आंतरिक राजनीति की भेंट चढ़ गई और उनको निकाल दिया गया जिसमें कथित रूप से नून मीम राशिद का हाथ था। इसके बाद अख़तरुल ईमान ने किसी तरह अलीगढ़ जा कर एम.ए उर्दू में दाख़िला लिया लेकिन ग़रीबी की वजह से सिर्फ़ पहला साल मुकम्मल कर सके और रोज़ी की तलाश में पूना जाकर शालीमार स्टूडियो में बतौर कहानीकार और संवाद लेखक की नौकरी कर ली। लगभग दो साल वहां गुज़ारने के बाद वो बंबई चले गए और फिल्मों में संवाद लिखने लगे। 1947 में उन्होंने सुल्ताना मंसूरी से शादी की, ये मुहब्बत की शादी नहीं थी लेकिन पूरी तरह कामयाब रही।

बंबई पहुंच कर अख़तरुल ईमान की आर्थिक स्थिति में बेहतरी आई जिसमें उनकी अनथक मेहनत का बड़ा दख़ल था और जिसका सबक़ उनको शायर मज़दूर एहसान दानिश ने दिया था और कहा था, “अख़तर साहिब, देखो शायरी-वायरी तो अपने हिसाबों सब चला लेते हैं, रोटी मज़दूरी से मिलती है। मज़दूरी की आदत डालो अज़ीज़म!” बंबई की फ़िल्म नगरी में आकर अख़तरुल ईमान को दुनिया को देखने और इंसान को हर अंदाज़ में समझने का मौक़ा मिला। यहां की धोकेबाज़ियां, मक्कारियाँ, झूट, कीना-कपट का उन्होंने अध्ययन किया। उनका कहना था की फ़िल्मी दुनिया से मुझे अंतर्दृष्टि मिली।

अख़तरुल ईमान अपनी शायरी के उत्कृष्ट टीकाकार और आलोचक ख़ुद थे। वो अपनी किताबों की भूमिका स्वयं लिखते थे और पाठक का मार्गदर्शन करते थे कि उनको किस तरह पढ़ा जाये। जैसे “यह शायरी मशीन में नहीं ढली, एक ऐसे इंसान के ज़ेहन की रचना है जो दिन-रात बदलती हुई सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मूल्यों से दो-चार होता है। जहां इंसान ज़िंदगी और समाज के साथ बहुत से समझौते करने पर मजबूर है जिन्हें वो पसंद नहीं करता। समझौते इसलिए करता है कि उसके बिना ज़िंदा रहना मुम्किन नहीं और उनके ख़िलाफ़ आवाज़ इसलिए उठाता है कि उसके पास ज़मीर नाम की एक चीज़ है। और ये तन्हा अख़तरुल ईमान के ज़मीर की आवाज़ नहीं बल्कि उनके युग के हर संवेदनशील व्यक्ति के ज़मीर की आवाज़ है। उनकी शायरी उसी बा ज़मीर आदमी के भावनाओं का प्रतिबिम्ब है जिसमें आक्रामक प्रतिक्रिया की गुंजाइश नहीं क्योंकि ये जूनून की नहीं अनुभूति की आवाज़ है।

अख़तरुल ईमान एक सुलह जू इंसान थे लेकिन शब्द की पवित्रता पर कोई आँच आना उनको गवारा नहीं था। समकालीन शायरों के बारे में उनकी जो राय थी उसमें किसी ख़ुद-पसंदी का नहीं बल्कि शब्द की पवित्रता की पासदारी को दख़ल था। अपने लेखन के हवाले से वो बहुत सख़्त-गीर थे। एक बार वो किसी फ़िल्म के संवाद लिख रहे थे जिसके हीरो दिलीप कुमार थे। उन्होंने किसी संवाद में बदलाव के लिए अख़तरुल ईमान का लिखा हुआ संवाद काट कर अपने क़लम से कुछ लिखना चाहा। अख़तरुल ईमान ने उन्हें सख़्ती से रोक दिया कि वो उनकी तहरीर को न काटें, अपना एतराज़ ज़बानी बताएं अगर बदलना होगा तो वो ख़ुद अपने क़लम से बदलेंगे। इसी तरह का एक और क़िस्सा है जब अख़तरुल ईमान बाक़ायदगी से सुबह चहलक़दमी के लिए जाया करते थे। एक रोज़ वो चहलक़दमी कर रहे थे कि सामने से जावेद अख़तर कहीं अपनी रात गुज़ार कर वापस आ रहे थे। वो अख़तरुल ईमान को देखकर बोले, “अख़तर भाई आपका ये मिसरा, उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें, ग़लत है (यानी जब हाथ उठाने की बात कह दी गई है तो दस्त-ए-दुआ बुलंद करने का क्या मतलब?) अख़तरुल ईमान का छोटा सा जवाब था, “तुम उर्दू ज़बान के मुहावरे से वाक़िफ़ नहीं।” जावेद गर्म हो गए कि मैं जाँनिसार अख़तर का बेटा और मजाज़ का भांजा उर्दू के मुहावरे से वाक़िफ़ नहीं! इस पर अख़तरुल ईमान ने कुछ ऐसा कहा जो बक़ौल रावी लिखने के क़ाबिल नहीं। ख़ैर, जावेद बात को पी गए और उनसे कहा कि घर चलिए, चाय पी कर जाइएगा। लेकिन अख़तरुल ईमान ने गुस्से से कहा, “जाओ भाई, मेरी सैर क्यों ख़राब करते हो?” यहां राक़िम-उल-हरूफ़ को वो वाक़िया याद आता है जो वारिस किरमानी ने घूमती नदी में लिखा है कि वो जिस ज़माने में अलीगढ़ यूनीवर्सिटी में फ़ारसी के प्रोफ़ेसर थे, ग़ालिब के शे’र
विसाल-ओ-हिज्र जुदागाना लज़्ज़ते दारद
हज़ार बार बरूए सद-हज़ार बार बया

पर एतराज़ करते हुए एक छात्रा ने कहा था कि ये कैसे मुम्किन है कि कोई हज़ार बार जा कर सद-हज़ार बार वापस आए और इस पर वारिस किरमानी ने उसको मश्वरा दिया था कि वो अदब की बजाय रियाज़ी के कोर्स में दाख़िला ले ले। ग़ालिब के लाजवाब शे’र की जिस तरह उस लड़की ने मिट्टी पलीद की वो तो क़ाबिल-ए-माफ़ी थी कि वो तालिब-इल्म और नापुख़्ता अदबी शऊर की मालिक थी लेकिन किरमानी साहिब शे’र की वज़ाहत न कर पाने और लड़की को रियाज़ी के कोर्स में दाख़िला लेने का मश्वरा देने के लिए ज़रूर इस क़ाबिल थे कि उनकी क्लास ली जाये।

मुंबई में अपनी 50 साला फ़िल्मी सरगर्मी के दौरान में अख़तरुल ईमान ने 100 से ज़्यादा फिल्मों के संवाद लिखे जिनमें नग़मा, रफ़्तार, ज़िंदगी और तूफ़ान, मुग़ल-ए-आज़म, क़ानून, वक़्त, हमराज़, दाग़, आदमी, मुजरिम, मेरा साया, आदमी और इंसान, चांदी-सोना, धरम पुत्र, और अपराध जैसी कामयाब फिल्में शामिल थीं, वक़्त और धरम पुत्र के लिए उनको बेहतरीन संवाद लेखन का फ़िल्म फ़ेयर ऐवार्ड से नवाज़ा गया।

उनकी नज़्मों के दस संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें गर्दाब, सब रंग, तारीक सय्यारा, आबजू, यादें, बिंत लम्हात, नया आहंग, सर-ओ-सामाँ, ज़मीन ज़मीन और ज़मिस्ताँ सर्द-मोहरी का शामिल हैं। यादें के प्रकाशन पर उनको साहित्य अकादेमी ऐवार्ड मिला, बिंत लम्हात पर उ.प्र. उर्दू एकैडमी और मीर एकैडमी ने उनको इनाम दिया, नया आहंग के लिए महाराष्ट्र उर्दू एकैडमी ने उनको ऐवार्ड दिया और सर-ओ-सामाँ के लिए मध्य प्रदेश हुकूमत ने उन्हें इक़बाल समान से नवाज़ा। इसी किताब पर उनको दिल्ली उर्दू एकैडमी और ग़ालिब इंस्टीट्युट ने भी इनामात दिए। तीन बार उनको ज्ञानपीठ ऐवार्ड के लिए नामज़द किया गया।

9 मार्च 1996 को दिल की बीमारी से उनका निधन हो गया और इसी के साथ उर्दू नज़्म अपने एक महान सपूत से महरूम हो गई। अख़तरुल ईमान ने अपने अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में काव्य भाषाविज्ञान के समस्त उपस्थित तत्वों को आज़माने के बजाय उन्होंने स्पष्ट और वास्तविक भाषा उपयोग कर के दिखा दिया कि शे’र कहने का एक अंदाज़ ये भी है। उनकी शायरी पाठक से अपने पठन की ही नहीं अपनी सुनवाइयों की भी प्रशिक्षण का तक़ाज़ा करती है।

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